【क्या शूद्रों की तुलना पैरों से करना अपमानजनक नहीं】
वर्णव्यवस्था में शरीरांगों से जो आलंकारिक उत्पत्ति बतलायी गयी है, वह व्यक्तियों की नहीं अपितु वर्णों की है। वर्ण एक बार निर्मित हुआ है, अतः उसकी उत्पत्ति कहना तर्कसंगत है। व्यक्ति तो रोज उत्पन्न होते हैं और करोड़ों की संया में हैं, वे कैसे पैदा होंगे? अतः वह शूद्रवर्ण की प्रतीकात्मक उत्पत्ति है, शूद्र व्यक्ति की नहीं।
मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्र तो वह व्यक्ति होता है जो विधिवत् शिक्षित नहीं होता। जो शूद्र रह गया वह पुनः योग्यता अर्जित करके ब्राह्मण आदि बन सकता है। अतः यह उत्पत्ति किसी व्यक्ति या जातिविशेष से संबद्ध नहीं है। दलित लोग भ्रान्तिवश इस नाम को स्वयं पर थोप कर व्यर्थ दुःखी होते हैं। मनु ने उनको कहीं शूद्र नहीं कहा।भारतीय परपरा में चरण कभी घृणित नहीं रहा। एक ओर हम स्वयं यह तर्क देते हैं कि एक पुरुष से उत्पन्न चार वर्णों में भेदभाव नहीं हो सकता, तो दूसरी ओर अपनी आपत्ति को सही सिद्ध करने के लिए हम स्वयं मुख, पैर आदि में भेदभाव कर रहे हैं। यदि इस दृष्टि से आरोप लगाते हैं, तो वैश्यों की उत्पत्ति जंघाओं से कही है, क्या जंघाएं उत्तम अंग हैं? फिर तो इस पर वे लोग भी आपत्ति करेंगे। वस्तुतः ऐसा दृष्टिकोण वैदिक वर्णव्यवस्था में कभी नहीं रहा। यह आधुनिक वातावरण की सोच का प्रभाव है।
【वेद में चारों वर्णों की अलंकारिक उत्पत्ति का वर्णन 】
वेदों तथा मनुस्मृति में उस निराकार पुरुष (ब्रह्म) के अंगो की कल्पना करके उससे वर्णो की अलंकारिक तुलना की गयी है वहां कही भी वर्णस्थ व्यक्तियों की उत्पत्ति का वर्णन नहीं। वहां यह बतलाया गया है कि किस अंग की समानता के आधार पर किस वर्ण की कल्पना की गई अर्थात् किस वर्ण का कैसे नामकरण किया गया। ऋग्वेद में एक प्रश्न पर इसका उल्लेख हुवा है .
प्रश्न- यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्य, कौ बाहू, का ऊरू पादौ उच्येते ॥
-(ऋग्वेद 10.90.11)
अर्थात- जिसको ‘पुरुष’ कहते हैं, उसकी अथवा समाजरूपी पुरुष की किस प्रतीक के रूप में कल्पना की गयी? वह कल्पना कितने प्रकार से की गयी? इस समाज या पुरुष का मुख क्या है? भुजाएं क्या हैं? जंघाएं अर्थात् मध्यमार्ग और पैर क्या कहे जाते हैं?
