【 जन्म से सभी शूद्र तथा द्विज बनना 】
🍁स्मृति के अनुसार -
मातुरग्रेSधिजननं द्वितीय मौञ्जिबन्धने।
(मनुस्मृति 2 :169)
अर्थात-‘प्रथम जन्म माता से, दूसरा यज्ञोपवीत के समय होता है।
शूद्रेण हि समस्तावद् यावत् वेदे न जायते।
(मनुस्मृति 2:172)
अर्थात-‘जब तक कोई वेदाध्ययन नहीं करता तब तक वह शूद्र के समान है, चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो।’
एक अन्य स्मृति में भी मनुस्मृति की बात को दोहराया है -
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः
तेषां जन्म द्वितीयस्तु विज्ञेयं मौञ्जिबन्धनम् ।६
प्राचार्यस्तु पिता प्रोक्तः सावित्री जननी तथा
ब्रह्मक्षत्रविशाञ्चैव मौञ्जिबन्धनजन्मनि ।७
वृत्त्या शूद्रसमास्तावद्विज्ञेयास्ते विचक्षणै:
यावद्वेदेन जायन्ते द्विजा ज्ञेयास्ततः परम् ।८
(शंख स्मृति 1:6-8)
अर्थात -ब्राम्हण,क्षत्रिय और वैश्य द्विज कहे गये हैं |उपनयन के बाद दूसरा जन्म बताया गया है| उपनयन से होने वाले जन्म में आचार्य पिता तथा सावित्री (गायत्री) माता कही गयी है | बुद्धिमानों के द्वारा सभी जन्म से शूद्र के समान ही समझे जाते हैं ,परन्तु जब वेदाध्ययन से उनका दूसरा जन्म हो जाता है ,तो उन्हे द्विज जानना चाहिए |
🍁धर्मसूत्रों के अनुसार -
चत्वारो वर्णा ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः ।१
त्रयो वर्णा द्विजातयो ब्राह्मणक्ञत्रियवैश्या: ।२
तेषाम् मातुरग्रे विजनन द्वितीयं मौज्लिबन्धने
अत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते ।३
वेदप्रदानात्पितेत्याचार्यमाचत्ञते ।४
( वशिष्ठ धर्मसूत्र 2 : 1-4 )
अर्थात- ‘चार वर्ण , ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। तीन वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विज कहा जाता है। उनका पहला जन्म उनकी मां से होता है ; गुरु से यगोपवीत धारण करके उनका दूसरा जन्म होता है इस ब्रह्मजनम (दूसरा जन्म) में सावित्री उनकी माता तथा गुरु पिता कहा गया है। शिक्षक को पिता कहते हैं, क्योंकि वे वेद की शिक्षा देते हैं।
न ह्यस्मिन्विद्यते कर्म किंचिदा मौज्ञिबन्धनात्
वृत्त्या शूद्रसमो ह्येष यावद्वेदे न जायत इति ।६
( वशिष्ठ धर्मसूत्र 2 : 6 )
अर्थात-‘' सभी वेदाध्यन से नए जन्म (ब्रह्मजन्म) से पहले एक शूद्र के स्तर पर है। जब तक कोई संतान गुरु से यगोपवीत धारण न कर ले वह वैदिक अनुष्ठान करने योग्य नहीं होता क्यूंकि वेदाध्ययन से पूर्व सभी जन्मतः शुद्र होते है .
