वर्ण परिवर्तन और वर्ण व्यवस्था





वर्ण शब्द "वृञ" धातु से बनता है जिसका मतलब है चयन या वरण करना है इसलिए यास्क  मुनि ने  निरुक्त में कहा है कि ‘‘वर्णो वृणोतेः’’ (निरुक्त 2 : 3)
अर्थात् - वर्ण उसे कहते हैं जो वरण अर्थात् चुना जाये .
वर्ण शब्द के अर्थ से ही स्पष्ट है कि यहाँ व्यक्ति को स्वतन्त्रता थी कि वह किस वर्ण को चुनना चाहता है।

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【 महर्षि मनु का मत  】

मनुस्मृति में इस बात की प्रमाणिकता मिलती हैं -

शूद्रेण हि समस्तावद् यावत् वेदे न जायते। 
-(मनुस्मृति 2:172)
अर्थात्-‘जब तक कोई वेदाध्ययन नहीं करता तब तक वह शूद्र के समान है, चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो।’

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।
- (मनुस्मृति-10:65)
अर्थात- ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं।

शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषूर्मृदुवागनहंकृत: ।
ब्राह्मणद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते
- (मनुस्मृति- 9:335)
अर्थात – शुद्ध-पवित्र, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, सदा ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों की सेवा में संलग्न शूद्र भी उत्तम ब्रह्मजन्म के अतंर्गत दूसरे वर्ण को प्राप्त कर लेता है ।

* ब्रह्मजन्म से अभिप्राय शिक्षित होने से है। शिक्षित होने को दूसरा जन्म भी कहा गया है ।

मनुस्मृति में, वर्ण परिवर्तन सिद्धान्त को नष्ट करने के लिए इससे पहले एक श्लोक प्रक्षिप्त कर दिया है जिसमें यह दिााया गया है कि वर्णपरिवर्तन सातवीं पीढ़ी में होता है। ऐसा विचार मनु की मान्यता के विरुद्ध है। पीढ़ियों का हिसाब संभव भी नहीं है।

वर्णपरिवर्तन के उदाहरण भी भारतीय प्राचीन इतिहास में मिलते हैं और इस सिद्धान्त की पुष्टि-परपरा भी। मनुस्मृति के उक्त श्लोकों के भावों को यथावत् वर्णित करने वाले श्लोक महाभारत में भी उपलध होते हैं। 
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【 वेदों का मत 】

त्वꣳ ह्या३ङ्ग दैव्य पवमान जनिमानि द्युमत्तमः । अमृतत्वाय घोषयन् ॥९३८॥

(सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 938 )

पदार्थान्वयभाषाः -
हे (अङ्ग) भद्र, (दैव्य) विद्वान् गुरु के शिष्य, (पवमान) चित्तशुद्धिप्रदाता आचार्य ! (द्युमत्तमः) अतिशय ज्ञानप्रकाश से युक्त (त्वं हि) आप (अमृतत्वाय) सुख के प्रदानार्थ (जनिमानि) शिष्यों के ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य रूप द्वितीय जन्मों की (घोषयन्) घोषणा किया करो ॥१॥

भावार्थभाषाः -
माता-पिता से एक जन्म मिलता है, दूसरा जन्म (ब्रह्मजन्म) आचार्य से प्राप्त होता है। जब शिष्य विद्याव्रतस्नातक होते हैं उस समय आचार्य गुणकर्मानुसार यह ब्राह्मण है, यह क्षत्रिय है, यह वैश्य है इस प्रकार स्नातकों को वर्ण देते हैं। उस काल में प्रथम जन्म का कोई ब्राह्मण भी गुण कर्म की कसौटी से क्षत्रिय या वैश्य बन सकता है,क्षत्रिय भी ब्राह्मण या वैश्य बन सकता है और वैश्य या शूद्र भी ब्राह्मण या क्षत्रिय बन सकता है ॥१॥

 
🌸 ऋग्वेद के एक मंत्र में एक ही परिवार के लोगों को अलग-अलग कर्म करते हुए अर्थात अलग-अलग वर्ण का बताया गया है -

का॒रुर॒हं त॒तो भि॒षगु॑पलप्र॒क्षिणी॑ न॒ना । नाना॑धियो वसू॒यवोऽनु॒ गा इ॑व तस्थि॒मेन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥

(ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:112» मन्त्र:3)

पदार्थान्वयभाषाः -(कारुः, अहं) मैं शिल्पविद्या की शक्ति रखता (ततः) पुनः (भिषक्) वैद्य भी बन सकता हूँ, (नना) मेरी बुद्धि नम्र है अर्थात् मैं अपनी बुद्धि को जिधर लगाना चाहूँ, लगा सकता हूँ, (उपलप्रक्षिणी) पाषाणों का संस्कार करनेवाली मेरी बुद्धि मुझे मन्दिरों का निर्माता भी बना सकती है, इस प्रकार (नानाधियः) नाना कर्मोंवाले मेरे भाव (वसुयवः) जो ऐश्वर्य्य को चाहते हैं, वे विद्यमान हैं। हम लोग (अनु, गाः) इन्द्रियों की वृत्तियों के समान तस्थिम की ओर जानेवाले हैं, इसलिये (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! हमारी वृत्तियों को (इन्द्राय) उच्चैश्वर्य्य के लिये (परि,स्रव) प्रवाहित करें ॥३॥

भावार्थभाषाः मैं सूत बुननेवाला हूँ, मेरा पिता वैद्य और माता धान कूटती है, इस प्रकार अलग-अलग वर्णवाले हम एक ही परिवार के हैं हम सब समाज के पोषण में एक गौ की भांति अपना अपना योगदान करते हैं॥३॥

🌸ऋग्वद के एक अन्य मंत्र में शुद्रों को द्विज बनाना तथा शत्रु का नाश करने का आदेश राजा को दिया गया है -

आ सं॒यत॑मिन्द्र णः स्व॒स्तिं श॑त्रु॒तूर्या॑य बृह॒तीममृ॑ध्राम्।
 यया॒ दासा॒न्यार्या॑णि वृ॒त्रा करो॑ वज्रिन्त्सु॒तुका॒ नाहु॑षाणि ॥१०॥

(ऋग्वेद »मंडल:6» सूक्त:22» मंत्र:10)

पदार्थान्वयभाषाः -हे (वज्रिन्) शस्त्र और अस्त्र के धारण करनेवाले (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य के करनेवाले ! आप (यया) जिससे (दासानि) शूद्र के कुलों को (आर्याणि) द्विजकुल और (सुतुका) उत्तम प्रकार बढ़नेवाले (नाहुषाणि) मनुष्यसम्बन्धी (वृत्रा) धनों को (आ) सब प्रकार (करः) करती हैं उस (अमृध्राम्) नहीं हिंसा करनेवाली (बृहतीम्) बड़ी सेना को (शत्रुतूर्याय) शत्रुओं के नाश के लिये करिये और उससे (नः) हम लोगों के लिये (संयतम्) किया है संयम जिसके निमित्त उस (स्वस्तिम्) सुख को करिये ॥१०॥