उत्तर- ब्राह्मणो-अस्य मुाम् आसीद् बाहू राजन्यःकृतः।
ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्यां शूद्रो अजायत ॥
-(ऋग्वेद 10.90.12)
अर्थात- इस पुरुष का, अथवा समाजरूपी पुरुष का ब्राह्मण नामक वर्ण के मुखमण्डल के गुणों के आधार पर प्रथम वर्ण का ‘ब्राह्मण वर्ण’ नाम रखा गया , भुजा ‘क्षत्रिय वर्ण’ को बनाया गया अर्थात् भुजाओं के गुणों के अनुसार ‘राजन्य=क्षत्रिय वर्ण’ नाम रखा गया जो ‘वैश्य वर्ण’ है, वह इसका मध्यभाग या जंघा रूप कहा गया अर्थात् पेट आदि मध्यभाग के गुणों के अनुसार ‘वैश्य वर्ण’ नाम रखा गया ‘शूद्रवर्ण’ पैरों की तुलना से निर्मित हुआ अर्थात् पैरों के गुणों के अनुसार ‘शूद्रवर्ण’ का नाम रखा गया।
उत्पत्ति सबन्धी मन्त्रों और श्लोकों की व्याया में अनेक व्यायाकार भ्रमित होकर ब्राह्मण, शूद्र आदि व्यक्तियों की उत्पत्ति वर्णित करते हैं, जो वर्णव्यवस्था के मूल सिद्धान्त के ही विरुद्ध है।
🌟 वेदों के अलावा अन्य वैदिक ग्रंथो में अलग अलग वर्णो के अलंकारिक उत्पत्ति करके उसकी तुलना की गयी है
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【 वर्ण के साथ अन्य पदार्थों की भी आलंकारिक उत्पत्ति का वर्णन】
‘‘एकविंश स्तोम, अनुष्टुप् छन्द,
वैराज साम, शूद्र, पशुओं में अश्व।
तस्मात् पादौ उपजीवतः।
पत्तो हि असृज्येताम्।’’
(तैत्तिरीय संहिता 7. 1. 1 .4)
अर्थात- शूद्र , अश्व के साथ ऋग्वेद और सामवेद आदि धर्मग्रन्थों के मन्त्रों की उत्पत्ति भी पैरों से है, क्योंकि अश्व तेज धावक है, अतः तेज चलने की विशेषता के कारण उसकी उत्पत्ति पैर से है। सेवा-टहल का कार्य पैरों पर आधारित होने के कारण शूद्र की तुलना भी चलने वाले अंग ‘पैर’ से है।
इसमें कहीं भी हीनता या घृणा की भावना नहीं है। ध्यान दीजिये, शूद्र यहां वेदमन्त्रों के समकक्ष है। क्या यह हीनताबोधक सकती है?अश्व क्या हीन पशु है?वैदिक ग्रंथो में अलंकारिक उत्पत्ति के द्वारा किसी बात को समझाना बहुत सामान्य बात है .
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【 दिशाओं और भूमि की भी अलंकारिक उत्पत्ति 】
‘‘पद्यां भूमिः दिशः श्रोत्रात्’’
- (ऋग्वेद 10.90.14)
अर्थ-पैरों से भूमि और कानों से दिशाएं उत्पन्न हुई।’
यहां गुणों की समानता से आलंकारिक वर्णन है। क्या, इसमें कहीं हीनता दिखायी पड़ती है?
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【 पूषा की शूद्र से तुलना तथा अलंकारिक उत्पत्ति 】
स नैव व्यभवत् स शौद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं वै पूषेय हीद सर्वं पुष्यति यदिदं किंच॥
‘‘सः शौद्रं वर्णमसृजत्, पूषणमियं वै पूषा इयं हीदं
सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च।’’
-(शतपथ ब्राह्मण 14. 4. 2 .25)
अर्थात्-उस ब्रह्म-पुरुष ने शूद्रसबन्धी वर्ण को उत्पन्न किया। देवों में पूषा देव को शूद्र के रूप में उत्पन्न किया, क्योंकि वह सबको पालन-पोषण करके पुष्ट करता है।
