वर्णपतन


 

【 महर्षि मनु के अनुसार 】


योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् । 

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥ 

(मनुस्मृति 2:168)

अर्थात्- जो ब्राहमण, क्षत्रिय या वैश्य वेदादिशास्त्रों का पठन-पाठन छोड़  अन्य विद्याओं में ही परिश्रम करता रहता है वह शूद्रता को प्राप्त हो जाता है।

  

 न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्।    

 स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥ 

(मनुस्मृति 2:103)     

अर्थ-जो द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य प्रातःकालीन संध्या नहीं करता और जो सायंकालीन संध्या भी नहीं करता। वह शूद्र के समान है, उसको द्विजों के सभी अधिकारों या कर्त्तव्यों से बहिष्कृत कर देना चाहिए अर्थात् उसे ‘शूद्र’ घोषित कर देना चाहिए।


 यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।          

नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः॥ 

(मनुस्मृति 2:126)     

अर्थ-‘जो द्विज अभिवादन  के उत्तर में अभिवादन करना नहीं जानता अर्थात् अभिवादन का विधिवत् उत्तर नहीं देता, बुद्धिमान् को उसे अभिवादन नहीं करना चाहिए, क्योंकि जैसा शूद्र होता है वह वैसा ही है। अर्थात् उसको शूद्र समझना चाहिए, चाहे वह किसी भी वर्ण का हो।’ इससे यह भी संकेत मिलता है कि शिक्षितों की परपरा को न जानने वाला अशिक्षित व्यक्ति शूद्र होता है। निष्कर्ष यह है कि शूद्रत्व मुयतः अशिक्षा पर आधारित होता है। 


_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳


【 महाभारत के अनुसार 】


जब कोई वेदाध्ययन से ब्राह्मण बनता है लेकिन बाद में अपने निर्धारित कर्म को त्याग देता है तो उसका वर्ण परिवर्तन हो जाता है-


'हिन्सानृतप्रिया: लुब्धा: सर्वकर्मोपजीबिन:।

कृष्णा: शौचपरिभ्रष्टास्ते द्विजा: शुद्रतां गता:॥

(महाभारत शांतिपर्व 188 : 3)

अर्थ-जो शौच ( शरीर और मन शुद्ध रखना ) और सदाचार से भ्रष्ट होकर हिंसा और अस॒त्य के प्रेमी हो गये। लोभवश  सभी तरह के निम्न कर्म करके जीविका चलाने लगे और इसलिए जिनके शरीर का रंग काला पड़ गया, वे ब्राह्मण, शूद्रत्व को प्राप्त हो गये।


इत्यतै: कर्मभिर्व्यस्ता द्विजा वर्णान्तरं गता:।

धर्मों यज्ञ क्रिया तेषां नित्य न प्रतिषिध्यते॥

(महाभारत शांतिपर्व 188 : 4)

अर्थ-इन्हीं कर्मों के कारण ब्राह्मणत्व से अलग होकर  ब्राह्मण दूसरे-दूसरे वर्ण के हो गये। किन्तु किसी भी वर्ण के लिए नित्य धर्मानुष्ठान और यज्ञ कर्म का भी निषेध नहीं किया गया है।


शुद्रो राजन, भवति बह्मवन्धु दुश्वारित्रों यश्व घमोदपेतः।

वृषलीपतिः पिशुनो नतंनश्व सजप्रेष्यो यश्व भवेद्‌ विकर्मा॥ ४ ॥

( महाभारत शांति पर्व 63 : 4 )

अर्थ- राजन ! जो ब्राह्मण दुश्चरित्र, धर्महीन ,कुलटा स्त्री से सम्बन्ध रखनेवाला , चुगलखोर, नाचनेवाला, राजसेवक तथा दूसरे-दूसरे विपरीत कर्म करनेवाला होता है वह ब्राह्मणत्व से गिरकर शूद्र हो जाता है ॥ 


जपन वेदानजपंश्वापि राजन समः शूद्रैदोसवच्चापि भोज्यः |

सर्वे शूद्रसमा भवन्ति राजन्नेतान्‌ ब्जयेद्‌ देवकृत्ये ॥ ५ ॥

( महाभारत शांति पर्व 63 :5 )

