सूर्य ग्रहण तथा चन्द्र ग्रहण के सम्बन्ध में बौद्धों का अद्भूत विज्ञान!!!

सूर्य ग्रहण तथा चन्द्र ग्रहण ये दोनों खगोलीय घटनायें हैं, इनके कारण का ज्ञान प्राप्त करने का मनुष्य आदिकाल से ही प्रयत्न कर रहा है किन्तु बौद्धों ने ग्रहण का जो कारण पता किया, वो अद्भूत और उच्चकोटि का विज्ञान है। बौद्धों के संयुत्तनिकाय पालि के देवतासंयुत्तं के चन्दिमसुत्तं के अनुसार चन्द्रग्रहण तब होता है, जब राहु नामक दैत्य चन्द्रमा को ग्रस लेता है। बौद्ध गपोडेबाज यहां भी नही रुके, बुद्ध के महिमामंडन में खगोलीय विज्ञान को किनारे करते हुये, उन्होनें बुद्ध के द्वारा चन्द्रमा को राहु से छुडाने की भी गप्प भर रखी है। इसी प्रकार सूर्य ग्रहण का वर्णन किया गया है।



       तिपिटक / संयुत्तनिकाय / 9. चन्दिमसुत्तं


एवं मे सुतं, एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डकस्स आरामे। तेन खो पन समयेन, चन्दिमा देवपुत्तो राहुना असुरिन्देन गहितो होति। अथ खो चन्दिमा देवपुत्तो भगवन्तं अनुस्सरमानो, तायं वेलायं इमं गाथं अभासि:

1. नमो मे बुद्धवीरत्थु विप्पमुत्तोसि सब्बधि। 

सम्बाधपटिपन्नोस्मिं तस्स मे सरणं भवाति।।

अथ खो भगव चन्दिमं देवपुत्तं आरब्भ राहुं असुरिन्दं गाथाय अज्झभासि:

2. तथागतं अरहन्तं चन्दिमा सरणं गतो।

राहुं चन्दं पमुञ्चस्सु बुद्धा लोकानुकम्पकाति।।

अथ खो राहु असुरिन्दो चन्दिमं देवपुत्तं मुञ्चित्वा तरमानरूपो येन वेपचित्ति असुरिन्दो तेनुपसंकमि, उपसंकमित्वा संविग्गो लोमहट्टजातो एकमन्तं अट्ठासि; एकमन्तं ठितं खो राहुं असुरिन्दं वेपचित्ति असुरिन्दो गाथाय अज्झभासि:

3. किन्नुसन्तरमानोव राहु चन्दं पमुञ्चसि।

संविग्गरूपो आगम्म किन्नुभीतोव तिट्ठति'ति।।

4. सत्तधा मे फले मुद्धा जीवन्तो न सुखं लभे। 

बुद्धगाथाभिगीतोम्हि नो चे मुञ्चेय चन्दिमन्ति।।


(हिन्दी अनुवाद):


ऐसा मैंने सुना। एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन आराम में विहार करते थे। उस समय देवपुत्र चन्द्रमा को असुरेन्द्र राहु ने पकड़ लिया था। तब देवपुत्र चन्द्रमा ने भगवान को स्मरण करते हुए यह गाथा कहा:

1. हे बुद्धवीर! आपको मेरा नमस्कार है, आप सर्वप्रकार से विमुक्त हैं, मैं भारी विपत्ति में पड़ा हूँ, अतः आप मुझे अपनी शरण दीजिये। 

तब भगवान ने देवपुत्र चन्द्रमा के लिए असुरेन्द्र राहु को गाथा में यह कहा:

2. हे असुरेन्द्र राहु! देवपुत्र चन्द्रमा अरहत तथागत के शरणागत हुए हैं। बुद्ध लोकानुकम्पी हैं। आप देवपुत्र चन्द्रमा को मुक्त कर दीजिये।

तब असुरेन्द्र राहु ने देवपुत्र चन्द्रमा को छोड़कर घबराए हुए मन से जहाँ असुरेन्द्र वेपचित्री थे, वहाँ पहुँचे। पहुँच कर संविग्न और रोमांचित हो कर एक ओर खड़े हो गये। एक ओर खड़े हुए असुरेन्द्र राहु को असुरेन्द्र वेपचित्री ने गाथाओं में कहा:

3. हे असुरेन्द्र राहु! घबराए हुए मन से तुमने देवपुत्र चन्द्रमा को छोड़ क्यों दिया? संविग्न और भयभीत होकर यहाँ आकर क्यों खड़े हुए हो?