क्या यहां कहीं हीनभावना दिखाई पड़ती है? शूद्र यहां एक वैदिक देव के समकक्ष है। क्योंकि यह उत्पत्ति गुणाधारित तुलना से है, अतः उस देव को ‘शूद्रवर्ण’ बताया है। गुणों में समानता यह है कि पूषा देव (पृथ्वी का पोषक) रूपसब पदार्थों को पुष्ट करता है और शूद्र भी अपने श्रम-सेवा से सबको पुष्ट करता है, अतः गुण-कर्म-साय से दोनों शूद्र वर्णस्थ हैं।
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【 वेदों से तीन वर्णों की अलंकारिक उत्पत्ति 】
सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्, ऋग्यो जातं वैश्यवर्णमाहुः।
यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुः योनिम्, सामवेदोब्राह्मणानां प्रसूतिः॥
(तैत्तिरीय ब्राह्मण 3. 12. 9 .2)
अर्थात्-सब मनुष्य ब्रह्म की ही सन्तान हैं। ऋग्वेद से वैश्यवर्ण की उत्पत्ति हुई। यजुर्वेद से क्षत्रिय वर्ण की उत्पत्ति हुई। सामवेद से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई है।
🍁 एक अन्य उत्पत्ति का आलंकारिक वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। वहां मंत्र ‘भूः’ से ब्राह्मणवर्ण की, ‘भुवः’ से क्षत्रियवर्ण की और ‘स्वः’ से वैश्यवर्ण की उत्पत्ति कही है। (शतपथ ब्राह्मण 2 .1 .4. 11)
इन प्रमाणों को दर्शाने का अभिप्राय यही है कि केवल एक उत्पत्ति प्रकार को लेकर कोई आग्रह नहीं बनाना चाहिए। ये केवल आलंकारिक वर्णन हैं। उसी संदर्भ में उनको देखना चाहिए।
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【 सभी मनुष्य ईश्वर की संतान है 】
सबसे पहले स्वायंभुव मनु , उसके बाद में क्रमश: स्वारोचिष, औत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मासावर्णि, धर्मसावर्णि, रूद्रसावर्णि, देवसावर्णि और इन्द्रसावर्णि। वर्तमान में जो मनुस्मृति अस्तित्व में है उसे 14वें मनु इन्द्रसावर्णि के मार्गदर्शन में सूत्रबद्ध किया गया था। लेकिन कालांतकर में इसमें परिवर्तन मिलावट होते रहे। लेकिन अब सवाल यहाँ ये उठता है की जब मनु ने कर्मो के अनुसार वर्णों का विभाजन किया उससे पहले या उस वक़्त जो मनुष्य थे वो किस वर्ण के थे इसका जवाब हमें प्राचीन वैदिक ग्रंथों में मिलता है
🍁 बृहदारण्यक उपनिषद् में यह स्पष्ट किया है कि सभी वर्ण ब्राह्मणवर्ण से ही निष्पन्न हैं-
‘‘ब्रह्म वा इदमासीदेकमेव, तदेकं सन् न व्यभवत्। तत् श्रेयोरूपमत्यसृजत् क्षत्रम्,…..सः नैव व्यभवत्, स विशमसृजत्, ……सः नैव व्यभवत्, सः शौद्रं वर्णमसृजत्।’’
( बृहदारण्यक उपनिषद्-1: 4 :11-13)
अर्थात्-‘ब्राह्मण वर्ण ही आरभ में अकेला था। अकेला होने के कारण उससे समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यकता पड़ने पर ब्राह्मण वर्ण में से तेजस्वी वर्ण क्षत्रियवर्ण का निर्माण किया गया। उससे भी समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यक जानकर उस ब्राह्मणवर्ण में से वैश्यवर्ण का निर्माण किया। उससे भी समाज की पूर्ण समृद्धि नहीं हुई। तब उस ब्राह्मणवर्ण में से शूद्रवर्ण का निर्माण किया। इन चार वर्णों से समाज में पूर्ण समृद्धि हुई।’