अर्थ- उपयुक्त दुर्गुणों से युक्त ब्राह्मण वेदो का स्वाध्याय करता हो या न करता हो शूद्रों के ही समान है। उसे दास की भाँति पंक्ति से बाहर भोजन कराना चाहिये। ये राज-सेवक आदि सभी अभम ब्राह्मण शूद्रों के ही तुल्य हैं। राजन ! देवकार्य में इनका परित्याग कर देना चाहिये ॥ ५ ॥



_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳

【 वशिष्ठ धर्मसूत्र के अनुसार 】

अश्रोत्रिया अननुवाक्या अनग्नयो वा शूद्रसधर्माणो भवन्ति

(वशिष्ठ धर्मसूत्र 3:1)

अर्थ - जो ब्राह्मण न तो वेद का अध्ययन करते हैं, न ही पढ़ाते हैं और न ही यज्ञ करते हैं, वे शूद्र के समान हो जाते हैं .

 

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः 

(वशिष्ठ धर्मसूत्र 3:2 )

अर्थ- कोई तथाकथित द्विज व्यक्ति, जिसने वेद का अध्ययन नहीं किया है,  जल्द ही इसी जन्म में जीवित रहते हुए , एक  शूद्र की स्थिति में गिर जाता है और उसके आगे आने वाले वंशज भी शूद्र होंगे अगर वह भी वेदाध्ययन नहीं करते तो .


नानृग्ब्राह्मणो भवति न वणिङ्न कुशीलवः

न शूद्रप्रेषणं कुर्वन् न स्तेनो न चिकित्सकः 

(वशिष्ठ धर्मसूत्र 3:3)

अर्थ- एक द्विज व्यक्ति जो  वेदों को नहीं जानता वह ब्राह्मण नहीं हो सकता है, न ही वह  व्यापार कर सकता है, न ही वह किसी शूद्र को आदेश दे सकता है ना ही चिकित्सक हो सकता है ,

_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳

【 आचार्य चाणक्य के अनुसार 】


 गुण कर्म की प्रधानता-


कि कुलेन विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम्‌ ।

दुष्कुलं चापि विदुषो देवैरपि स पूज्यते ॥ ।।१८।।

(चाणक्य नीति 8 :18)

अर्थ-विद्याहीन होने पर विशाल कुल का क्या लाभ है? विद्वान नीच कुल का भी हो, तब भी देवताओं द्वारा पूजा जाता है ।  


 गुणैरुत्तमतां याति नोच्चैरासनसंस्थिताः |

प्रासादशिखरस्थो5पि काकः कि गरुडायते ॥ ॥६॥

(चाणक्य नीति 17 : 6)

अर्थ- व्यक्ति को महत्ता उसके गुण प्रदान करते है वह नहीं जिन पदों पर वह काम करता है। क्‍या एक ऊँचे भवन पर बैठा कौवे को गरुड़ कहा जा सकता है।  


ब्राह्मण के विषय में कहा-


एकाहारेण संतुष्ट: घट्कर्मनिरतः सदा ।

ऋतुकालाभिगामी च स विप्रो द्विज उच्यते ॥ ।।१२॥।

(चाणक्य नीति 11:12)

अर्थ- वही सही में ब्राह्मण है जो केवल एक बार के भोजन से संतुष्ट रहे, जिसके पर 16 संस्कार किये गए हो, जो अपनी पत्नी के साथ महीने में केवल उचित दिन ही समागम करे। ।।१३।।


लौकिके कर्मणि रतः पशूनां परिपालक: |

वाणिज्यकृषिकर्मा यः स विप्रो वैश्य उच्यते ॥ ।।१३।।

(चाणक्य नीति 11:13)

अर्थ-वह ब्राह्मण जो दुकानदारी में लगा है, सांसारिक विषयों में फंसा है, व्यापार, कृषि या गौपालन करता है, असल में वैश्य ही है।  


लाक्षादितैलनीलीनां कौसुम्भमधुसर्पिषाम्‌ ।

विक्रेता मद्यमांसानां स विप्र: शूद्र उच्पते ॥ ।।१४।।

(चाणक्य नीति 11:14)

