पहले केवल एक वर्ण था



ईश्वर ने मनुष्य को बनाया बाद में महर्षि मनु ने सभी मनुष्यों को कर्मो के आधार पर 4 वर्णों में विभाजित किया . हम बताना चाहते हैं कि वर्तमान में जो मनुस्मृति पाई जाती है वह किस काल के मनु ने लिखी है और उनका नाम क्या था। तो सबसे पहले क्रमवार जान लीजिये की कौन कौन से मनु हुए हैं... सबसे पहले स्वायंभुव मनु , उसके बाद में क्रमश: स्वारो‍‍चिष, औत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मासावर्णि, धर्मसावर्णि, रूद्रसावर्णि, देवसावर्णि और इन्द्रसावर्णि। वर्तमान में जो मनु स्मृति अस्तित्व में है उसे 14वें मनु इन्द्रसावर्णि के मार्गदर्शन में सूत्रबद्ध किया गया था। लेकिन कालांतकर में इसमें परिवर्तन मिलावट होते रहे।


लेकिन अब सवाल यहाँ ये उठता है की जब मनु ने कर्मो के अनुसार वर्णों का विभाजन किया उससे पहले या उस वक़्त जो मनुष्य थे वो किस वर्ण के थे इसका जवाब हमें प्राचीन वैदिक ग्रंथों में मिलता है


बृहदारण्यक उपनिषद् में यह स्पष्ट किया है कि सभी वर्ण ब्राह्मणवर्ण से ही निष्पन्न हैं-


ध्यान दे- यही स्लोक शतपथ ब्राह्मण -14:4:2: 23-25 में भी आया है

‘‘ब्रह्म वा इदमासीदेकमेव, तदेकं सन् न व्यभवत्। तत् श्रेयोरूपमत्यसृजत् क्षत्रम्,…..सः नैव व्यभवत्, स विशमसृजत्, ……सः नैव व्यभवत्, सः शौद्रं वर्णमसृजत्।’’

( बृहदारण्यक उपनिषद्-1: 4 :11-13)

अर्थात्-‘ब्राह्मण वर्ण ही आरभ में अकेला था। अकेला होने के कारण उससे समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यकता पड़ने पर ब्राह्मण वर्ण में से तेजस्वी वर्ण क्षत्रियवर्ण का निर्माण किया गया। उससे भी समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यक जानकर उस ब्राह्मणवर्ण में से वैश्यवर्ण का निर्माण किया। उससे भी समाज की पूर्ण समृद्धि नहीं हुई। तब उस ब्राह्मणवर्ण में से शूद्रवर्ण का निर्माण किया। इन चार वर्णों से समाज में पूर्ण समृद्धि हुई।’


व्याख्या-जगत् के प्रारम्भ में, मनुष्य के उत्पन्न होने पर सभी मनुष्य एक ही जाति के थे जिन्हें इस कण्डिका में ब्राह्मण कहा गया हैं मनुष्योन्नति के लिए चारों वर्णों की समस्त देश को जरूरत हुआ करती है।
(१) प्रत्येक देश में, अध्यापक, उपदेशक और पुरोहितों (ब्राह्मण वर्ण) की जरूरत हुआ करती है।
(२) देश की रक्षा तथा उसे सुप्रबन्ध में रखने के लिए सिपाही और राजा (क्षत्रिय वर्ण) अपेक्षित होते हैं।
(३) खेती, पशु-पालन और व्यापार करने वालों (वैश्य वर्ण) की आवश्यकता होती है।
(४) शारीरिक परिश्रम करने वाले मजदूर (शूद्र वर्ण) भी प्रत्येक देश में होने चाहिए तब ही देशोन्नति हो सकती है और हुआ करती है।


रामायण में भी कहा है -

एकवर्णाः समभाषा एकरूपाश्च सर्वशः।
तासां नास्ति विशेषो हि दर्शने लक्षणेऽपि वा॥
(वाल्मीकि-रामायण7.30.19.20)