🍁 महाभारत में भी इसकी पुष्टि करते हुए कहा है-
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।
ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्॥
(महाभारत- शान्तिपर्व 188.11)
अर्थात्-सारा मनुष्य-जगत् एक ब्रह्म की सन्तान है। वर्णों में कोई भेद नहीं है। ब्रह्मा के द्वारा रचा गया यह सारा संसार पहले सम्पूर्णतः ब्राह्मण ही था। मनुष्यों के कर्मों द्वारा यह वर्णों में विभक्त हुआ।
यह है असली वैदिक वर्णव्यवस्था! इसमें न व्यक्ति में भेदभाव है, न वर्णों में। मौलिक मनुस्मृति में यही भावना निहित थी। परवर्ती लोगों ने स्वार्थवश प्रक्षेप करके उस भावना को कहीं-कहीं क्षत-विक्षत कर दिया। उस क्षत-विक्षत व्यवस्था को मनुकालीन व्यवस्था नहीं कहना चाहिए।
मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्र तो वह व्यक्ति होता है जो विधिवत् शिक्षित नहीं होता। जो शूद्र रह गया वह पुनः योग्यता अर्जित करके ब्राह्मण आदि बन सकता है। अतः यह उत्पत्ति किसी व्यक्ति या जातिविशेष से संबद्ध नहीं है। दलित लोग भ्रान्तिवश इस नाम को स्वयं पर थोप कर व्यर्थ दुःखी होते हैं। मनु ने उनको कहीं शूद्र नहीं कहा।भारतीय परपरा में चरण कभी घृणित नहीं रहा। एक ओर हम स्वयं यह तर्क देते हैं कि एक पुरुष से उत्पन्न चार वर्णों में भेदभाव नहीं हो सकता, तो दूसरी ओर अपनी आपत्ति को सही सिद्ध करने के लिए हम स्वयं मुख, पैर आदि में भेदभाव कर रहे हैं। यदि इस दृष्टि से आरोप लगाते हैं, तो वैश्यों की उत्पत्ति जंघाओं से कही है, क्या जंघाएं उत्तम अंग हैं? फिर तो इस पर वे लोग भी आपत्ति करेंगे। वस्तुतः ऐसा दृष्टिकोण वैदिक वर्णव्यवस्था में कभी नहीं रहा। यह आधुनिक वातावरण की सोच का प्रभाव है।
【 अलंकार किसे कहते है 】
'अलंकार' शब्द 'अलं+कृ' के योग से बनता है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार दी जाती है- अलंकारः, अर्थात जो आभूषित करता हो वह 'अलंकार' है।
जो किसी वस्तु को अलंकृत करे वह अलंकार कहलाता है।
संकीर्ण अर्थ में- काव्यशरीर, अर्थात् भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनाने वाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।
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【 अलंकार होने का प्रमाण】
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्यासीत्किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥१०॥
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद् बाहूराजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भयाशूद्रोऽजायत॥११॥
भाषार्थ-जिस परमात्मा को कई प्रकार से कल्पना करते हुए पुरुष वर्णन करते हैं, उस पुरुष का मुख क्या है? उसकी भुजा कौन हैं, उसके ऊरू तथा पाँव कौन कहे जाते हैं? ॥ १० ॥