भावार्थभाषाः-हे राजन् ! आप सत्यविद्या के दान और उपदेश से शूद्र के कुल में उत्पन्न हुओं को भी द्विज करिये और सब प्रकार से ऐश्वर्य को प्राप्त कराय तथा शत्रुओं का निवारण करके सुख की वृद्धि कीजिये ॥१०॥

इस प्रकार यह साबित होता है कि वैदिक वर्ण व्यवस्था में वर्ण परिवर्तन होता था ।

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【 सूत्र ग्रंथों का मत 】

यह परपरा सूत्र-ग्रन्थों में भी मिलती है। आपस्तब धर्मसूत्र में बहुत ही स्पष्ट शदों में उच्च-निन वर्णपरिवर्तन का विधान किया है-

धर्मचर्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।
अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ॥
-(आपस्तब धर्मसूत्र 2:5:10-11)
अर्थ-निर्धारित धर्म के आचरण से निचला वर्ण उच्च वर्ण को प्राप्त कर लेता है, उस-उस वर्ण की वैधानिक दीक्षा लेने के बाद। इसी प्रकार अधर्माचरण करने पर उच्च वर्ण निचले वर्ण में चला जाता है, आचरण के अनुसार वर्णपरिवर्तन की वैधानिक स्वीकृति या घोषणा होने के बाद।

मनुस्मृति की तरह इस सूत्र में भी बहुत प्रछिप्त श्लोक है लेकिन ऐसे श्लोक मिलना बताता है कि इसके मूल अवधारणा को कैसे बदला गया

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【 उपनिषद का मत 】

🌸 याज्ञवल्क्य उपनिषद में जब अत्री ऋषि  महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछते हैं कि बिना कोई संस्कार के कोई सन्यासी ब्राह्मणत्व कैसे प्राप्त कर सकता है तो वह कहते हैं-

अथ  हैनमत्रिः पप्रच्छ याज्ञवल्क्यं यज्ञोपवीती
कथं ब्राह्मण इति । स होवाच याज्ञवल्क्य इदं
प्रणवमेवास्य तद्यज्ञोपवीतं य आत्मा । प्राश्याचम्याय॑
विधिरथ वा परिव्राड्विवर्णवासा मुण्डो परिग्रहः शुचिरद्रोही
भैक्षमाणो ब्रह्म भूयाय भवति ।॥ ४॥सा पन्थाः परिव्राजकानां वीराध्वनि वानाशके वापां प्रवेशे वाग्निप्रवेशे वा महाप्रस्थाने वा | एष पन्था ब्रह्मणाहानुवित्तस्तेनेति स संन्यासी ब्रह्मविदिति | एवमेवैष भगवज्निति वै याज्ञवल्क्य ।॥५॥तत्र परमहंसा नाम
संवर्तकारुणिश्वेतकेतुदूर्वासकऋरभुनिदाघदत्तात्रयशुकवामदेवहारीतक प्रभूतयोव्यक्तलिड्डाव्यक्ताचारा ॥ ६॥

(याज्ञवल्क्य उपनिषद 4-6)

अर्थ - इसके पश्चात्‌ याज्ञवल्क्य जी से अत्रि ऋषि ने पूछा- 'हे महर्षे ! यज्ञोपवीत के बिना कोई ब्राह्मण कैसे हो सकता है? याज्ञवल्क्य ऋषि ने कहा कि यह ओमकार ही उस संन्यासी का यज्ञोपवीत है, यही आत्मा है। जो पूर्वोक्त प्रकार से हवन करके उसका प्राशन कर आचमन
कर लेता है। उस के लिए मात्र यही विधि है ॥ ४॥
इस प्रकार गेरुवे वस्त्र धारण करने वाला संन्यासी मुण्डनयुक्त,अपरिग्रही, पवित्रतायुक्त, किसी से द्रोह (ईप्र्या-द्वेष) न करने वाला, भिक्षाचरण करता हुआ
 ब्राह्मणत्व को प्राप्त होता है, वह ब्रह्म का ज्ञाता है अर्थात्‌ ब्रह्म की प्राप्ति के लिए समर्थ है। संन्यासियों के लिए यही मार्ग है-यही विधि है। जल प्रवेश, अग्नि प्रवेश, वीरगति, महाप्रस्थान(मृत्युमोक्ष) आदि में परिव्राजकों (संन्यासियों) के लिए यह रास्ता निर्दिष्ट किया है। इसी कारण से संन्यासी ब्रह्म का ज्ञाता होता है। यह विधि ऐसी ही है महाराज; ऐसा याज्ञवल्क्य जी ने कहा ॥५॥
यहाँ इन संन्यासियों में श्रेष्ठ परमहंस नाम वाले, अव्यक्त चिह्न को धारण करने वाले, अव्यक्त स्वभाव वाले, अनुन्मत्त होते हुए भी उन्मत्त आचरण करने वाले हैं। (इनके नाम इस प्रकार हैं-) संवर्तक, आरुणि, श्वेतकेतु, दुर्वासा, ऋभु , निदाघ, दत्तात्रेय, शुक, वामदेव, हारीतक आदि-आदि ॥ ६॥

🌸  वज्रसूचि उपनिषद्  में जब एक प्रश्न किया जाता है क्या ब्राह्मण एक जाति है तब उसमें  जो कहा जाता है वह वर्ण परिवर्तन की बात को प्रमाणित सिद्ध करता है

तर्हि जाति ब्राह्मण इति चेत् तन्न । तत्र
जात्यन्तरजन्तुष्वनेकजातिसम्भवात् महर्षयो बहवः सन्ति ।ऋष्यशृङ्गो मृग्याः, कौशिकः कुशात्, जाम्बूको जाम्बूकात्, वाल्मीको वाल्मीकात्, व्यासः कैवर्तकन्यकायाम्, शशपृष्ठात् गौतमः, वसिष्ठ उर्वश्याम्, अगस्त्यः कलशे जात इति शृतत्वात् । एतेषां जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति । तस्मात् न जाति ब्राह्मण इति ॥

(वज्रसूचि उपनिषद् -6 )

अर्थात -  ब्राह्मण कोई जाति है ? नहीं, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि विभिन्न जातियों एवं प्रजातियों में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है ! जैसे – मृगी से श्रृंगी ऋषि की, कुश से कौशिक की, जम्बुक से जाम्बूक की, वाल्मिक से वाल्मीकि की, मल्लाह कन्या (मत्स्यगंधा) से वेदव्यास की, शशक  से गौतम की, उर्वशी से वसिष्ठ की, कुम्भ से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति वर्णित है ! इस प्रकार पूर्व में ही कई ऋषि बिना ब्राह्मण घर में में जन्म लिए प्रकांड विद्वान् हुए हैं, इसलिए केवल कोई जाति विशेष भी ब्राह्मण नहीं हो सकती है !

