धर्म क्या है ?

धर्म वह है जो मनुष्य को आदर्श जीवन जीने की कला और मार्ग बताता है।  पूजा-पाठ या कर्मकांड ही धर्म नहीं है।धर्म और मज़हब में बहुत अंतर है जो आपको इस लेख से समझ आ जायेगा -



 धर्म का अर्थ क्या है

महाभारत में  श्रीकृष्ण धर्म–अधर्म का विवेचन करते हुए कहते हैं कि-

धारणाद्धर्ममित्याहुर्धर्मेण विधृताः प्रजाः।
यः स्याद्धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चः।। 

(महाभारत -शान्ति पर्व  109 :14)

अर्थ - धर्म शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से बना है, जिसका तात्पर्य है धारण करना । धारण करने योग्य आचरण धर्म है। यह निश्चय किया गया है कि जिससे (सब प्रजा का) धारण और पोषण सिद्ध होता है वही धर्म है।

सनातन धर्म के मूल

एष धर्मो महायोगो दानं भूतदया तथा।
ब्रह्मचर्य तथा सत्यमनुक्रोशो धृति: क्षमा।
सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत् सनातनम्॥
[महा.आश्वमेधिक पर्व 11.82]
दान देना, प्राणियों पर दया करना, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन, सत्य भाषण, करुणा, धैर्य, क्षमा-शीलता, यही धर्म है, यही महान् योग है। ये सनातन धर्म के सनातन मूल है।

सरल भाषा में धर्म का भावार्थ

वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद है। ये दर्शन परिमण्डल, पंच महाभूत और भूतों से बने सब पदार्थों का वर्णन करता है, इसलिए वैशेषिक दर्शन विज्ञान-मूलक है किन्तु इसमें महर्षि  कणाद धर्म के विषय पर बोलते है -

अथातो धर्म व्याख्यास्याम:॥ 
यतोSभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म:॥ 
(वैशेषिक दर्शन शास्त्र अध्याय-1,आह्निक-1 सूत्र-1,2)

अर्थ - जिससे लौकिक और परलौकिक सुख की सिध्दि होती है, वह धर्म है।


संस्कृत में धर्म शब्द का भावार्थ हमारे उत्तम कर्मों से होता है इसलिए जो अच्छे कर्मो के लक्षण होते है उन्हें धार्मिक लक्षण कहा गया है और जिस सभ्यता में उन लक्षणों को मनुष्य के उत्पत्ति के साथ ही उसके लिए निर्धारित किया गया है वो सनातन धर्म के लक्षण है और जो इन कर्मो को करता है वो मनुष्य सनातन धर्म का अनुयायी कहलाता है।



धर्म के दस लक्षण 

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। 
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥[मनुस्मृति 6.92]
अर्थ - संतोष, क्षमा, संयम-मन को दबाना, अस्तेय-अन्याय से किसी की वस्तु को न लेना, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियों का निग्रह, धी याबुद्धि, विद्या, सत्य, क्रोध न करना; ये धर्म के दस लक्षण हैं।

1-धृति-धैर्य :- धन संपत्ति, यश एवं वैभव आदि का नाश होने पर धीरज बनाए रखना तथा कोई कष्ट, कठिनाई या रूकावट आने पर निराश न होना।

2-क्षमा :- दूसरो के दुर्व्यवहार और अपराध को लेना तथा आक्रोश न करते हुए बदले की भावना न रखना ही क्षमा है।

3-दम :- मन की स्वच्छंदता को रोकना। बुराइयों के वातावरण में तथा कुसंगति में भी अपने आप को पवित्र बनाए रखना एवं मन को मनमानी करने से रोकना ही दम है।

4-अस्तेय, अपरिग्रह :- किसी अन्य की वस्तु या अमानत को पाने की चाह न रखना। अन्याय से किसी के धन, संपत्ति और अधिकार का हरण न करना ही अस्तेय है।