इसके अतिरिक्त बौधायन धर्मसूत्र में भी इसी बात को दोहराया गया है-
नास्य कर्म नयच्छिन्त किंचिदा मौज्ञिबन्धनात्
वृत्त्या शूद्रसमो ह्येष यावद्वेदे न जायत इति ।
(बोधायन धर्मसूत्र 1:3: 6)
*दूसरा जन्म ‘‘ब्रह्मजन्म’’= ‘विद्याध्ययन जन्म’ कहाता है। पहला जन्म उनका माता-पिता से हुआ, दूसरा विद्याध्ययन से, अतः वे ‘द्विज’ और ‘द्विजाति’ कहे गये।
🍁महाभारत के अनुसार-
तावच्छूद्रसमो ह्येष यावद् वेदे न जायते।
तस्मिन्नेवं मतिद्वैधे मनु: स्वायम्भुवोब्रवीत्॥
(महाभारत वनपर्व 180 : 35)
अर्थात - जब तक बच्चे का संस्कार करके उसे वेद का स्वाध्याय न कराया जाय, तब तक वह शुद्र होता है। यह नियम स्वयंभू मनु द्वारा ही बनाया गया है।
सत्यम दमस्तपो दानमहिंसा धर्मनित्यता।
साधकानि सदा पुंसा जातिर्न कुलं नृप॥
(महाभारत वनपर्व 181 : 43)
अर्थात - "हे राजा! सत्य, आत्म-संयम, अनुशासन, दान, अहिंसा और धार्मिकता - ये ऐसी चीजें हैं जो मनुष्य को समाज में उच्च सम्मान दिलाती हैं, न कि जाति या कुल।"
जब भी किसी का जन्म होता है तो वो गुणहीन और अशिक्षित होता है इसलिए हर एक मनुष्य जन्म से शुद्र ही होता है ।
🍁शुक्राचार्य वर्णव्यवस्था के कर्माधारित व्यवस्था का समर्थन करते हुवे कहते है -
न जात्या ब्राह्मणश्चात्र क्षत्रियो वैश्य एव न ।
न शुद्रो न च वै म्लेच्छो भेदिता गुणकर्मभि: ॥ ३८ ॥
(शुक्रनीति -1:38)
अर्थात - इस संसार में जाति विशेष के कारण कोई भी ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शुद्र और म्लेच्छ नहीं होता बल्कि गुण और कर्म के भेद से होते है।
ब्रह्मणस्तु समुत्पना: सर्वे ते किं नु ब्राह्मणा ।
न वर्णतो न जनकाद् ब्राह्मतेज: प्रपध्यते ॥ ३९ ॥
(शुक्रनीति -1:39)
अर्थात - संपूर्ण जीव ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण अब ब्राह्मण होते है क्या ? नहीं क्युकी ब्राह्मण पिता से ब्रह्मतेज की प्राप्ति नहीं हो सकती अर्थात ब्राह्मण के घर जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता ।
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【 वेदाध्यन के बाद वर्ण धारण की क्रिया 】
🍁वेदों के अनुसार -
त्वꣳ ह्या३ङ्ग दैव्य पवमान जनिमानि द्युमत्तमः ।
अमृतत्वाय घोषयन् ॥९३८॥
(सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 938 )
पदार्थान्वयभाषाः -
हे (अङ्ग) भद्र, (दैव्य) विद्वान् गुरु के शिष्य, (पवमान) चित्तशुद्धिप्रदाता आचार्य ! (द्युमत्तमः) अतिशय ज्ञानप्रकाश से युक्त (त्वं हि) आप (अमृतत्वाय) सुख के प्रदानार्थ (जनिमानि) शिष्यों के ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य रूप द्वितीय जन्मों की (घोषयन्) घोषणा किया करो ॥१॥
भावार्थभाषाः -
माता-पिता से एक जन्म मिलता है, दूसरा जन्म (ब्रह्मजन्म) आचार्य से प्राप्त होता है। जब शिष्य विद्याव्रतस्नातक होते हैं उस समय आचार्य गुणकर्मानुसार यह ब्राह्मण है, यह क्षत्रिय है, यह वैश्य है इस प्रकार स्नातकों को वर्ण देते हैं। उस काल में प्रथम जन्म का कोई ब्राह्मण भी गुण कर्म की कसौटी से क्षत्रिय या वैश्य बन सकता है,क्षत्रिय भी ब्राह्मण या वैश्य बन सकता है और वैश्य या शूद्र भी ब्राह्मण या क्षत्रिय बन सकता है ॥१॥