🌸 छान्दोग्य उपनिषद में वर्णन  है जिसमें एक अज्ञात कुल का व्यक्ति ब्राह्मण बना . सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।

तँ होवाच किङ्गोत्रो नु सोम्यासीति स होवाच नाहमेतद्वेद भो यद्गोत्रोऽहमस्म्यपृच्छं मातरँ सा मा प्रत्यब्रवीद्बह्वहं चरन्ती परिचरिणी यौवने त्वामलभे साहमेतन्न वेद यद्गोत्रस्त्वमसि जबाला तु नामाहमस्मि सत्यकामो नाम त्वमसीति सोऽहँ सत्यकामो जाबालोऽस्मि भो इति ॥ ४ ॥ तँ होवाच नैतदब्राह्मणो विवक्तुमर्हति समिधँ सोम्याहरोप त्वा नेष्ये न सत्यादगा इति तमुपनीय कृशानामबलानां चतुःशता गा निराकृत्योवाचेमाः सोम्यानुसंव्रजेति ता अभिप्रस्थापयन्नुवाच नासहस्रेणावर्तेयेति स ह वर्षगणं प्रोवास ता यदा सहस्रँ संपेदुः ॥ ५ ॥ 

(छान्दोग्य उपनिषद 4.4 .4-5)

अर्थ - सत्यकाम से वह ऋषि बोला  - हे सोम्य! (तुम्हारा) गोत्र क्या है ? वह बोला - भगवन्! मैं यह नहीं जानता । जिस गोत्र का मैं हूं माता से मैंने पूछा था उसने मुझ से कहा - ‘बहुत’ (पुरूषों) की सेवा करती हुई (इस) सेविका ने तुझे प्राप्त किया है सो मैं यह नहीं जानती जिस गोत्र का तू है । परन्तु मैं जबाला नाम वाली हूं और सत्यकाम नाम वाला तू है भगवन्! सो मैं सत्यकाम जबाला हूं ।
ऋषि ने कहा कि ऐसी बात कोई अनार्य नहीं बोल सकता।  हे  सोम्य! समिधम् ला तुझ को उपनीत ( उपनयन संस्कार )करूंगा । तू सत्य से पृथक् नहीं हुआ । उसको उपनयन देकर दुबली पतली और कमजोर चार सौ गाय गोशाला से निकाल कर बोला । हे सोम्य ! इनके पीछे पीछे जाओ उन गायों को हांकते हुए सत्यकाम ने कहा कि हजार गाएं हुए बिना न लौटूंगा । वह कहा जाता है कि, अनेक वर्ष वन में रहा वे गायें जब हजार हो गईं ।

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【 ब्राह्मण ग्रंथों का  मत 】

🌸गुणकर्मानुसार वर्णव्यवस्था के स्पष्ट संकेत ब्राहमण ग्रन्थों में मिलते हैं। ब्राहमण व्यक्ति भी कर्मों के आधार पर क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र बन सकता है।  

 स ह दीक्षमाणः एव ब्राहमणतामभ्युपैति 
(ऐतरेय ब्राहमण 7 : 23) 
अर्थात - क्षत्रिय दीक्षित होकर ब्राहमणतत्त्व को प्राप्त हो जाता है। 

तस्मात् अपि (दीक्षितम्) राज्यन्यं वा वैश्यं वा ब्राहमण इत्येव ब्रूयात्। ब्राहमणो हि जायते यो यज्ञात् जायते।
(शतपत ब्राहमण 3: 2 :1: 40)
अर्थात -  क्षत्रिय वैश्य भी यज्ञ दीक्षा ग्रहण करके ब्राहमण वर्ग में दीक्षित हो सकता है। 

यहाँ पर यज्ञ में दीक्षित होने से तात्पर्य ब्रहमचर्याश्रम में वेदाध्ययन के समय से है। उसके बाद वह ब्राहमण भी कर्मानुसार क्षत्रियत्व, वैश्यत्व अथवा शूद्रत्व को प्राप्त होते हैं।

🌸ब्राह्मण ग्रंथों में भी वर्ण परिवर्तन के कई उदाहरण है जैसे -

1-वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने । 
(ऐतरेय ब्राह्मण 2:11)

2-चक्रवर्ती क्षत्रिय राजा मनु वैवस्वत का नाभानेदिष्ट नामक पुत्र ब्राह्मण बना 
(ऐतरेय ब्राह्मण 5:14)

3-सत्यकाम जाबाल अज्ञात कुल का था। वह अपनी सत्यवादिता एवं प्रखर बुद्धि के कारण महान् और प्रसिद्ध ऋषि बना। 
( पंचविश ब्राह्मण 8:6:1)

4-दासी का पुत्र ‘कवष ऐलूष’ शूद्र परिवार का था। वह विद्वान् ब्राह्मण बनके मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहलाया। इस ऋषि द्वारा अर्थदर्शन किये गये सूक्त आज भी ऋग्वेद के दशम मण्डल में (सूक्त 31-33) मिलते हैं, जिन पर ऋषि के रूप में इसी का नाम अंकित है। (सांयायन ब्राह्मण 12:1-3)

अलग अलग वर्ण के लोग वर्ण परिवर्तन करके ब्राह्मण बन रहे थे इसलिये मैत्रायणी संहिता में ब्राह्मण से उसका माता पिता के नाम पूछे जाने पर आपत्ति जताई गयी है -

किं ब्राह्मणस्य पितरं किमु पृच्छसि मातरं ।
श्रुतं चेदस्मिन् वेद्यं स पिता स पितामहः ॥
(मैत्रायणी संहिता 4:8:1)
अर्थात्-ब्राह्मण के माता-पिता को क्यों पूछते हो? यदि उसमें श्रतु है, तो वही उस का पिता है, वही पितामाह है। 
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 【 महाभारत भी यही मत रखता है 】

‘‘कर्मणा दुष्कृतेनेह स्थानाद् भ्रश्यति वै द्विजः।’’
‘‘ब्राह्मण्यात् सः परिभ्रष्टः क्षत्रयोनौ प्रजायते।’’
‘‘स द्विजो वैश्यतां याति वैश्यो वा शूद्रतामियात्।’’
‘‘एभिस्तु कर्मभिर्देवि, शुभैराचरितैस्तथा।’’
शूद्रो ब्राह्मणतां याति वैश्यः क्षत्रियतां व्रजेत्।
-(महाभारत, अनुशासन 143 : 7, 9, 11, 26)

अर्थात्-दुष्कर्म करने से द्विज वर्णस्थ अपने वर्णस्थान से पतित हो जाता है।……क्षत्रियों जैसे कर्म करने वाला ब्राह्मण भ्रष्ट होकर क्षत्रिय वर्ण का हो जाता है।……..वैश्य वाले कर्म करने वाला द्विज वैश्य और इसी प्रकार शूद्र वर्ण का हो जाता है। हे देवि! इन अच्छे कर्मों के करने और शुभ आचरण से शूद्र, ब्राह्मणवर्ण को प्राप्त कर लेता है और वैश्य, क्षत्रिय वर्ण को। इसी प्रकार अन्य वर्णों का भी परस्पर वर्ण-परिवर्तन हो जाता है।