इस मन्त्र में जो परमात्मा को कई प्रकार की कल्पना करके वर्णन करने का ज़िक्र है, वह कल्पना क्या वस्तु है? इसको दूसरे शब्दों में अलंकार भी कहते हैं।
🔥सौन्दर्यमलङ्कारः ॥ ६॥ -काव्यालंकारसूत्रवृत्ति
भाषार्थ-किसी बात को सौन्दर्य से वर्णन करने का नाम अलंकार है। अलंकार बहुत प्रकार के होते हैं, उनमें से एक अलंकार का नाम है उपमालंकार ।
उसका लक्षण यह है-
🔥उपमानोपमेययोर्गुणलेशतः साम्यमुपमा ॥ १॥
उपमान से उपमेय के गुणों की कुछ समानता का नाम उपमा है।
वह उपमा दो प्रकार की है-
🔥सा पूर्णा लुप्ता च ॥४॥
वह पूर्णा तथा लुप्ता दो प्रकार की है।
पूर्णा का लक्षण-
🔥गुणद्योतकोपमानोपमेयशब्दानां सामग्ये पूर्णा ॥५॥
जिसमें उपमान, उपमेय, उपमावाचक शब्द तथा गुणद्योतक शब्द-ये सारे विद्यमान हों, वह पूर्ण-उपमा है
जैसे -
कमलमिव मुखं मनोज्ञमिति' मुख कमल की भाँति सुन्दर है।
इस वाक्य में -
▪️कमल-उपमान-जिससे उपमा दी जावे।
▪️मुख–उपमेय-जिसको उपमा दी जावे।
▪️मनोज्ञ-साधारणधर्म, समान गुण जो दोनों में मिलता हो।
▪️इव-उपमा-वचक शब्द, जिनसे समानता बताई जावे।
यहाँ उपमा के चारों अङ्ग विद्यमान हैं, अतः यहाँ पूर्ण उपमा है।
🔥लोपे लुप्ता॥६॥ -काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति ९ । १-६
जिसमें किसी अङ्ग का लोप हो जावे वह लुप्त-उपमा है,
जैसे-
▪️ ‘शशीव राजा' 'चाँद-जैसा राजा' इसमें साधारणधर्म, जो गुण दोनों में मिलता है, जिसके कारण राजा को चाँद-जैसा कह गया है, वह लुप्त है, अतः इसका नाम 'धर्मलुप्तोपमा' है।
▪️ 'दूर्वा श्यामेयम्'-'यह स्त्री काली दूब है' यहाँ पर उपमावाचक शब्द का लोप है, जो समानता का वर्णन करता है, अतः इसका नाम 'वाचकलुप्तोपमा' है।
▪️ 'शशिमुखी' ‘चन्द्रमुखी'-यहाँ पर साधारणधर्म और उपमावाचक शब्द दोनों का लोप है, इसको ‘वाचकधर्मलुप्तोपमा' कहते हैं।
हम इसके कुछ उदाहरण देते हैं-
🔥सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालन्दनः।
पार्थों वत्सः सुधीभॊक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।
भाषार्थ-सब उपनिषद् गौवें हैं, दोहनेवाले कृष्ण हैं, पीनेवाला बुद्धिमान् अर्जुन बछड़ा तथा महान् अमृत गीता दूध है।
यहाँ पर उपनिषदों को गौवों की, कृष्णा को दोहनेवाले की, अर्जुन को बछड़े की तथा गीता को दूध की उपमा दी गई है। यहाँ उपमावाची शब्दों तथा साधारणधर्म का लोप है, अतः यहाँ पर 'वाचकधर्मलुप्तोपमा' है।
यहाँ पर गीता को दूध की उपमा ही दी गई है, वास्तव में गीता दूध नहीं है। यदि कोई आदमी इस श्लोक को ठीक रूप से न समझकर गीता को कटोरे में डालकर किसी को कहे कि लीजिए, दुग्धपान कीजिए तो सब लोग उसे मूर्ख ही कहेंगे, बुद्धिमान् नहीं।
🔥आत्मानदी संयमपुण्यतीर्था सत्योदका शीलतटा दयोर्मिः।
तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा ॥