🍁मनुस्मृति के अनुसार -
आचार्यस्त्वस्य यां जातिं विधिवद् वेदपारगः।
उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या सा जराऽमरा॥
(मनुस्मृति 2:148)
अर्थ-‘वेदों में पारंगत आचार्य सावित्री=गायत्री मन्त्रपूर्वक उपनयन संस्कार करके, विधिवत् पूरी वैदिक शिक्षण देकर जो बालक के वर्ण का निर्धारण करता है, वही वर्ण उसका वास्तविक वर्ण है ।
इस प्रकार बालक-बालिका का वर्णनिधारण होता था।
🍁ज्यादा से ज्यादा लोगो को शिक्षा मिल सके और अधिक लोग द्विज बन सके वैदिक युग आने पर वर्ण व्यवस्था में कुछ नए और लाभकारी विधान जोड़े गए थे इसके लिए उपनयन कराने का अधिकार सभी द्विज वर्णों को दिया गया था -
‘‘ब्राह्मणस्त्रयाणां वर्णानामुपनयनं कर्त्तुमर्हति, राजन्यो द्वयस्य, वैश्यस्य, शूद्रमपि कुल-गुण-सपन्नं मन्त्रवर्जमुपनीतमध्यापये-दित्येके।’’
(सुश्रुत संहिता - सूत्रस्थान : 2)
अर्थात -‘ब्राह्मण अपने सहित तीन ( क्षत्रिय , वैश्य , शुद्र ) वर्णों का, क्षत्रिय अपने सहित दो (वैश्य , शुद्र ) का, वैश्य अपने सहित एक वर्ण (शुद्र ) का उपनयन करा सकता है। यह (यगोपवीत ) संस्कार यज्ञपूर्वक ही होता है।
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【वर्णवरण पश्चात चारो वर्णो के कर्मो】
🍁ब्राह्मण वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्तव्य –
तैत्तिरीय संहिता का वचन है कि "ब्राह्मणो व्रतभृत् ।"1:6:7:2 अर्थात् ब्राह्मण वह है जो व्रत कर्मों का अधिष्ठाता है ।
*ब्रह्मन्* प्रातिपदिक से "तदधीते तद्वेद"(अष्टाध्यायी 4:2:59) अर्थ में "अण्" प्रत्यय के योग से "ब्राह्मण " शब्द बनता है। इसकी व्युत्पत्ति है- "ब्रह्मणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन च सह वर्तमानो विद्यादि उत्तमगुणः युक्त पुरुषः " अर्थात् वेद और परमात्मा के अध्ययन और उपासना में तल्लीन रहते हुये विद्यादि उत्तमगुणों को धारण करने से व्यक्ति ब्राह्मण कहलाता है। अतः यह स्पष्ट है कि ब्राह्मण होना जाति से नहीं अपितु गुण कर्म से निर्धारित होता है।
ब्राह्मण ग्रंथों के वचनों में भी वर्णों के कर्मों का वर्णन पाया जाता है। निम्न वचनों में ब्राह्मण के कर्म उद्दिष्ट हैं। -
1. आग्नेयो ब्राह्मणः।(तांड्य ब्राह्मण 15.4.8)
आग्नेयो हि ब्राह्मणः। (काठक ब्राह्मण 29:10)
अर्थात् - यज्ञाग्नि(पवित्र कर्म) से संबंध रखने वाला अर्थात् यज्ञकर्ता ब्राह्मण होता है ।
2. ब्राह्मणो व्रतभृत्। ( तैतरीय संहिता 1:6:7:2)
व्रतस्य रूपं यत् सत्यम्। (शतपथ ब्राह्मण12:8:2:4)
अर्थात् - ब्राह्मण श्रेष्ठ व्रतों कर्मों को धारण करने वाला होता हैं। सत्य बोलना व्रत का एक रूप है।
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजन तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥
(मनुस्मृति 1: 88)