🌸महाभारत के वनपर्व में जब युधिष्ठिर से पूछा गया अगर किसी शूद्र में ब्राह्मण के लक्षण हुवे तो वो क्या होगा इसपर युधिष्ठिर ने कहा-

शूद्रे चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते ।
न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः ॥

(महाभारत - वनपर्व 177:20)

अर्थात् - यदि शुद्र में  ब्राह्मणीय  लक्षण हैं तो वो ब्राह्मण है और अगर किसी ब्राह्मण में ब्राह्मणीय  लक्षण का आभाव है तो वो ब्राह्मण शुद्र है ।

🌸शिव जी महाभारत में इस विषय पर कहते है-



ज्ञानविज्ञानसम्पन्नः संस्कृतो वेदपारगः।
विप्रो भवति धर्मात्मा क्षत्रियः स्वेन कर्मणा।। 45।।
एतैः कर्मफलैर्देवि न्यूनजातिकुलोद्भवः।
शूद्रोऽप्यागमसम्पन्नो द्विजो भवति संस्कृतः।। 46।।
-(महाभारत- अनुशासन पर्व 143 : 45-46)
अर्थात - धर्मात्मा क्षत्रिय अपने कर्म से ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न, संस्कारयुक्त तथा वेदों का पारगंत विद्वान् ब्राह्मण होता है।देवि! इन कर्म फलों के प्रभाव से नीच जाति एवं हीन कुल में उत्पन्न हुआ शूद्र भी शास्त्र ज्ञान सम्पन्न और संस्कार युक्त ब्राह्मण होता है।

न योनिनोपि संस्कारो न श्रुतंन च संततिः
 कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम् ॥ 
सर्वोष्य त्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितस्तु शुद्रो पि ब्राह्मणत्वं नियच्छति॥ 
-(महाभारत- अनुशासन पर्व 143 : 50-51)

अर्थात - भगवान शिव ने कहा ब्राह्मणत्व  की प्राप्ति  न  तो जन्म से  न संस्कार न शास्त्रज्ञान और न सन्तति के कारण है ।ब्राह्मणत्व का प्रधान हेतु तो सदाचार ही है। लोक में यह सारा ब्राह्मण समुदाय सदाचार से ही अपने पदपर बना हुआ है | सदाचार में स्थित रहने वाला शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकता है ।

एतत्‌ ते गुह्ममाख्यातं यथा शूद्रो भवेद्‌ द्विजः।
ब्राह्मणो वा च्युतो घर्माद्‌ यथा शुद्ग॒त्वमाप्नुते॥ ५९ ॥
(महाभारत- अनुशासन पर्व 143 : 59)

अर्थात -शुद्र धर्माचरण करने से जिस प्रकार ब्राह्मणत्व को प्राप्त करता है तथा ब्राह्मण स्वाधर्म का त्याग करके भ्रष्ट होकर शुद्र हो जाता है ये बताया गया है.

🌸 महाभारत के वनपर्व के अन्तर्गत आरणेय पर्व के अध्याय 313 में यक्ष और युधिष्ठिर संवाद है | जिसमे यह कहा गया कि व्यक्ति द्वारा आचरण ही वर्ण का निर्धारण करता है,कुल और जाति उसका आधार कारण नही होता है | इस संवाद के प्रमुख अंश निम्नवत हैं:-

          यक्ष उवाच
राजन्   कुलेन  वृत्तेन  स्वाध्यायेन  श्रुतेन  वा|
ब्राम्हण्यं  केन  भवति प्रब्रूह्येतत्  सुनिश्चितम् |(१०७)
         युधिष्ठिर उवाच
श्रुणु  यक्ष कुलं तात न स्वाध्यायो न च श्रुतम् |
कारणं   हि   द्विजत्वे  च  वृत्तमेव  न  संशय:|(१०८)
वृत्तं   यत्नेन   संरक्ष्यं    ब्राम्हणेन   विशेषत:|
अक्षीणवृत्तो   न  क्षीणो  वृत्ततस्तु   हतो हत:|(१०९)
पठका:पाठकाश्चैव  ये चान्ये  शास्त्रचिन्तका:|
सर्वे व्यसनिनो मूर्खा य: क्रियावान स पण्डित:|(११०)
चतुर्वेदो९पि    दुर्वृत्त:    स    शूद्रादतिरिच्यते| 

( महाभारत - वन पर्व 313 : 107-110 )

अर्थात - यक्ष ने पूछा-राजन !कुल,आचार,स्वाध्याय और शास्त्रश्रवण-इनमें से किसके द्वारा ब्राम्हणत्व मिलता है निश्चय करके बताओ ?
युधिष्ठिर ने कहा-तात यक्ष !सुनो न तो कुल ,न स्वाध्याय और न शास्त्र श्रवण से ब्राम्हणत्व प्राप्त होता है|ब्राम्हणत्व की प्राप्ति मात्र आचार से प्राप्त होती है|इसमे संशय नही है|इसलिए सदाचार की यत्नपूर्वक रक्षा करना चाहिए ! ब्राम्हण को तो उस पर विशेष दृष्टि रखनी चाहिए|क्योंकि जब तक सदाचार सुरक्षित है,तभी तक ब्राम्हणत्व भी बना हुआ है और जिसका आचार नष्ट हो गया,वह स्वयं नष्ट हो गया अर्थात वह ब्राम्हण नही रहा|चारो वेद पढ़कर भी  जो दुराचारी है,वह ब्राम्हण नही शूद्र से भी अधिक अधम है |

🌸 ऋषि वैश्यम्पायन युधिष्ठिर से आश्वमेधिकपर्व मे कहते हैं-

न जात्या पुजीतो राजन्गुणाः कल्याणकारणाः।
चण्डालमपि वृत्तस्थं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।।
( महाभारत -आश्वमेधिकपर्व 116:8)
अर्थात - कुल, जाति से कोई पूजनीया नहीं होता है व्यक्ति के अन्दर का गुण ही कल्याणकारक होता है और , यदि चाण्डाल भी वृत्तस्थ हो तो वह ब्राह्मण होता है।


महाभारत - वन पर्व इसी बात को दोहराया-

शूद्रयोनौ हि जातस्य सद्गुणानुपतिष्ठतः ।
वैश्यत्वं भवति ब्रह्मन्क्षत्रियत्वं तथैव च ॥ ११ ॥
आर्जवे वर्तमानस्य ब्राह्मण्यमभिजायते ।
गुणास्ते कीर्तिताः सर्वे किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १२ ॥
( महाभारत - वनपर्व 203:11-12)

अर्थात - शूद्रयोनि में उत्पन्न मनुष्य भी यदि उत्तम गुणों का आश्रय ले, तो वह वैश्य तथा क्षत्रियभाव को प्राप्त कर लेता है , यदि शूद्र कुल में उत्पन्न व्यक्ति ब्राह्मण गुण यथा सत्य, शम, दम (आत्म संयम) तथा आर्जव (सरलता) उत्पन्न कर लेता है, तो वह ब्राह्मण का उच्च पद प्राप्त करता है। इस प्रकार मैंने आपसे सम्पूर्ण गुणों का वर्णन किया है, अब और क्या सुनना चाहते हैं ?