अर्थ- जो लाख, तेल, नील, रेशम, शहद, चमड़ा, मदिरा अथवा मांस का व्यापार करता है, वह ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। 


परकार्यविहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधक: ।

छली द्वेषी मृदुः क्रूरो विप्रो मार्जार उच्यते ॥ ।।१५।।

(चाणक्य नीति 11:15)

अर्थ- दूसरों का बिगाड़ने वाला , दम्भी, स्वार्थी, धोखेबाज, द्वेष रखने वाला, बोलते समय मुंह में मिठास और हृदय में रखने वाला ब्राह्मण वह एक पशु के समान है।

  

_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳


【 अत्रि स्मृति के अनुसार 】


अस्त्राहताश्च धन्वानः संग्रामे सर्वसंमुखे ॥

आरंभे निर्जिता येन स विप्र: क्षत्र उच्पते॥३७४॥

अर्थ- जिसने रणभूमि में सबके सन्मुख धान्वीयों को युद्धके आरंभ में जीता हो और अस्त्रों से परास्त किया हो उस ब्राह्मण को "क्षत्रिय" कहते हैं ।  


कृषिकर्मरतो यश्व गवां च प्रतिपालक: ॥

वाणिज्यव्यवसायश्च स विप्रो वैश्य उच्पते ॥३७५॥

अर्थ- खेती के कार्य में रत और गौ की पालना में लीन, और वाणिज्य के व्यवहार में जो ब्राह्मण तत्पर हो उसको 'वैश्य' कहते हैं ।  


लाक्षालवणसंमिश्र कुसुंभ॑ क्षीरसर्पिष: ॥

विक्रेता मधुमां सानां स विप्र: शूद्र उच्पते ॥३७६॥

अर्थ- लाख, लवण, कुसुंभ, घी, मिठाई, दूध, और मांस को जो ब्राह्मण बेचता है उसको 'शूद्र' कहते हैँ ।  


चोरश्न तस्करश्चैव सूचको दंशकस्त था ॥

मस्यमांसे सदा-लुब्धो विप्रो निषाद उच्यते ॥३७७॥

अर्थ- चोर, तस्कर, सुचक - निकृष्ट सलाह देनेवाला, दंशक- कडवा बोलने वाला और सर्वदा मल्य मांस के लोभी ब्राह्मण को "निषाद" कहते हैं ।  


ब्रह्मतत्व न जानाति ब्रह्मसूत्रेण गर्वितः ॥

तेनैव स च पापेन विप्र: पशुरुदाह्त:॥३७८॥

अर्थ- जो ब्रह्म वेद और परमात्मा के तत्व को कुछ नहीं जानता और केवल यज्ञोपवीत के बल से ही अत्यन्त गर्व प्रकाश करता है, इस पाप से वह ब्राह्मण 'पशु' समान है ।  

 

वापीकूपतडागानामारामस्य सरःसु च ॥

निश्शंक॑ रोधकश्चैव स विप्रो म्लेच्छ उच्पते ॥३७९॥

अर्थ- जो निःशंक भाव से बावडी, कूप, तालाब, बाग, छोटा तालाव इनको बन्द करता है इस ब्राह्मण को 'म्लेच्छ कहा जाये ।  


क्रियाहीनश्च मूर्खश्च सर्वधर्मविवर्जितः ॥

निर्दयः सर्व भूतेषु विप्रचंडाल उच्यते ॥३८०॥

अर्थ- क्रियाहीन, मूर्ख, सभी धर्मों से रहित और सर्व प्राणियों के प्रति जो निर्दयता प्रकाश करता है वह  ब्राह्मण 'चांडाल'  हैं ।  


_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳


【  पुराण के अनुसार 】


तत्वदर्शन सम्पन्नः समिधशिस्तितः ।

सत्यब्रह्मविदः शान्तः सर्वशास्त्रेषु निष्ठितः ।।

(भविष्य पुराण : ब्राह्मपर्व - 33 श्लोक 2,6)