भाषार्थ-आत्मा नदी है, संयमरूपी पवित्र तीर्थवाली, सत्य जलवाली, शील तट तथा दया लहरोंवाली है। हे युधिष्ठिर! उसमें स्नान कर, जल से आत्मा शुद्ध नहीं होता।
इस श्लोक में आत्मा को नदी की उपमा देकर तरंगों को भी उपमा दी गई है, किन्तु आत्मा वास्तव में नदी नहीं है।
🔥प्रणव धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥
भाषार्थ-प्रणव धनुष है, यह आत्मा तीर है, ब्रह्म उसका लक्ष्य है, सावधानी से लक्ष्य को वेधना चाहिए, तीर की भाँति तन्मय हो जावे॥
यहाँ आत्मा को तीर की उपमा दी गई है, परन्तु वास्तव में आत्मा तीर नहीं है।
🔥आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयान् तेषु गोचरान्।
आत्मबुद्धिमनोयुक्तः कर्तेति उच्यते बुधैः ।।
भाषार्थ-आत्मा को सवार जान, शरीर को रथ समझ, बुद्धि को सारथि जान, मन को लगाम समझ। इन्द्रियों को घोड़े और विषयों को उनकी खुराक कहते हैं। बुद्धि और मन से युक्त आत्मा को बुद्धिमान् लोग कर्ता कहते हैं।
यहाँ आत्मा को रथी की उपमा देकर तत्सम्बन्धी वस्तुओं की भी उपमा दी है, किन्तु वास्तव में आत्मा रथी नहीं है।
इन सब स्थलों में 'वाचकधर्मलुप्तोपमा' अलंकार हैं, जिनमें उपमावाची शब्द तथा साधारण धर्म का लोप है। इसी प्रकार के अलंकार वेदों में भी हैं, जैसे-
अजो वा इदमग्रे व्यक्रमत तस्योर इयमभवद् द्यौः पृष्ठम्।
अन्तरिक्षं मध्यं दिशः पाश्र्वे समुद्रौ कुक्षी ॥२०॥
भाषार्थ-यह बकरा आगे आया, इसकी छाती यह पृथिवी, द्यौः पीठ, आकाश पेट, दिशाएँ पाश्र्व=पसवाड़े, समुद्र बगलें, ज्ञान तथा सत्य दोनों आँखें और सम्पूर्ण सत्य और श्रद्धा प्राण तथा ब्राह्मण सिर है, वह यह अपरिमित यज्ञ है, जिसको पञ्चौदन अज कहते हैं।
इस मन्त्र में परमात्मा को अज अर्थात् बकरे की उपमा देकर उसके अङ्गों की भी कल्पना करके परमात्मा का वर्णन किया गया है। परमात्मा वास्तव में बकरा नहीं है।
बस, इसी प्रकार 'यत्पुरुषं व्यदधुः' इस मन्त्र में परमात्मा को पुरुष की उपमा देकर पूछा है कि उसके मुख, बाहू, ऊरू तथा पाँव कौन हैं। इसका ही उत्तर अगले मन्त्र में ‘ब्राह्मणोऽस्य' दिया गया है कि 'ब्राह्मण उसका मुख हैं, भुजा क्षत्रिय, ऊरू वैश्य हैं और पाँव शूद्र' ।।
वेदों तथा मनुस्मृति में उस निराकार पुरुष (ब्रह्म) के अंगो की कल्पना करके उससे वर्णो की अलंकारिक तुलना की गयी है वहां कही भी वर्णस्थ व्यक्तियों की उत्पत्ति का वर्णन नहीं। वहां यह बतलाया गया है कि किस अंग की समानता के आधार पर किस वर्ण की कल्पना की गई अर्थात् किस वर्ण का कैसे नामकरण किया गया। ऋग्वेद में एक प्रश्न पर इसका उल्लेख हुवा है .
प्रश्न- यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्य, कौ बाहू, का ऊरू पादौ उच्येते ॥
-(ऋग्वेद 10.90.11)
अर्थात- जिसको ‘पुरुष’ कहते हैं, उसकी अथवा समाजरूपी पुरुष की किस प्रतीक के रूप में कल्पना की गयी? वह कल्पना कितने प्रकार से की गयी? इस समाज या पुरुष का मुख क्या है? भुजाएं क्या हैं? जंघाएं अर्थात् मध्यमार्ग और पैर क्या कहे जाते हैं?