अर्थात्-आदि समय में सभी लोग एक ही तरह के वर्ण के थे, एक समान भाषा बोलने वाले थे, सभी व्यवहारों में एक सदृश थे। उनके वेश और लक्षणों में किसी प्रकार की भिन्नताएं नहीं थीं।



महाभारत में भी इसकी पुष्टि करते हुए कहा है-

न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।
ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्॥
(महाभारत- शान्तिपर्व 188.10)

अर्थात्-सारा मनुष्य-जगत् एक ब्रह्म की सन्तान है।  वर्णों में कोई भेद नहीं है। ब्रह्मा के द्वारा रचा गया यह सारा संसार पहले सम्पूर्णतः ब्राह्मण ही था। मनुष्यों के कर्मों द्वारा यह वर्णों में विभक्त हुआ। 

इत्येतैःकर्मभिर्व्यस्ताः द्विजा वर्णान्तरं गताः।
धर्मो यज्ञक्रिया तेषाँ नित्यंच प्रतिषिध्यते ॥ 
(महाभारत- शान्तिपर्व 188.14)
अर्थात्-कार्य भेद के कारण ब्राह्मण ही पृथक-पृथक वर्णों के हो गये। इसलिए धर्म-कर्म और यज्ञ क्रिया उनके लिए भी विहित है-और कभी निषेध नहीं किया गया है ॥ १४ ॥

महाभारत में इस तथ्य को एक अन्य स्थान पर कहा है-

एक वर्णामिदं पूर्व विश्वमासीद युधिष्ठिर। 
कर्मक्रिया विभेदेन चातुर्वण्यं प्रतिष्ठितम्। 
—महाभारत 
अर्थात -इस संसार में पहले एक ही वर्ण था। पीछे गुण और कर्म के भेद के कारण चार वर्ण बने।  


  पुराण में भी लिखा है -


एक एव पुरा वेद: प्रणव: सर्ववाङ्‌मय: ।
देवो नारायणो नान्य एकोऽग्निर्वर्ण एव च ॥ ४८ ॥
(श्रीमद्भागवत  पुराण 9: 14: 48 )

अर्थात्-”पहले सर्व वांग्मय प्रणव (ओंकार) ही एक मात्र वेद था। एकमात्र देवता सर्वव्यापी नारायण  थे और कोई नहीं। एक मात्र लौकिक अग्नि ही अग्नि थी और एकमात्र हंस ही एक वर्ण था।”

संसर्ज ब्राह्मणनग्रे सृष्टयादौ स चतुर्मुखः। 
सर्वे वर्णाः पृथक् पश्चात् तेषाँ वंशेषु जज्ञिरे॥ 
(पद्मपुराण उत्कलखंड 38:44) 
अर्थात्- " ब्रह्मा ने सृष्टि के प्रारंभ में जिन मनुष्यों को बनाया वो ब्राह्मण थे फिर वे अलग अलग कर्म से  सभी पृथक-पृथक वर्ण के हुए। 

यह है असली वैदिक वर्णव्यवस्था! इसमें न व्यक्ति में भेदभाव है, न वर्णों में। ब्रह्मा द्वारा निर्धारित यही वर्णव्यवस्था आरभ में प्रचलित थी। ब्रह्मा के पुत्र मनु ने भी इसी को अपने शासन में प्रचलित किया था। मौलिक मनुस्मृति में यही भावना निहित थी। अब प्राप्त मौलिक श्लोकों में भी यही समानता की भावना है। परवर्ती लोगों ने स्वार्थवश प्रक्षेप करके उस भावना को कहीं-कहीं क्षत-विक्षत कर दिया। उस क्षत-विक्षत व्यवस्था को मनुकालीन व्यवस्था नहीं कहना चाहिए। मनु की व्यवस्था तो उपर्युक्त ही है। वही शूद्रों के वर्तमान विवादों को निपटाने की एकमात्र औषध है। उसका संदेश है-सभी एक ईश्वर की सन्तान हैं, सभी एक वर्ण का विकास हैं, सभी महत्त्वपूर्ण हैं, एक पिता की सन्तानों में कोई भेदभाव नहीं है।





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