=>उदाहरण :-

1-प्रतीपस्य त्रयः पुत्रा जशिरे भरतर्षभ ।
देवापिः शास्तनुरुचेब बाह्नीकश्च- महारथः ॥६१॥
देवापिश्व प्रवत्नाज तेषां धर्महितेप्सया
शान्तनुददच महीं लेने बाह्नीकह्च महारथः ॥६२॥
(महाभारत - आदिपर्व 94 : 61-62)  

अर्थात  - राजा प्रतीप के तीन पुत्र हुए-देवापि, शान्तनु और महारथी। इनमें से देवापि वेदवक्ता ( ब्राह्मण) बन गया और शान्तनु तथा महारथी बाल्हीक राजा ( क्षत्रिय )बने। 

2-पश्चालेषु च कोरव्य कथयन्त्युत्पलावनम्‌ |
विश्वामित्नोयजद्‌ यत्र पुत्रेण सह कौशिकः ॥ १५॥
कान्यकुब्जे पिबत्‌ सोममिन्द्रण सह कौशिक: ।
ततःक्षत्रादपाक्रामद्‌ ब्राह्मणो उस्मीति चात्रवीत्‌ ॥१७॥
( महाभारत -वनपर्व   87 :15 , 17 )
अर्थात  - “कुरुनन्दन पांचालदेश में ऋषि लोग उप्लावन बतलाते है की, जहाँ कुशिकनन्दन विश्वामित्र ने अपने पुत्र के साथ यश किया था ।   यज्ञ के पश्चात विश्वामित्र जी ने कान्यकुब्ज देश में इन्द्र के साथ सोमपान किया; वही वे क्षत्रियत्व से ऊपर उठ गये और मैं ब्राह्मण हूँ? यह बात घोषित कर दी ।
3-ततो ब्राह्मणतां जातो, विश्वामित्रो महातपाः।
क्षत्रियः सोञ्प्यथ तथा, ब्रह्म-वंशस्य कारकः॥
(महाभारत -अनुशासन पर्व 4 : 48)
अर्थात  - क्षत्रिय कुलोत्पन्न महातपस्वी विश्वामित्र भी ब्राह्मण-गोत्र का प्रवर्तक ब्राह्मण हो गया।

4-यत्रार्ष्टिषेणः कौरव्य ब्राह्मण्यं संशितव्रतः ।
तपसा महता राजन्प्राप्तवानृषिसत्तमः ॥ 
सिन्धुद्वीपश्च राजर्षिर्देवापिश्च महातपाः ।
ब्राह्मण्यं लब्धवान्यत्र विश्वामित्रो महामुनिः ।

(महाभारत -शल्य पर्व 39 : 36-37)

अर्थात - हे राजन! कुरुकुलोत्पन्न वृती राजा अरिष्टषेण ने महातप से ब्राह्मणत्व को प्राप्त
कर लिया। राजर्षि सिन्धुद्वीप और महातपस्वी देवापि तथा विश्वामित्र मुनि ने ब्राह्मणत्व
को प्राप्त किया।

5-तस्मिन्नेव तदा तीर्थे सिन्धुद्वीपः प्रतापवान्‌ ।
देवापिंश्व महाराज ब्राह्मण्यं प्रापतुमेहत्‌ ॥ १०॥
तथा च कौशिकस्तात तपोनित्यो जितेन्द्रियः ।. 
तंपसा वै सुतप्तेन ब्राह्मणत्वमवाप्तवान ॥ ११॥
(महाभारत -शल्य पर्व 40 : 10-11)

अर्थात - महाराज ! उन्हीं दिनों उसी तीर्थ में प्रतापी सिन्धुद्दीप तथा देवापि ने वहाँ तप करके महान्‌ ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। कुशिकवंशी विश्वामित्र भी वहीं निरन्तर इन्द्रिय संयमपूर्वक तपस्या करते थे । उस भारी तप  के प्रभाव से उन्होंने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया और वे ब्राह्मण हो गए ॥
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【 वैष्णव मत 】

सभी पवित्र हिंदू शास्त्र वर्ण परिवर्तन का पूर्ण समर्थन करते हैं। आलवार , गौड़िया और रामानंदी जैसे वैष्णव पूरी तरह से सहमत हैं कि वर्ण को बदला जा सकता है ।

प्रायः स्वभावविहितो नृषां धर्मो युगे युगे।।

(श्रीमद भागवत -7:11:31)

अर्थात –वेददर्शी ऋषि–मुनियों ने युग-युग में मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार धर्म की व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिए इस लोक तथा परलोक में कल्याणकारी है।

🍁यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम् ।
यदन्यत्रापि द‍ृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ॥ ३५ ॥
(श्रीमद भागवतम  -7:11:35 )

अर्थात – नारद जी  ने कहा यदि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होने के लक्षण दिखाता है, जैसा कि  वर्णित है, भले ही वह एक अलग वर्ग में प्रकट हुआ हो, उसे वर्गीकरण के उन लक्षणों के अनुसार स्वीकार किया जाएगा ।

=>उदाहरण :-

1- धृष्टाद् धार्ष्टमभूत् क्षत्रं ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ ।
नृगस्य वंश: सुमतिर्भूतज्योतिस्ततो वसु: ॥ १७ ॥
(श्रीमद भागवतम  - 9:2:17)
अर्थात – मनु के पुत्र धृष्ट से धार्ष्ट नामक एक क्षत्रिय उत्पन्न हुवे,बाद में उन्होंने ब्राह्मणों का स्थान प्राप्त किया।  नृग से सुमति उत्पन्न हुई। सुमति से भूतज्योति और भूतज्योति से वासु उत्पन्न हुवे।

2-नाभागो दिष्टपुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यतां गत: ।
भलन्दन: सुतस्तस्य वत्सप्रीतिर्भलन्दनात् ॥ २३ ॥
(श्रीमद भागवतम  -  9:2:23)
अर्थात –दिष्ट का पुत्र नाभाग था वह अपने कर्म से वैश्य हो गया उसका पुत्र भलंदन हुवा और उससे वत्सप्रीति हुवा ।

3-यवीयांस एकाशीतिर्जायन्तेया: पितुरादेशकरा महाशालीना 
महाश्रोत्रिया यज्ञशीला: कर्मविशुद्धा ब्राह्मणा बभूवु: ॥ १३ ॥
(श्रीमद भागवतम  - 5:4:13)
अर्थात – राजा ऋषभदेव और जयन्ती के 81 पुत्र अपने पिता के आदेश के अनुसार, वे  अपनी गतिविधियों में वैदिक अनुष्ठानों को किया और वेदाध्यन किया। इस प्रकार वे सभी पूर्णतः योग्य ब्राह्मण बन गए ।

