स्त्रियों के धार्मिक अधिकार


 



🍁 स्त्रियों के धार्मिक अधिकार 🍁

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【 दो प्रकार की स्त्रियां 】

हारीत संहिता में विदुषी महिलाओं के ‘ब्रह्मवादिनी’ वर्ग का वर्णन आता है । वे वेदादिशास्त्रों का अध्ययन करके ही ब्रह्मवादिनी बनती थीं।पराशर संहिता के प्रसिद्ध भाष्यकार मध्वाचार्य इस कि टिका में लिखते हैं कि- 

"द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिन्य: सद्योवध्वश्च । तत्र ब्रह्मवादिनीनाम् उपनयनम् अग्निबन्धनम् वेदाध्ययनम् स्वगृहे भिक्षा इति, वधूनाम् तु उपस्थिते विवाहे कथंचित् उपनयनं कृत्वा विवाह: कार्य:।"

अर्थात्- दो प्रकार की स्त्रियाँ होती हैं- एक वे ब्रह्मवादिनी जिनका उपनयन होता है,जो अग्निहोत्र करती हैं,वेदाध्ययन करती हैं, अपने परिवार में ही भिक्षावृत्ति से रहती हैं और दुसरी वे जिनका शीघ्र ही विवाह होना होता है । इन स्त्रियों का भी जिनका शीघ्र विवाह होना होता है जिस-किसी तरह उपनयन संस्कार कर विवाह कर देना चाहिए ।"  

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【 वैदिक ब्रह्मवादनी स्त्रियाँ 】

1-वेदों के मन्त्रों पर लगभग 26 महिलाओं के नाम का उल्लेख ऋषिका के रूप में मिलता है , ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची बृहद् देवता के दूसरे अध्याय में इस प्रकार है—

घोषा गोधा विश्ववारा, अपालोपनिषन्निषत्।

ब्रह्मजाया जुहूर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादिति:॥ 84॥

इन्द्राणी चेन्द्रमाता च सरमा रोमशोर्वशी।

लोपामुद्रा च नद्यश्च यमी नारी च शश्वती॥ 85॥

श्रीर्लाक्षा सार्पराज्ञी वाक्श्रद्धा मेधा च दक्षिणा।

रात्री सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्य ईरिता:॥ 86॥

(बृहद्देवता 2.84-86)

अनुवाद -घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या- सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हैं।

अत्र सिद्धा शिवा नाम ब्राह्मणी वेद पारगा ।

अधीत्य सकलान वेदान लेभेऽसंदेहमक्षयम ॥

(महाभारत उद्योग पर्व 110:18)

अर्थात् - वेदों में पारंगत शिवा नामक ब्राह्मणी ने सभी वेदों का अध्ययन कर मोक्ष प्राप्त किया ।सहस्त्र वेदज्ञ विप्र-सभा में गार्गी ने ब्रह्मज्ञानी याज्ञवल्क्य को शास्त्रार्थ के लिए आह्वान किया ।

महाभारत में गार्गी सहित एक दर्जन से अधिक विदुषियों का वर्णन आता है। उनमें सुलभा का विशेष महत्त्व है। अन्य विदुषियां थीं शिवा, सिद्धा, श्रुतावली, विदुला आदि (शान्तिपर्व 320.82; उद्योगपर्व 109.18; शल्यपर्व 54.6; उद्योगपर्व 133 आदि)

2-शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य ऋषि की धर्मपत्नी मैत्रेयी को ब्रह्मवादिनी कहा है-

तयोर्ह मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी बभूव।

(शतपथ ब्राह्मण 14. 7. 3 .1)

अर्थात्- मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी।

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【 वेदाध्ययन का अधिकार 】

1-‘‘ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्’’ 

(अथर्ववेद 3.5.18)

अर्थात्-‘कन्या ब्रह्मचर्यपूर्वक वेद-शास्त्रों का अध्ययन कर, विदुषी बनकर अपने सदृश पति का वरण करे।

2-कुलायिनी घृतवती पुरन्धि: स्योने सीद सदने पृथिव्या:। 

अभित्वा रुद्रा वसवो गृणन्त्विमा।

 ब्रह्म पीपिहि सौभगायाश्विनाध्वर्यू सादयतामिहत्वा।

(यजुर्वेद 14.2)