अर्थात -ब्राह्मण वर्ण में दीक्षा लेने के इच्छुक स्त्री-पुरुषों के लिए ये कर्तव्य और आजीविका के कर्म निर्धारित किये हैं-‘विधिवत् पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और कराना तथा दान प्राप्त करना और सुपात्रों को दान देना।’
इन कर्मों के बिना कोई ब्राह्मण-ब्राह्मणी नहीं हो सकता।
🍁क्षत्रिय वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्रियों-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-
क्षणु(हिंसा अर्थ वाली {तनादि } धातु से 'क्त: ' प्रत्यय के योग से क्षत: शब्द सिद्ध होता है और इसके उपपद 'क्षत' में त्रैङ् (पालन करने के अर्थ में) भ्वादि धातु से 'अन्येष्वपि दृश्यते ' (अष्टाध्याई 3:2:101) सूत्र से 'ड:' प्रत्यय, पूर्वपदान्त्यकारलोप होकर 'क्षत्र' और 'क्षत्र एव क्षत्रिय: ' स्वार्थ में 'इय:' होने से 'क्षत्रिय: या क्षत्रस्य अपत्यम् वा , क्षत्राद् घ: ' (अष्टाध्याई 4:1:1:138:) सूत्र से घ: प्रत्यय होकर क्षत्रिय बना।
क्षदति रक्षति जनान् क्षत्र:। क्षण्यते हिंस्यते नस्यते पदार्थो येन स 'क्षत: ', ततस्त्रायते रक्षतीति क्षत्र:।
अर्थात् - जो लोगों का पालन और रक्षा करे, क्षत(जो क्षीण हो गया हो, हिंसात्मक घटना हो या नष्ट किया गया हो वो पदार्थ) की रक्षा या त्राण करने वाला क्षत्रिय कहा जाता है।
क्षत्रस्य वा एतद्रूपं यद् राजन्य:।(शतपथ- 13:1:5:3)
अर्थात - क्षत्रिय जो राजा की भांति पालन रक्षण करे।
प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः॥
(मनुस्मृति 1:89)
अर्थात - विधिवत् पढ़ना, यज्ञ करना, प्रजाओं का पालन-पोषण और रक्षा करना, सुपात्रों को दान देना, धन-ऐश्वर्य में लिप्त न होकर जितेन्द्रिय रहना, ये संक्षेप में क्षत्रिय वर्ण को धारण करने वाले स्त्री-पुरुषों के कर्तव्य हैं।
🍁वैश्य वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्तव्य –
विश: मनुष्यानाम।(निघंटु 2:3) के भावार्थ में यत् और उसके स्वार्थ में 'अण्' अथवा विश् प्रातिपदिक से अप्रत्यार्थ में 'यञ्' छान्दस प्रत्यय से 'वैश्य' शब्द की निष्पत्ति होती है।
यो यत्र तत्र व्यवहारविद्यासु प्रविशति स: वैश्य: व्यवहारविद्याकुशल: जनो वा।
अर्थात् -जो यहां वहां आने जाने के लिए व्यवहार विद्या में निपुण हो।
एतद् वै वैश्यस्य समृद्धं यत् पशव:।
( ताण्डय ब्राह्मण- 18:4:6)
अर्थात - वैश्य की समृद्धि पशुओं इत्यादि के पालन रक्षण से है।
पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च॥
(मनुस्मृति 1:90)
अर्थात - पशुओं का पालन-पोषण एवं संवर्धन करना, सुपात्रों को दान देना, यज्ञ करना, विधिवत् अध्ययन करना, व्यापार करना, याज से धन कमाना, खेती करना, ये वैश्य वर्ण को ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म हैं।
🍁शूद्र वर्ण धारक स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-
शुच् शोकार्थक (भ्वादि) धातु से शुचेर्दश्च (उणा० 2:19) सूत्र से रक् प्रत्यय उकार को दीर्घ, च को द होकर शूद्र शब्द बनता है।
शूद्र: शोचनीय: शोच्याम् स्थितिमापन्नो वा, सेवायां साषुर् अविद्यादिगुणसहितो मनुष्यो वा।