4. देवपुत्र चन्द्रमा को छोड़ देने का आदेश बुद्ध ने गाथाओं में दिया है। यदि देवपुत्र चन्द्रमा को न छोड़ते तो मेरे सिर के सात टुकड़े हो जाते और सुख से जीना मुश्किल हो जाता।

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          तिपिटक / संयुत्तनिकाय/10. सूरियसुत्तं


एवं मे सुतं, एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डकस्स आरामे। तेन खो पन समयेन, सुरियो देवपुत्तो राहुना असुरिन्देन गहितो होति। अथ खो सुरियो देवपुत्तो भगवन्तं अनुस्सरमानो, तायं वेलायं इमं गाथं अभासि:

1. नमो मे बुद्धवीरत्थु विप्पमुत्तोसि सब्बधि। 

सम्बाधपटिपन्नोस्मिं तस्स मे सरणं भवाति।।

अथ खो भगव सुरियं देवपुत्तं आरब्भ राहुं असुरिन्दं गाथाय अज्झभासि:

2. तथागतं अरहन्तं सुरियो सरणं गतो।

राहुं सुरियं पमुञ्चस्सु बुद्धा लोकानुकम्पकाति।।

3. यो अन्धकारे तमसी पभंकरो 

वेरोचनो मण्डली उग्गतेजो ।

मा राहु गिली चरं अन्तलिक्खे

पजं मम राहु पमुञ्च सूरियन्ति।।

अथ खो राहु असुरिन्दो सुरियं देवपुत्तं मुञ्चित्वा तरमानरूपो येन वेपचित्ति असुरिन्दो तेनुपसंकमि, उपसंकमित्वा संविग्गो लोमहट्टजातो एकमन्तं अट्ठासि; एकमन्तं ठितं खो राहुं असुरिन्दं वेपचित्ति असुरिन्दो गाथाय अज्झभासि:

3. किन्नुसन्तरमानोव राहु सुरियं पमुञ्चसि।

संविग्गरूपो आगम्म किन्नुभीतोव तिट्ठति'ति।।

4. सत्तधा मे फले मुद्धा जीवन्तो न सुखं लभे। 

बुद्धगाथाभिगीतोम्हि नो चे मुञ्चेय सूरितन्ति।।


(हिन्दी अनुवाद) :


ऐसा मैंने सुना। एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन आराम में विहार करते थे। उस समय देवपुत्र सूर्य को असुरेन्द्र राहु ने पकड़ लिया था। तब देवपुत्र सूर्य ने भगवान को स्मरण करते हुए यह गाथा कहा:

1. हे बुद्धवीर! आपको मेरा नमस्कार है, आप सर्वप्रकार से विमुक्त हैं, मैं भारी विपत्ति में पड़ा हूँ, अतः आप मुझे अपनी शरण दीजिये। 

तब भगवान ने देवपुत्र सूर्य के लिए असुरेन्द्र राहु को गाथा में यह कहा:

2. हे असुरेन्द्र राहु! देवपुत्र सूर्य अरहत तथागत के शरणागत हुए हैं। बुद्ध लोकानुकम्पी हैं। आप देवपुत्र सूर्य को मुक्त कर दीजिये।

3. जो काले अन्धकार में प्रकाशित होता है, वैरोचन आभा वलय के साथ उग्रतेज हो अन्तरिक्ष में विचरण करता है। हे राहु! ऐसे सूर्य को ग्रसित न करो। राहु! मेरे शरणागत हुए मेरे पुत्र सूर्य को छोड़ दो।

तब असुरेन्द्र राहु ने देवपुत्र सूर्य को छोड़कर घबराए हुए मन से जहाँ असुरेन्द्र वेपचित्री थे, वहाँ पहुँचे। पहुँच कर संविग्न और रोमांचित हो कर एक ओर खड़े हो गये। एक ओर खड़े हुए असुरेन्द्र राहु को असुरेन्द्र वेपचित्री ने गाथाओं में कहा:

3. हे असुरेन्द्र राहु! घबराए हुए मन से तुमने देवपुत्र सूर्य को छोड़ क्यों दिया? संविग्न और भयभीत होकर यहाँ आकर क्यों खड़े हुए हो?

4. देवपुत्र सूर्य को छोड़ देने का आदेश बुद्ध ने गाथाओं में दिया है। यदि देवपुत्र सूर्य को न छोड़ते तो मेरे सिर के सात टुकड़े हो जाते और सुख से जीना मुश्किल हो जाता।

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प्रमाणिकता के लिए सुत्त का चित्र भी सलग्न किया जा रहा है - 






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