अर्थात- हे स्त्री! तुम कुलवती घृत आदि पौष्टिक पदार्थों का उचित उपयोग करने वाली, तेजस्विनी, बुद्धिमती, सत्कर्म करने वाली होकर सुखपूर्वक रहो। तुम ऐसी गुणवती और विदुषी बनो कि रुद्र और वसु भी तुम्हारी प्रशंसा करें। सौभाग्य की प्राप्ति के लिये इन वेदमन्त्रों के अमृत का बार- बार भली प्रकार पान करो। विद्वान् तुम्हें शिक्षा देकर इस प्रकार की उच्च स्थिति पर प्रतिष्ठित कराएँ।

3- आचार्यादणत्वं। —(अष्टाध्यायी 4.1.49)

इस सूत्र पर सिद्धान्त कौमुदी में कहा गया है—

आचार्यस्य स्त्री आचार्यानी पुंयोग इत्येवं आचार्या स्वयं व्याख्यात्री।

अर्थात् -जो स्त्री वेदों का प्रवचन करने वाली हो, उसे आचार्या कहते हैं।

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【 अनुष्ठानों को करने  का अधिकार 】

1-अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषा रतिरुत्तमा । 

(मनुस्मृति 9.28)

अर्थ-‘सन्तानोत्पत्ति और धर्मकार्यों का अनुष्ठान पत्नी के दायित्व के अन्तर्गत आता है।

2-प्रजनार्थं स्त्रियः सृष्टाः सन्तानार्थं च मानवः ।

तस्मात् साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्न्या सहोदितः ॥ 

(मनुस्मृति 9.96)

अर्थ - महिलाओं को संतान की जननी और पुरुष को संतान के जनक के रूप में बनाया गया है। इसलिए यह है कि वेद में धार्मिक संस्कारों को पुरुष और उसकी पत्नी के बीच सामान्य माना गया है।

अतः स्त्रियों के शिक्षा-निषेधपरक विधान मनुस्मृति के मौलिक विधान नहीं हो सकते। 

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【 यज्ञ को करने  का अधिकार 】

1-‘‘अयज्ञियो वैष योऽपत्नीकः’’ 

(तैत्तिरीय ब्राह्मण 3. 3 .3. 1)

अर्थ-‘पत्नी के बिना यज्ञ करने वाला गृहस्थ यज्ञ के अयोग्य है।’            

2-‘‘यद्वै पत्नी यज्ञे करोति तत् मिथुनम्’’

(तैत्तिरीय संहिता 6. 2. 1.1)

अर्थ-‘पत्नी यज्ञ में जो अनुष्ठान करती है वह दोनों के (पति-पत्नी के) लिए है।’

3-‘‘जघनार्धो वा एष यज्ञस्य यत्पत्नी’’ 

(शतपथ ब्राह्मण 1.3.1 .12)

अर्थ-दोनों वाक्यों का एक ही भाव है कि ‘यज्ञ का पूर्व भाग पति है तो उत्तर भाग पत्नी है।’ यज्ञ न केवल पति-पत्नी का संयुक्त कर्त्तव्य है अपितु वह दोनों के ऐक्य का प्रतीक है।

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【पत्नी को अर्धांगिनी  का सम्मान】

 1-‘‘अर्धो वा एष आत्मनः यत्पत्नी’’  

(तैत्तिरीय ब्राह्मण 3. 3. 3. 5)

अर्थ–‘पत्नी पति का आधा भाग है।’ जैसे शरीर के आधे भाग की उपेक्षा नहीं की जाती, उसी प्रकार पत्नी की भी सर्वत्र बराबर भागीदारी होती है।

2-‘‘अर्धात्मा वा एष यजमानस्य यत् पत्नी’’

 (जैमिनीय ब्राह्मण 1.86)

अर्थ–‘पत्नी, यजमान पति का आधा भाग है। पूर्ण यजमान पति-पत्नी के संयुक्त रूप में कहाता है।’ 


उपनयन  के विषय में लिखा है   -

प्रावृतां यज्ञोपवीतिनीम् अभ्युदानयन् 

जपेत सोमोऽददत् गन्धर्वाय इति ।"

(गोभिलीय गृह्यसूत्र 2.1.19-21)

अर्थ– कन्या को कपड़ा पहने हुए,यज्ञोपवीत धारण किये हुए पति के निकट लाएँ । तथा यह मन्त्र पढ़ें "सोमोऽददत्" 

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【महर्षि मनु के पत्नी द्वारा यज्ञ तथा वेदाध्यन】