उत्तर- ब्राह्मणो-अस्य मुाम् आसीद् बाहू राजन्यःकृतः।
ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्यां शूद्रो अजायत ॥
-(ऋग्वेद 10.90.12)
अर्थात- इस पुरुष का, अथवा समाजरूपी पुरुष का ब्राह्मण नामक वर्ण के मुखमण्डल के गुणों के आधार पर प्रथम वर्ण का ‘ब्राह्मण वर्ण’ नाम रखा गया , भुजा ‘क्षत्रिय वर्ण’ को बनाया गया अर्थात् भुजाओं के गुणों के अनुसार ‘राजन्य=क्षत्रिय वर्ण’ नाम रखा गया जो ‘वैश्य वर्ण’ है, वह इसका मध्यभाग या जंघा रूप कहा गया अर्थात् पेट आदि मध्यभाग के गुणों के अनुसार ‘वैश्य वर्ण’ नाम रखा गया ‘शूद्रवर्ण’ पैरों की तुलना से निर्मित हुआ अर्थात् पैरों के गुणों के अनुसार ‘शूद्रवर्ण’ का नाम रखा गया।
उत्पत्ति सबन्धी मन्त्रों और श्लोकों की व्याया में अनेक व्यायाकार भ्रमित होकर ब्राह्मण, शूद्र आदि व्यक्तियों की उत्पत्ति वर्णित करते हैं, जो वर्णव्यवस्था के मूल सिद्धान्त के ही विरुद्ध है।
🌟 वेदों के अलावा अन्य वैदिक ग्रंथो में अलग अलग वर्णो के अलंकारिक उत्पत्ति करके उसकी तुलना की गयी है
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【 वर्ण के साथ अन्य पदार्थों की भी आलंकारिक उत्पत्ति का वर्णन】
‘‘एकविंश स्तोम, अनुष्टुप् छन्द,
वैराज साम, शूद्र, पशुओं में अश्व।
तस्मात् पादौ उपजीवतः।
पत्तो हि असृज्येताम्।’’
(तैत्तिरीय संहिता 7. 1. 1 .4)
अर्थात- शूद्र , अश्व के साथ ऋग्वेद और सामवेद आदि धर्मग्रन्थों के मन्त्रों की उत्पत्ति भी पैरों से है, क्योंकि अश्व तेज धावक है, अतः तेज चलने की विशेषता के कारण उसकी उत्पत्ति पैर से है। सेवा-टहल का कार्य पैरों पर आधारित होने के कारण शूद्र की तुलना भी चलने वाले अंग ‘पैर’ से है।
इसमें कहीं भी हीनता या घृणा की भावना नहीं है। ध्यान दीजिये, शूद्र यहां वेदमन्त्रों के समकक्ष है। क्या यह हीनताबोधक सकती है?अश्व क्या हीन पशु है?वैदिक ग्रंथो में अलंकारिक उत्पत्ति के द्वारा किसी बात को समझाना बहुत सामान्य बात है .
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【 दिशाओं और भूमि की भी अलंकारिक उत्पत्ति 】
‘‘पद्यां भूमिः दिशः श्रोत्रात्’’
- (ऋग्वेद 10.90.14)
अर्थ-पैरों से भूमि और कानों से दिशाएं उत्पन्न हुई।’
यहां गुणों की समानता से आलंकारिक वर्णन है। क्या, इसमें कहीं हीनता दिखायी पड़ती है?
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【 पूषा की शूद्र से तुलना तथा अलंकारिक उत्पत्ति 】
स नैव व्यभवत् स शौद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं वै पूषेय हीद सर्वं पुष्यति यदिदं किंच॥
(बृहदारण्यक उपनिषद् 1:4:13)
‘‘सः शौद्रं वर्णमसृजत्, पूषणमियं वै पूषा इयं हीदं
सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च।’’
-(शतपथ ब्राह्मण 14. 4. 2 .25)
अर्थात्-उस ब्रह्म-पुरुष ने शूद्रसबन्धी वर्ण को उत्पन्न किया। देवों में पूषा देव को शूद्र के रूप में उत्पन्न किया, क्योंकि वह सबको पालन-पोषण करके पुष्ट करता है।
क्या यहां कहीं हीनभावना दिखाई पड़ती है? शूद्र यहां एक वैदिक देव के समकक्ष है। क्योंकि यह उत्पत्ति गुणाधारित तुलना से है, अतः उस देव को ‘शूद्रवर्ण’ बताया है। गुणों में समानता यह है कि पूषा देव (पृथ्वी का पोषक) रूपसब पदार्थों को पुष्ट करता है और शूद्र भी अपने श्रम-सेवा से सबको पुष्ट करता है, अतः गुण-कर्म-साय से दोनों शूद्र वर्णस्थ हैं।
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【 वेदों से तीन वर्णों की अलंकारिक उत्पत्ति 】
सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्, ऋग्यो जातं वैश्यवर्णमाहुः।
यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुः योनिम्, सामवेदोब्राह्मणानां प्रसूतिः॥
(तैत्तिरीय ब्राह्मण 3. 12. 9 .2)
अर्थात्-सब मनुष्य ब्रह्म की ही सन्तान हैं। ऋग्वेद से वैश्यवर्ण की उत्पत्ति हुई। यजुर्वेद से क्षत्रिय वर्ण की उत्पत्ति हुई। सामवेद से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई है।
🍁 एक अन्य उत्पत्ति का आलंकारिक वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। वहां मंत्र ‘भूः’ से ब्राह्मणवर्ण की, ‘भुवः’ से क्षत्रियवर्ण की और ‘स्वः’ से वैश्यवर्ण की उत्पत्ति कही है। (शतपथ ब्राह्मण 2 .1 .4. 11)
इन प्रमाणों को दर्शाने का अभिप्राय यही है कि केवल एक उत्पत्ति प्रकार को लेकर कोई आग्रह नहीं बनाना चाहिए। ये केवल आलंकारिक वर्णन हैं। उसी संदर्भ में उनको देखना चाहिए।
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【 सभी मनुष्य ईश्वर की संतान है 】
सबसे पहले स्वायंभुव मनु , उसके बाद में क्रमश: स्वारोचिष, औत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मासावर्णि, धर्मसावर्णि, रूद्रसावर्णि, देवसावर्णि और इन्द्रसावर्णि। वर्तमान में जो मनुस्मृति अस्तित्व में है उसे 14वें मनु इन्द्रसावर्णि के मार्गदर्शन में सूत्रबद्ध किया गया था। लेकिन कालांतकर में इसमें परिवर्तन मिलावट होते रहे। लेकिन अब सवाल यहाँ ये उठता है की जब मनु ने कर्मो के अनुसार वर्णों का विभाजन किया उससे पहले या उस वक़्त जो मनुष्य थे वो किस वर्ण के थे इसका जवाब हमें प्राचीन वैदिक ग्रंथों में मिलता है
🍁 बृहदारण्यक उपनिषद् में यह स्पष्ट किया है कि सभी वर्ण ब्राह्मणवर्ण से ही निष्पन्न हैं-
‘‘ब्रह्म वा इदमासीदेकमेव, तदेकं सन् न व्यभवत्। तत् श्रेयोरूपमत्यसृजत् क्षत्रम्,…..सः नैव व्यभवत्, स विशमसृजत्, ……सः नैव व्यभवत्, सः शौद्रं वर्णमसृजत्।’’
( बृहदारण्यक उपनिषद्-1: 4 :11-13)
अर्थात्-‘ब्राह्मण वर्ण ही आरभ में अकेला था। अकेला होने के कारण उससे समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यकता पड़ने पर ब्राह्मण वर्ण में से तेजस्वी वर्ण क्षत्रियवर्ण का निर्माण किया गया। उससे भी समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यक जानकर उस ब्राह्मणवर्ण में से वैश्यवर्ण का निर्माण किया। उससे भी समाज की पूर्ण समृद्धि नहीं हुई। तब उस ब्राह्मणवर्ण में से शूद्रवर्ण का निर्माण किया। इन चार वर्णों से समाज में पूर्ण समृद्धि हुई।’
🍁 महाभारत में भी इसकी पुष्टि करते हुए कहा है-
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।
ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्॥
(महाभारत- शान्तिपर्व 188.11)
अर्थात्-सारा मनुष्य-जगत् एक ब्रह्म की सन्तान है। वर्णों में कोई भेद नहीं है। ब्रह्मा के द्वारा रचा गया यह सारा संसार पहले सम्पूर्णतः ब्राह्मण ही था। मनुष्यों के कर्मों द्वारा यह वर्णों में विभक्त हुआ।
यह है असली वैदिक वर्णव्यवस्था! इसमें न व्यक्ति में भेदभाव है, न वर्णों में। मौलिक मनुस्मृति में यही भावना निहित थी। परवर्ती लोगों ने स्वार्थवश प्रक्षेप करके उस भावना को कहीं-कहीं क्षत-विक्षत कर दिया। उस क्षत-विक्षत व्यवस्था को मनुकालीन व्यवस्था नहीं कहना चाहिए।
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