अर्थात् - शूद्र वो है जिसकी दशा शोचनीय हो, अथवा जिसकी स्थिति अच्छी न हो और उसके विषय में शोक करता हो अथवा सेवा इत्यादि से युक्त और विद्यादि गुणों से रहित मनुष्य।
असतो वा एष सम्भृतो यत् शूद्रः
(तैतिरीय ब्रहमण 3 : 2: 3:9)
अर्थात् - अज्ञान के कारण जो अशिक्षित जीवन स्थिति हो, वह शूद्र कहलाता है।
तपसे शूद्रम'
(यजुर्वेद 30:5)
तपो वै शूद्रः”
(शत्पथ ब्राह्मण 13:6:2:10)
अर्थात् - जो श्रम से अपना जीवन निर्वाह करता हो, वह शूद्र है।
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया॥
(मनुस्मृति 1: 91)
अर्थात - परमात्मा ने वेदों में शूद्र वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए एक ही कर्म निर्धारित किया है, वह यह है कि ‘इन्हीं चारों वर्णों के व्यक्तियों के यहां सेवा या श्रम का कार्य करके जीविका करना।’
क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति शूद्र होता है अतः वह सेवा या श्रम का कार्य ही कर सकता है, अतः उसके लिए यही एक निर्धारित कर्म है।
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[ वर्ण व्यवस्था के विधान ]
🍁वर्णनिर्धारण - गुरुकुल में साथ-साथ दो प्रकार की शिक्षाएं चलती थीं- एक, वेदादिशास्त्रों एवं भाषा प्रशिक्षण की शिक्षा । दूसरी, अपने-अपने स्वीकृत वर्ण की व्यावसायिक शिक्षा थी। कम से कम एक वेद की आध्यात्मिक शिक्षा अर्जित करने तक की शिक्षा सबके लिए अनिवार्य थी। आयु के अनुसार, पुरुषों के लिए 25 वर्ष तक और बालिकाओं के लिए 16 वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करनी अनिवार्य थी। उसे पूर्ण न करने वाला शूद्र घोषित हो जाता था।गुरुकुल से स्नातक बनते समय आचार्य बालक-बालिका के वर्ण का निर्धारण करके उसकी घोषणा करता था, जो बालक प्राप्त वर्ण शिक्षा के अनुसार होता था।
🍁वर्णपरिवर्तन - एक बार वर्णनिर्धारण के बाद भी यदि कोई व्यक्ति वर्णपरिवर्तन करना चाहता था तो उसको उसकी स्वतन्त्रता थी और परिवर्तन के अवसर प्राप्त थे। जैसे, आज कोई कलास्नातक पुनः वाणिज्य की आवश्यक शिक्षा अर्जित करके, वाणिज्य की उपाधि प्राप्त कर व्यवसायी हो सकता है, उसी प्रकार वर्णव्यवस्था में अभीष्ट वर्ण का शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करके व्यक्ति वर्णपरिवर्तन कर सकता था।
🍁वर्णपतन - एक बार वर्णग्रहण करने के बाद यदि व्यक्ति अपने वर्ण, पद, या व्यवसाय के निर्धारित कर्त्तव्यों और आचार-संहिता का पालन नहीं करता था तो उसको राजा या अधिकार प्राप्त धर्मसभा वर्णावनत या वर्ण से पतित कर देते थे। अपराध करने पर भी वर्ण से पतित हो जाते थे। जैसे, आजकल नौकरी, व्यवसाय या निर्धारित कार्यों में कर्त्तव्य या कानून का पालन न करने पर, नियमों का पालन न करने पर, अथवा अपराध करने पर उस नौकरी या व्यवसाय का कुछ समय तक अधिकार छीन लिया जाता है, या उससे हटा दिया जाता है, या पदावनत कर दिया जाता है। ऐसे ही वर्णव्यवस्था में प्रावधान था।
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