सातवें मनु राजर्षि मनु वैवस्वत (मनु श्रद्धादेव) एक बार अपने महल में पहुंचे तो देखते हैं कि उनकी पत्नी यज्ञानुष्ठान कर रही है और उसमें उच्च स्वर से यजुर्वेद के मन्त्रों का पाठ कर रही है। 

‘‘तत् पत्नीं यजुर्वदन्तीं प्रत्यपद्यत। तस्याः वाग् द्यां आतिष्ठत्।’’

(काठक ब्राह्मण 3.30 .1)

अर्थ–‘मनु जब महल में पहुंचे तो उनकी पत्नी यज्ञ में यजुर्वेद के मन्त्रों का उच्च स्वर से पाठ कर रही थी। उसकी वाणी आकाश में व्याप्त हो रही थी।’

 इससे बढ़कर पत्नी द्वारा यज्ञ करने का स्पष्ट वर्णन क्या हो सकता है?

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 【 वाल्मीकि रामायण से प्रमाण 】

1-वैदेही शोकसन्तप्ता हुताशनमुपागमत्। 

(वाल्मीकि रामायण 5. 53 .26)

अर्थात- तब शोक सन्तप्त सीताजी ने हवन किया।

2-‘तदा सुमन्त्रं मन्त्रज्ञा कैकेयी प्रत्युवाच ह।’ 

(वाल्मीकि रामायण 2 .14 .61)

अर्थात- वेदमन्त्रों को जानने वाली कैकेयी ने सुमन्त्र से कहा।

3-सा क्षौमवसना हृष्ट नित्यं व्रतपरायणा। 

अग्निं जुहोति स्म तदा मन्त्रवत् कृतमंगला॥ 

(वाल्मीकि रामायण 2 .20 .15)

अर्थात- वह रेशमी वस्त्र धारण करने वाली, व्रतपरायण, प्रसन्नमुखी, मंगलकारिणी कौशल्या मन्त्रपूर्वक अग्निहोत्र कर रही थी।

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【पैतृक सपत्ति में पुत्री का समान अधिकार 】



निरुक्त में, महर्षि यास्क ने दायभाग में पुत्र-पुत्री के समान-अधिकार के विषय में किसी प्राचीन ग्रन्थ का श्लोक उद्धृत करके मनु के मत का प्रमाण रूप में उल्लेख किया है। वह श्लोक है-

अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।
मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्॥ (निरुक्त 3.4)

अर्थ-‘कानून के अनुसार, दायभाग के विभाजन में, पुत्र-पुत्री में कोई भेद नहीं होता अर्थात् उन्हें समान दायभाग मिलता है।यह विधान, मानवसृष्टि के आरम्भिक काल में मनु स्वायम्भुव ने किया था "


यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।
तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत्॥ (मनुस्मृति 9.129)

अर्थ-‘पुत्र अपने आत्मा का ही एक रूप होता है, उस पुत्र के समान ही पुत्री भी आत्मारूप होती है, उनमें कोई भेद नहीं। जब तक आत्मारूप पुत्र और पुत्री जीवित हैं तब तक माता-पिता का धन उन्हें ही मिलेगा, अन्य कोई उसका अधिकारी नहीं है।’


एक अन्य धन-विभाजन में माता और भाई के धन में क्रमशः पुत्र-पुत्रियों और भाई-बहनों का समान भाग वर्णित किया है –

जनन्यां संस्थितायां तु समं सर्वे सहोदराः।
भजेरन् मातृकं रिक्थं भगिन्यश्च सनाभयः॥ (मनुस्मृति 9.192)

सोदर्या विभजेरन् तं समेत्य सहिता समम्।
भ्रातरो ये च संसृष्टा भगिन्यश्च सनाभयः॥ (मनुस्मृति 9.212)

अर्थ-‘माता के देहान्त के पश्चात् सभी सगे भाई और सगी बहनें मातृधन को बराबर बांट लें।इसी प्रकार किसी अविवाहित भाई के मर जाने पर सभी सगे भाई व बहनें मिलकर उसके धन को बराबर बांट लें।’


निरुक्त में इस प्रकार उद्धृत किया गया है-

अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।
मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायभुवोऽब्रवीत्॥ (निरुक्त 3.4)

अर्थात्-‘सृष्टि के प्रारभ में स्वायभुव मनु ने यह विधान किया है कि धर्म अर्थात् कानून के अनुसार दायभाग (पैतृक सपत्ति ) में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार होता है।

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