5-पवित्रता (शौच) :- शरीर को बाहर और भीतर से पूर्णत: पवित्र रखना, आहार और विहार में पूरी शुद्धता एवं पवित्रता का ध्यान रखना।

6-इन्द्रिय निग्रह :- पांचों इंद्रियों को सांसारिक विषय वासनाओं एवं सुख-भोगों में डूबने, प्रवृत्त होने या आसक्त होने से रोकना ही इंद्रिय निगह है।

7-धी :- भलीभांति समझना। शास्त्रों के गूढ़-गंभीर अर्थ को समझना आत्मनिष्ठ बुद्धि को प्राप्त करना। प्रतिपक्ष के संशय को दूर करना।

8-विद्या :- आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान, जीवन के रहस्य और उद्देश्य को समझना। जीवन जीने की सच्ची कला ही विद्या है।

9-सत्य :- मन, कर्म, वचन से पूर्णत: सत्य का आचरण करना। अवास्तविक, परिवर्तित एवं बदले हुए रूप में किसी, बात, घटना या प्रसंग का वर्णन करना या बोलना ही सत्याचरण है।

10-अक्रोध :- दुर्व्यवहार एवं दुराचार के लिए किसी को माफ करने पर भी यदि उसका व्यवहार न बदले तब भी क्रोध न करना। अपनी इच्छा और योजना में बाधा पहुँचाने वाले पर भी क्रोध न करना। हर स्थिति में क्रोध का शमन करने का हर सम्भव प्रयास करना।



जो धर्म और अधर्म के बीच का अंतर नहीं जानता उसपे गीता में कहा है-

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च। 
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी॥[ गीता 18.31]
अर्थ - हे पार्थ! जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ-ठीक तरह से नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है।

भगवान ने गीता के अध्याय 18 श्लोक 30 में सात्विक बुद्धि वाले मनुष्यों के बारे में कहां है कि जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को, बंधन और मोक्ष को, प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग को यथार्थ जानता है वह सात्विक है। जबकि राजसी बुद्धि वाला मनुष्य कर्तव्य और अकर्तव्य का, धर्म और अधर्म का ठीक से भेद नहीं कर पाता अर्थात उसको यथार्थ रूप से नहीं जान पाता,  या उनके विषय में उचित निर्णय नहीं ले पाता।

धर्म ही मनुष्य जीवन का सार है


धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात् प्रभवते सुखम्। 
धर्मेण लभते सर्व धर्मसारमिदं जगत्॥ [वाल्मीकि रामायण 3. 9. 30]
अर्थ - धर्म से अर्थ प्राप्त होता है और धर्म से ही सुख मिलता है और धर्म से ही मनुष्य सर्वस्व प्राप्त कर लेता है। इस संसार में धर्म ही सार है। 

वाल्मीकि रामायण में माता सीता के माध्यम से पुत्री धर्म, पत्नी धर्म और माता धर्म मुखरित हुआ है। अतः सीता भारतीय नारी का आदर्श स्वरुप है।


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1 टिप्पणियाँ



  1. एष धर्मो महायोगो दानं भूतदया तथा।
    ब्रह्मचर्य तथा सत्यमनुक्रोशो धृति: क्षमा।
    सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत् सनातनम्॥
    (महाभारत आश्वमेधिक पर्व 11:31)
    अर्थात - दान देना, प्राणियों पर दया करना, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन, सत्य भाषण, करुणा, धैर्य, क्षमा-शीलता, यही धर्म है, यही महान् योग है। ये सनातन धर्म के सनातन मूल है।

    ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्रा ये चाश्रितास्तपे।
    दानधर्माग्निना शुद्धास्ते स्वर्गं यान्ति भारत!।।
    ( महाभारत-आश्वमेधिक 11:34)
    अर्थात - जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,शूद्र तप,दान,धर्म और अग्निहोत्र करते हैं, वे शुद्ध होकर स्वर्ग को प्राप्त करते हैं।

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