प्रायः यह माना जाता है बुद्ध वेदोँ के विरोधी थे किन्तु निष्पक्षपात दृष्टि से इस विषय का अनुशीलन करने पर इसमेँ यथार्थता नहीँ प्रतीत होती।
1- सुत्त निपात के सभिय सुत्त मेँ महात्मा बुद्ध ने वेदज्ञ का लक्षण इस प्रकार बताया है-
वेदानि विचेग्य केवलानि समणानं यानि पर अत्थि ब्राह्मणानं।
सब्बा वेदनासु वीतरागो सब्बं वेदमनिच्च वेदगू सो।।
(सुत्त निपात 529)
अर्थात - जिसने सब वेदोँ और कैवल्य वा मोक्ष-विधायक उपनिषदोँ का अवगाहन कर लिया है और जो सब वेदनाओँ से वीतराग होकर
सबको अनित्य जानता है वही वेदज्ञ है ।
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2- प्रश्न- किन गुणोँ को प्राप्त करके मनुष्य श्रोत्रिय होता है?
बुद्ध का उत्तर-
"सुत्वा सब्ब धम्मं अभिञ्ञाय लोके सावज्जानवज्जं यदत्थि किँचि।
अभिभुं अकथं कथिँ विमुत्त अनिघंसब्बधिम् आहु 'सोत्तियोति"।।
अर्थात -"जितने भी निन्दित और अनिन्दित धर्म हैँ उन सबको सुनकर और जानकर जो मनुष्य उनपर विजय प्राप्त करके निश्शंक, विमुक्त, और सर्वथा निर्दःख हो जाता है, उसे श्रोत्रिय कहते हैँ"।
Note-संस्कृत साहित्य मेँ श्रोत्रिय शब्द का प्रयोग 'श्रोत्रियछश्न् दोऽधीते' इस अष्टाध्यायी के सूत्र के अनुसार वेद पढ़नेवाले के लिए होता है।
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3- महर्षि मनु अपनी स्मृति मेँ गायत्री को सावित्री मंत्र के नाम से भी पुकारते हैँ क्योँकि इसमेँ परमेश्वर को 'सविता' के नाम से स्मरण किया गया है।
"ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् , भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् "||
अर्थात -हम ईश्वर की महिमा का ध्यान करते हैं, जिसने इस संसार को उत्पन्न किया है, जो पूजनीय है, जो ज्ञान का भंडार है, जो पापों तथा अज्ञान की दूर करने वाला हैं- वह हमें प्रकाश दिखाए और हमें सत्य पथ पर ले जाए।
(मनुस्मृति 2/78)
महात्मा बुद्ध गायत्री मंत्र की प्रसंशा करते हुवे सुत्तनिपात महावग्ग सेलसुत्त श्लो॰21 मेँ कहा है-
"अग्गिहुत्तमुखा यज्ञाः सावित्री छन्दसो मुखम्"।
अर्थात - छन्दोँ मेँ सावित्री छन्द (गायत्री मंत्र) प्रधान है तथा अग्रिहोत्र (विषयक श्रद्धा )का भी आभास मिलता है।
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4-सुत्तनिपात श्लो॰322 मेँ महात्मा बुद्ध ने कहा है-
एवं पि यो वेदगू भावितत्तो, बहुस्सुतो होति अवेध धम्मो।
सोखो परे निज्झपये पजानं सोतावधानूपनिसूपपत्रे।।
अर्थात् - जो वेद जाननेवाला है, जिसने अपने को सधा रखा है, जो बहुश्रुत है और धर्म का निश्चय पूर्वक जाननेवाला है वह निश्चय से स्वयं ज्ञान बनकर अन्योँ को जो श्रोता सीखने के अधिकारी हैँ ज्ञान दे सकता है।
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5-सुन्दरिक भारद्वाज सुत्त मेँ कथा है कि सुन्दरिक भारद्वाज जब यज्ञ समाप्त कर चुका तो वह किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को यज्ञ शेष देना चाहता था। उसने संन्यासी बुद्ध को देखा। उसने उनकी जाति पूछी उन्होनेँ
कहा कि मैँ ब्राह्मण हूं और उसे सत्य उपदेश देते हुए कहा-
"यदन्तगु वेदगु यञ्ञ काले। यस्साहुतिँल ले तस्स इज्झेति ब्रूमि।।"
अर्थात् - वेद को जाननेवाला जिसकी आहुति को प्राप्त करे
उसका यज्ञ सफल होता है ऐसा मैँ कहता हूं।
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6-सुत्तनिपात श्लोक 1059 मेँ महात्मा बुद्ध की निम्न उक्ति पाई जाती है-
यं ब्राह्मणं वेदगुं अभिजञ्ञा अकिँचनं कामभवे असत्तम्।
अद्धाहि सो ओघमिमम् अतारि तिण्णो च पारम् अखिलो अडंखो।।
अर्थात् - जिसने उस वेदज्ञ ब्राह्मण को जान लिया जिसके पास कुछ
धन नहीँ और जो सांसरिक कामनाओँ मेँ आसक्त नहीँ वह आकांक्षारहित सचमुच इस संसार सागर के पार पहुंच जाता है।
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7- बुध्द कहते है-
"विद्वा च वेदेहि समेच्च धम्मम्|
न उच्चावचं गच्छति भूरिपञ्ञो|(सुत्तनिपात २९२)
अर्थात् -जो विद्वान वेदो से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है,वह कभी विचलित नही होता है|
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8-बुध्द कहते है-
विद्वा च सो वेदगू नरो इध, भवाभवे संगं इमं विसज्जा|
सो वीतवण्हो अनिघो निरासो,आतारि सो जाति जंराति ब्रमीति||(सुत्तनिपात१०६०)
अर्थात् -वेद को जानने वाला विद्वान इस संसार मे जन्म ओर मृत्यु की आसक्ति का त्याग करके ओक इच्छा ,तृष्णा तथा पाप से रहित होकर जन्म मृत्यु से छुट जाता है|
इन सभी तर्को से यही स्पष्ट होता है कि बुध्द वेदो के विरोधी नही थे बल्कि वेदोँ के विषय मेँ आदर भाव ही प्रकट होता है न कि अनादर यह बात सर्वथा स्पष्ट है। दरअसल जहां भी निन्दासूचक शब्द आये हैँ वे उन ब्राह्मणोँ के लिए आये जो वेद का अध्ययन करते हैँ पर तदनुसार आचरण नहीँ करते हैँ।
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Publisher-Hari Maurya
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