4-पृषध्स्तु मनुपुत्रो गुरुगोवधाच्छूद्रत्वमगमत्‌ ॥ १७॥
(विष्णु पुराण 4:1:17)
अर्थात – मनु का पृषध्र नामक पुत्र गुरु की गौ का वध करने के कारण क्षत्रिय से शूद्र हो गया ।

5-एते क्षत्रप्रसूता वै पुनश्चाड्रिरसा: स्मृता:।
रथीतराणां प्रवरा: क्षत्रोपेता द्विजातय: ॥ १०॥
(विष्णु पुराण 4:2:10)
अर्थात – रथीतर के वंशज क्षत्रिय की संतान   होते हुए भी आंगिरस कहलाये; अत: वे क्षत्रोपेत ब्राह्मण हुए ।

6-गृत्समदस्य शौनकश्चातुर्वर्ण्यप्रवर्तयिताभूत्‌॥ 
(विष्णु पुराण 4:8:6)
अर्थात – क्षत्रिय गृत्समद का पुत्र शौनक चा्तुर्वर्ण्य का प्रवर्तक ब्राह्मण हुआ ।

7-पुत्रोगृत्समद्स्यापि शुनको यस्य शौनकाः। 
ब्राह्मणः क्षत्रियाश्चैव वैश्याः शूद्रास्तथैवच॥ 
(हरिवंश पुराण 1 : 29 : 8 )
अर्थात – गृत्समद के पुत्र शुनक हुए, जिससे शौनक-वंश का विस्तार हुआ ।  शौनक-वंश में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णो के लोग हुए।  

8-भगवान रामचन्द्र जी के गुरु महर्षि वसिष्ठ एक वैश्या या गणिका गर्भ से पैदा हुए थे-
गणिकागर्भ  सम्भूतो  वशिष्ठश्च  महामुनि:|
तपसा ब्राम्हणो जात: संस्कारस्तत्र कारणम्||
(भविष्य पुराण 1 : 42 :29)
अर्थात – महर्षि वशिष्ठ वैश्या के गर्भ से उत्पन्न हुए और संस्कार होने पर तपस्या करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त करके ब्राम्हण बने |

9-नाविकागर्भ  सम्भूतो   मंदपालो  महामुनि:|
तपसा ब्राम्हणो जात: संस्कारस्तत्र कारणम्||
(भविष्य पुराण 1 : 42 :30)
अर्थात – महर्षि मंदपाल नाविका के गर्भ से उत्पन्न हुए और संस्कार होने पर तपस्या करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त करके ब्राम्हण बने |

10-जातो व्यासस्तु कैवर्त्याः श्वपाक्याश्च पराशरः ।
(भविष्य पुराण 1 : 42 :22)
अर्थात –व्यास मल्लाही से, और श्वपाकी (चाण्डाली) से पराशर हुवे थे।

11-श्वपाकीगर्भ सम्भूतो पिता व्यासस्य पार्थिव:|
तपसा ब्राम्हणो जात: संस्कारस्तत्र कारणम्||
(भविष्य पुराण 1 : 42 :27)
अर्थात – महर्षि व्यास के पिता महर्षि पराशर चाण्डाली के गर्भ से उत्पन्न हुए और संस्कार होने पर तपस्या करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त करके ब्राम्हण बने |


12-नाभागारिष्टपुत्रौ द्वौ वैश्यौ ब्राह्मणतां गतौ॥
(हरिवंश पुराण 1:11:9)
अर्थात – नाभाग और अरिष्ट दो वैश्य के पुत्र ब्राह्मण हो गये।

13-गर्गाच्छिनिस्ततो गार्ग्यः क्षत्राद् ब्रह्म ह्यवर्तत ।
दुरितक्षयो महावीर्यात् तस्य त्रय्यारुणिः कविः ॥१९॥
पुष्करारुणिरित्यत्र ये ब्राह्मणगतिं गताः ।
बृहत्क्षत्रस्य पुत्रोऽभूद्धस्ती यद्धस्तिनापुरम् ॥२०॥
(श्रीमद भागवतम - 9:21:19-20)
अर्थात – मन्युपुत्र गर्ग से शिनि और शिनि से गार्ग्य का जन्म हुआ। यद्यपि गार्ग्य क्षत्रिय था, फिर भी उससे गार्ग्य ब्राह्मण क्षत्रियों हुवे । । महावीर्यका पुत्र था दुरितक्षय। दुरितक्षयके तीन पुत्र हुए—त्रय्यारुणि, कवि और पुष्करारुणि। ये तीनों ब्राह्मण हो गये। बृहत्क्षत्रका पुत्र हुआ हस्ती, उसीने हस्तिनापुर बसाया था ॥

म्लेच्छास्ते वैष्णवाश्चासन्रामानन्दप्रभावतः ।
संयोगिनश्च ते ज्ञेया रामानन्दमते स्थिताः । । ५४
आर्याश्च वैष्णवा मुख्या अयोध्यायां बभूविरे ।
(भविष्य पुराण - प्रतिसर्गपर्व खण्ड- 4: 21 :54)
अर्थात – वे म्लेच्छ रामानन्द के प्रभाव से 'संयोगी” नामक वैष्णव हो गए और वे आर्य हो गए और मुख्य वैष्णव अयोध्या में हुए।

विलासिनीभुजंगादिजनवन्मदविह्वलाः ।
व्यामुह्यन्ति सदाचाराद्ब्राह्मणत्वात्पतन्ति च । । १५
संस्कृतोऽपि दुराचारो नरकं याति मानवः ।
निःसंस्कारः सदाचारो भवेद्विप्रोत्तमः सदा । । १६
(भविष्य पुराण 1 : 42 :15-16)
अर्थात – बिलासी और दुष्ट आदि लोगों की भाँति मदान्ध होकर  संस्कारी  पुरुष मोह में पड़कर ब्राह्मणत्व से पतन हो जाता है और वो नर्क जाते है किन्तु संस्कार हीन पुरुष, सदाचारी एवं उत्तम हो तो वो ब्राह्मण हो जाते हैं । 
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【 शैव मत 】

जिस तरह वैष्णव  पुराणों में सैकड़ों वर्ण परिवर्तन के उदाहरण है उस तरह शैव ग्रंथो में नहीं है लेकिन शैव ग्रन्थ भी वर्ण परिवर्तन को समर्थन करते है . शिव पुराण की विद्याश्वर-संहिता (अध्याय 17) इस बारे में है कि कैसे क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी शिव के मंत्र का उपयोग करके ब्राह्मण बन सकते हैं -