अर्थ- जो तत्वदर्शी समाधि संपन्न हो और जो ब्रह्म का ज्ञाता हो और सभी शास्त्रों में निष्ठा रखता हो वह ब्राह्मण है ।


यद्येका स्फुटमेव जातिरपरा कृत्यात्परं भेदिनी।

 यद्वा व्याहृतिरिकतामधिगता यच्चान्यधर्म ययो ।॥

(भविष्य पुराण : ब्रह्मपर्व - 44 श्लोक 33)

अर्थ- मानव जाति एक ही है किन्तु वर्णो का निर्माण भिन्न भिन्न कर्मो द्वारा किये गया है इसलिए व्यवहार में यह मानव जाति एक है केवल कर्मों में भिन्नता है


यत्र वा तत्र वा वर्ण उत्तमाधममध्यमाः ।

 निवृत्तः पापकर्मेम्यों ब्राह्मण: स विधीयते || 

शूद्रीषपि शीलसम्पन्नह ब्राह्मणादधिको भवेत्‌ ।

 ब्राह्मण विगताचार: शृद्राद्धीनतरों भवेत्‌|| 

(भविष्य पुराण : ब्रह्मपर्व -44 श्लोक 30-31)

अर्थ- तदनुसार जिस किसी वर्ण में उत्तम, मध्यम या अधम कोई भी मनुष्य पाप कर्म न करे वह ब्राह्मण है। क्योंकि अच्छे शीलवाला शुद्र ब्राह्मण से उत्तम बताया गया है और आचार भ्रष्ट ब्राह्मण शुद्र  से भी हीन कहा गया है ।


अभक्षि मांसं चापायि सुरा चाभाषि दुर्वचः ॥ ४१६ ॥

परयोषा तथा गामि परस्वं प्रत्यहारि च ।

अक्रीडि द्यूतमसकृत्कलंजं चादि दुर्भुजा ॥ ४१७ ॥

नापूजि जगतामीशः शिवो वा विष्णुरेव वा ।

एवं कालेन दुर्वृत्तं राजा वाक्यमभाषत ॥ ४१८ ॥

विप्र विप्रत्वमुत्सृज्य शूद्रत्वं प्राप्तवानसि ।

तस्मान्नियोगधर्मेण भवंतं भ्रंशयामि च ॥ ४१९ ॥

(पद्म पुराण 5:114)

भावार्थ - वह ब्राह्मण मांस खाता था, शराब पीता था कटुवचन बोलता था, परस्त्री गमन करता था, दूसरे का धन हरण करता था, जूवा खेलता था, श्रमक्ष्य कलंजादि खाता था, तब राजा ने इस दुर्वृन्त के कारण उसे ब्राह्मण से पतित करके शूद्र बना दिया।


【 उदाहरण 】


1- मर्यादापुरुषोत्तम राम के पूर्वज सम्राट् रघु का ‘प्रवृद्ध’ नामक एक पुत्र था। नीच कर्मों के कारण उसे ‘राक्षस’ घोषित किया गया था और इस प्रकार वह वर्णों से पतित हो गया था।


2- राम के ही पूर्वज सगर का एक पुत्र ‘असमंजस्’ था। उसके अन्यायपूर्ण कर्मों के कारण उसे क्षत्रिय से शूद्र घोषित करके राज्याधिकार से वंचित कर राज्य से बहिष्कृत कर दिया था।

 (भागवतपुराण 6.8.14-19)


 3- लंका का राजा रावण पुलस्त्य ऋषि के वंश में उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मणोपेत क्षत्रिय था। अन्यायी और दुराचारी होने के कारण उसे ‘राक्षस’ घोषित किया गया। 

(वाल्मीकि-रामायण - बाल एवं उत्तरकांड)


 (घ) सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी क्षत्रियों के मूल पुरुष सातवें मनु वैवस्वत, जो एक चक्रवर्ती राजा थे, उनके पुत्र पृषध्र से किसी कारण गोवध हो गया। वैदिक काल में गोवध महापाप माना जाता था। इस पाप के दण्डस्वरूप उसको शूद्र घोषित कर दिया गया था।

(विष्णु पुराण 4.1.17)








एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