1-क्षत्रियः पञ्चलक्षण क्षत्रत्वमपनेष्यति ।
पुनश्च पञ्चलक्षण क्षत्रियो ब्राह्मणो भवेत् ।।
मन्त्रसिद्धिर्जपाद्यैव क्रमान्मुक्तो भवेन्नर ।
वैश्यस्तु पञ्चलक्षण वैश्यत्वमपनेष्यति ।।
पुनश्च पञ्चलक्षण मन्त्रक्षत्रिय उच्यते ।
पुनश्च पञ्चलक्षण क्षत्रत्वमपनेष्यति ।।
पुनश्च पञ्चलक्षण मन्त्रब्राह्मण उच्यते ।
शूद्रश्चैव नमोऽन्तेन पञ्चविंशतिलक्षत ।।
मन्त्रविप्रत्वमापद्य पश्चाच्छुद्रो भवेद्द्विज।
नारीवाथ नरो वाथ ब्राह्मणो वान्य एव वा ।।

2-इसके अलावा एक अन्य शैव ग्रन्थ में लिखा है-
ग॒त॑ शूद्रस्प शूद्र॒त्वं विप्रस्यापि च विप्रता ।
दीक्षासंस्कारसम्पन्ने जातिभेदो न विद्यते ॥९१॥
(कुलार्णव तंत्र - 14: 91)
अर्थात –दीक्षा संस्कार के बाद कोई शूद्र , शूद्र नहीं रहता है, न ही कोई विप्र विप्र रहता है। दीक्षा के बाद जाति का कोई अंतर नहीं रहता है।

शरीरस्य न संस्कारों जायते न च कर्मणः।
आत्मन: कारयेदीक्षामनादिकुलकुण्डलीम्‌॥
(कुलार्णव तंत्र - 14: 81)
अर्थ – शरीर का न तो संस्कार होता है न उसकी कोई जाति होती है न कोई कर्म । आत्मा की ही दीक्षा होती है जो की अनादि कुलकुंडली है।

एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुअ्चावमानयेत्‌ ।
श्वानं योनिशतं गत्वा चण्डालत्वमवाप्नुयात्‌॥
(कुलार्णव तंत्र - 11 : 74)
अर्थ – यह बिलकुल निर्धरित है की जो अपने गुरु का सही से सम्मान नहीं करता वो चाण्डाल बन जाता है और वो कुत्ते के योनि में जन्म पाता है।

दीक्षया मोक्षदीपेन चण्डालोपि विमुच्यते ।
(कुलार्णव तंत्र - 14 : 80)
अर्थ – दीक्षा से चाण्डाल भी मोक्ष प्राप्त करता है।

अन्य तंत्र ग्रंथों में भी यही मत है -

ब्रह्मनन्दमयं ज्ञानं कथयामि वरानने ।
नः ब्राह्मणो ब्राह्मणस्तु क्षत्रिय: क्षत्रियस्तथा ॥  
वैश्यो न वैश्यः शूद्रों न शूद्रत्स्तु परमेश्वरी ।
चाण्डालो नैव चाण्डालः पौल्कसो न च॑ पौल्कसः ॥  
सर्वे सम॑ विजानीयात्परमार्मेविनिश्चयात्‌ ।
(ज्ञानार्णव तंत्र 23:28-29)
अर्थ – ब्रह्मज्ञान का अधिकारी कौन है ? किसी भी वर्ण के बीच कोई भेद नहीं है, यहां तक ​​​​कि चांडाल या पौलकसो को भी ब्रह्म के साथ एकीकरण प्राप्त होता है तथा सभी एक सामान है।

यदि ज्ञानं भवेद एव सा देवो न तु मनुषः 
चाण्डालदिनीचजातौ स्थिरो  व ब्राह्मणोत्तमः
(रुद्रयामल तंत्र 48:131)
अर्थ –अगर किसी को ज्ञान की प्राप्ति होती है तो वो देव सामान्य है मनुष्य नहीं निम्न जाती के चाण्डाल भी ज्ञान प्राप्ति के बाद ब्राह्मण से उत्तम हो जाता है।


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नीति शास्त्र का मत

विश्वामित्रो वशिष्ठश्च मतङ्गो नारदादय:।
तपोविशेषै: सम्प्राप्ता उत्तमत्वं न जातित:।।
(शुक्रनीतिसार 4:38) 
अर्थ – (क्षत्रिय से उत्पन्न हुए) विश्वामित्र, (अप्सरा से उत्पन्न हुए) वशिष्ठ, (साधारण वर्ण में उत्पन्न हुए) मतङ्ग, (दासी पुत्र) नारद आदि विशेष तप के द्वारा उत्तमता को प्राप्त हुए थे, जाति से नहीं।
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【राजसिक पुराण का मत 】 

स्वभावकर्मणा चैव यत्र शुद्रोऽधितिष्ठति।। २२३.५५ ।।
विशुद्धः स द्विजातिभ्यो विज्ञेय इति मे मतिः।
न योनिर्नापि संस्कारो न श्रुतिर्न च संतति।। २२३.५६ ।।
कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम्।
सर्वोऽयं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।। २२३.५७ ।।
वृत्ते स्थितश्च शुद्रोऽपि ब्राह्मणत्वं च गच्छति।
ब्रह्मस्वभावः सुश्रोणि समः सर्वत्र मे मतः।। २२३.५८ ।।
(ब्रह्मा पुराण 22:55-58)
अर्थ –  शिवजी ने पार्वती से कहा-
 जो शूद्र अपने स्वभाव और कर्म के अनुसार जीवन बिताता है, उसे द्विजातियों से भी अधिक शुद्ध जानना चाहिये-ऐसा मेरा विश्वास है। जन्म, संस्कार, वेदाध्ययन और संतति-ये सब द्विजत्व के कारण नहीं हैं; द्विजत्व का मुख्य कारण तो सदाचार ही है। संसारमें ये सब लोग आचरण से ही ब्राह्मण माने जाते हैं। उत्तम आचरण में स्थित होने पर शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकता है। हे पार्वती! ब्रह्मस्वभाव सर्वत्र सम है- यह मेरी मान्यता है।


आहिताग्निरधीयानो ब्रह्मभूयाय कल्पते।
ब्राह्मण्यं देवि संप्राप्य रक्षितव्यं यतात्मना।। २२३.६४ ।।
योनिप्रतिग्रहादानैः कर्मभिश्च शुचिस्मिते।
एतत्ते गुह्यमाख्यातं यथा शुद्रो भवेद्‌द्विजः।।
ब्राह्मणो वा च्युतो धर्माद्यथा शुद्रत्वमाप्नुयात्।। २२३.६५ ।।
(ब्रह्मा पुराण 223:64-65)
अर्थ –  देवि! ब्राह्मणत्व को प्राप्त करके उसकी यत्नपवूक रक्षा करनी चाहिये। यह मैंने तुम्हें बड़ी गोपनीय बात बतलायी है। शूद्र धर्माचरण से ब्राह्मण होता है और ब्राह्मण धर्मभ्रष्ट होने पर शूद्रत्व को प्राप्त होता है।
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【प्राचीन टीकाकार , आचार्य , गोस्वामियों का मत】


एवञ्च सत्यादिकं यदि शूद्रेऽप्यस्ति तर्हि सोऽपि ब्राह्मण एव स्यात् शूद्रलक्ष्मकामादिकं न ब्राह्मणेऽस्ति नापि ब्राह्मणलक्ष्मशमादिकं शूद्रेऽस्ति । शूद्रोऽपि शमाद्युपेतो ब्राह्मण एव, ब्राह्मणोऽपि कामाद्युपेतः शूद्र एव ॥ 
(महाभारत - वनपर्व 180:23-26  श्लोक की नीलकण्ठ टीका)
अर्थ – इस प्रकार के सत्य आदि लक्षण यदि शूद्र में रहते हैं, तो उनकी भी निश्चय ही ब्राह्मणों में गणना होगी। कामादि शूद्रों के लक्षण ब्राह्मणों में नहीं रह सकते और शमादि ब्राह्मण-लक्षण शूद्रों में नहीं रहते । शूद्र कुलमें उत्पन्न व्यक्ति यदि शमादि गुणों द्वारा भूषित हैं तो वह निश्चय ही 'ब्राह्मण' है और ब्राह्मण कुल में उत्पन्न व्यक्ति यदि कामादि गुणों से युक्त हैं तो वह निश्चय ही 'शूद्र' है, इस विषय में तनिक भी सन्देह नहीं है ।


शमादिभिरेव - ब्राह्मणादि-व्यवहारो मुख्यः न जातिमात्रात् । यद् यद अन्यत्र वर्णान्तरेऽपि दृश्येत, तद्ववर्णान्तरं तेनैव लक्षणनिमित्तेनैव वर्णेन विनिर्द्दिशेत्, न तु जाति निमित्तेनेत्यर्थः ।।
( श्रीमद्भागवत 7:11:35 पर भावार्थ दीपिका) 
अर्थ – शम आदि गुणों के द्वारा ब्राह्मणादि वर्ण स्थिर करना प्रधान कर्त्तव्य है। साधारणतः जाति के द्वारा जो ब्राह्मणत्व निरूपित होता है, केवल यही नियम नहीं है। इसका प्रतिपादन करने के लिए "यस्य यल्लक्षणम्" श्लोक को उद्धृत करते हैं। यदि शौक़ ब्राह्मण के बिना अशौक्र - ब्राह्मण में अर्थात् जिसकी ब्राह्मण-संज्ञा नहीं है, ऐसे व्यक्ति में शमादि गुण दृष्टिगत हों तो उसको जातीय व्यक्ति न मानकर, लक्षणीय गुणों द्वारा उसका 'वर्ण निरूपण करना चाहिए। अन्यथा विरुद्ध आचरण होगा ।


आर्ज्जवं ब्राह्मणे साक्षात् शूद्रोऽनार्ज्जवलक्षणः ।
गौतमस्त्विति विज्ञाय सत्यकाममुपानयत् ॥ 
(छान्दोग्य मध्वाचार्य भाष्यधृत साम-संहिता वाक्य )
 अर्थ – ब्राह्मण में साक्षात् सरलता एवं शूद्र में कुटिलता विद्यमान होती है। हारिद्रुमत गौतम ने गुणों पर ऐसा मत प्रकट करते हुए सत्यकाम जाबाल को उपनयन अथवा सावित्र्य संस्कार प्रदान किया ।


ब्राह्मणकुमाराणां शौक्रे जन्मनि दुर्जातित्वाभावेऽपि सवनयोग्यत्वाय पुण्यविशेषमय - सावित्र - जन्मसापेक्षत्वात् । ततश्च अदीक्षितस्य श्वादस्य सवन - योग्यत्वप्रतिकूलदुर्जात्यारम्भकं प्रारब्धमपि गतमेव, किन्तु शिष्टाचाराभावात् अदीक्षितस्य श्वादस्य दीक्षां विना सावित्र्यं जन्म नास्तीति ब्राह्मणकुमाराणां सवनयोग्यत्वाभावावच्छेदकपुण्यविशेषमय -सावित्रजन्मापेक्षावदस्य अदीक्षितस्य श्वादस्य सावित्र्य - जन्मान्तरापेक्षा वर्त्तत इति भावः ॥
(दुर्गमसङ्गमनी - पूर्व-विलास 1:13 ) 
अर्थ – ब्राह्मण कुमारों का शौक्र जन्म में निम्न जातित्व का अभाव होने पर भी जिस प्रकार अग्नि यज्ञ में योग्यता प्राप्त करने के लिए पुण्यविशेषमय ब्राह्मण-जन्मकी अपेक्षा करते हैं, अर्थात् शौक ब्राह्मण कुल में जन्म होने पर भी उपनयन न होने तक द्विज को जिस प्रकार अग्नि यज्ञ में अधिकार नहीं होता, उसी प्रकार चाण्डाल कुल में उत्पन्न अदीक्षित व्यक्ति की अग्नि यज्ञ में योग्यता प्राप्ति के प्रतिकूल निम्न जाति आदिका मूल प्रारब्ध पाप दूर होने पर भी दीक्षा के बिना उसको ब्राह्मण जन्म प्राप्त नहीं होता, इसलिए अदीक्षित व्यक्ति का ब्राह्मण संस्कार ग्रहण करना शिष्टाचार के विरुद्ध है। ब्राह्मण कुल में उत्पन्न व्यक्ति को जिस प्रकार यज्ञ की योग्यता के लिए विशेष पुण्यमय ब्राह्मण जन्म की अपेक्षा रहती है। उसी प्रकार चाण्डाल कुल में उत्पन्न अदीक्षित व्यक्ति का  ब्राह्मणत्व अथवा यज्ञ की योग्यता पा लेने पर भी सावित्र्य - जन्मकी अपेक्षा है अतः सभी के लिए सावित्री दीक्षा अति आवश्यक है ।

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【 नवीनतम उदाहरण 】

बहुत से ऐसे महान पुरुष हुवे है जो आज भी हमारे बीच लोकप्रिय है जिन्होने अपने ज्ञान कर्म से  ब्रह्मतत्व को प्राप्त किया  जैसे -

1- स्वामी विवेकानंद का जन्म एक कायस्थ परिवार में हुआ लेकिन उन्होंने अपने गुरु से दीक्षा लेकर ब्राह्मणत्व की प्राप्ति की , 

2- स्वामी रामदेव जी ने एक यादव परिवार में जन्म लेकर ब्राह्मणत्व की प्राप्ति की , 

3- दलित परिवार में पैदा हुए ‌जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर कन्हैया प्रभु जिन्होंने जगद्गुरु पंचानंद गिरी से दीक्षा लिया कन्हैया प्रभुनंद गिरी नया नाम मिला और सन्यासी बन गए और उन्होंने ब्राह्मणत्व की प्राप्ति की ,

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आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में समान गोत्र मिलते हैं । इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं । लेकिन कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए ।
अत: अपनी श्रेष्टता साबित करने के लिए कुल का नाम आगे धरना मनु के अनुसार अत्यंत मूर्खतापूर्ण कृत्य है । अपने कुल का नाम आगे रखने की बजाए व्यक्ति यह दिखा दे कि वह कितना शिक्षित है तो बेहतर होगा ।

 🌺 जय सनातन धर्म 🌺


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