वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं हैं। इतनी विरोधी हैं कि एक की उपस्थिति में दूसरी व्यवस्था का अस्तित्व नहीं रहता। इनके विभाजक मूलभूत अन्तर इस प्रकार हैं-
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【 वर्ण शब्द की परिभाषा 】
वर्ण शब्द "वृञ" धातु से बनता है जिसका मतलब है चयन या वरण करना है ।
यास्क ने निरुक्त में कहा है कि ‘‘वर्णो वृणोतेः’’ (निरुक्त 2 : 3)
अर्थात् - वर्ण उसे कहते हैं जो वरण अर्थात् चुना जाये .
वर्ण शब्द के अर्थ से ही स्पष्ट है कि यहाँ व्यक्ति को स्वतन्त्रता थी कि वह किस वर्ण को चुनना चाहता है।
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【 जाती शब्द की परिभाषा 】
जाति शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की “जनि” धातु से हुई है।
दर्शन शास्त्र में वर्णित है-
आकृतिर्जातिलिङ्गाख्या- (न्याय दर्शन 2:2:65)
अर्थात् - जिन व्यक्तियों कि आकृति (इन्द्रियादि) एक समान है,उन सबकी एक जाति है।
समानप्रसवात्मिका जातिः (न्याय दर्शन 2:2:19)
इस पर भी वात्स्यायन मुनि भाष्य में कहते हैं-
या समानां बुद्धिम प्रसूते भिन्नेष्वधिकरणेषु,यया बहूनीतरेतरतो न व्यावर्तन्ते, योऽर्थोऽनेकत्र प्रत्ययानुवृत्तिनिमित्तं तत् सामान्यम् । यच्च केषाघिद भेदं कुतश्चिद्भेदं करोति तत् सामान्य विषा जातिरिति ।”
अर्थात् भिन्न-भिन्न वस्तुओं में समानता उत्पन्न करने वाली जाति है। इस जाति के आधार पर अनेक वस्तुएँ आपस में पृथक् पृथक' नहीं होतीं अर्थात् - एक ही नाम से बोली जाती हैं। जैसे गौएँ पृथक् कितनी भी हो तो भी सबको गौ कहते हैं। यह एकता जाति के कारण ही उत्पन्न हुई जाति भी दो प्रकार की होती है-एक सामान्य दूसरी सामान्य-विशेष जो अनेक वस्तुओं में एक आकार की प्रतीत होती है वह सामान्य जाति है, जैसे पशु जाति सामान्य है।
निरालंबोपनिषद में वर्णन मिलता है:-
जातिरिति च न चर्मणो न रक्तस्य न मांसस्य न चास्थिनः।
न जातिरात्मनो जातिर्व्यवहारप्रकल्पिता॥ - (नीरालम्बोपनिषद-10)
अर्थात - जाति (शरीर के) चर्म, रक्त, मांस, अस्थियों और आत्मा की नहीं होती। उसकी (मानव, पशु-पक्षी आदि जाति की) प्रकल्पना तो केवल व्यवहार के निमित्त की गई है ।
जाति (अंग्रेज़ी: species, स्पीशीज़) जीवों के जीव-वैज्ञानिक वर्गीकरण में सबसे बुनियादी और निचली श्रेणी होती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ऐसे जीवों के समूह को एक जाति बुलाया जाता है जो एक दुसरे के साथ सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता रखते हो और जिनकी सन्तान स्वयं आगे सन्तान जनने की क्षमता रखती हो। उदाहरण के लिए एक भेड़िया और शेर आपस में बच्चा पैदा नहीं कर सकते इसलिए वे अलग जातियों के माने जाते हैं।
जैन महापुराण में वर्णन मिलता है:-
वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्नप्यदर्शनात् ।
ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गर्भाधानप्रदर्शनात् ।491।
नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् ।
आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते ।492।
(महापुराण 74 : 491-495)
अर्थात - मनुष्यों के शरीरों में न तो कोई आकृति का भेद है और न ही गाय और घोड़े के समान उनमें कोई जाति भेद है, क्योंकि ब्राह्मणी आदि में शूद्र आदि के द्वारा गर्भ धारण किया जाना देखा जाता है । आकृतिका भेद न होने से भी उनमें जाति भेद की कल्पना करना अन्यथा है ।
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1- वर्णव्यवस्था में बालक-बालिका या व्यक्ति किसी भी कुल में उत्पन्न होने के पश्चात् अपनी रुचियों, गुण, कर्म, योग्यता के अनुसार किसी भी इच्छित वर्ण को ग्रहण कर सकता है, जबकि जातिव्यवस्था में जाति का माता-पिता से निर्धारण होने के कारण व्यक्ति किसी अन्य इच्छित जाति को ग्रहण नहीं कर सकता।
2- वर्णव्यवस्था में वर्णों के निर्धारक तत्त्व गुण, कर्म, योग्यता होते हैं, जबकि जातिव्यवस्था में केवल जन्म ही जाति का निर्धारक तत्त्व होता है। वर्णव्यवस्था में जन्म का कोई महत्त्व नहीं होता, जबकि जातिव्यवस्था में जन्म का सर्वोच्च महत्त्व होता है।
3-वर्णव्यवस्था में पद और व्यवसाय वंशानुगत होने अनिवार्य नहीं हैं, जबकि जातिव्यवस्था में ये अनिवार्य होते हैं।
4- वर्णव्यवस्था में व्यक्ति की बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक क्षमताओं के विकास का स्वतन्त्र व खुला अवसर रहता है, जबकि जातिव्यवस्था में वह अवरुद्ध रहता है।
5-वर्णव्यवस्था में असमानता के आधार पर ऊंच-नीच, स्पृश्य-अस्पृश्य आदि का भेदभाव नहीं होता, जबकि जातिव्यवस्था में इनका अस्तित्व उग्र या शिथिल रूप में अवश्य बना रहता है।
6-वर्णव्यवस्था में जीवनभर वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता बनी रहती है, जबकि जातिव्यवस्था में जहां एक बार जन्म हो गया, जीवनपर्यन्त अनिवार्य रूप से उसी जाति में रहना पड़ता है।
7-वर्णव्यवस्था में व्यक्ति निर्धारित कर्मों के न करने पर या उनके त्यागने पर वर्ण से अनिवार्यतः पतित हो जाता है, जबकि जातिव्यवस्था में अच्छा-बुरा कुछ भी करने पर उसी जाति का बना रहता है। जैसे-वर्णव्यवस्था में अनपढ़, मूढ़, चोर या डाकू को कभी ब्राह्मण वर्णस्थ नहीं माना जा सकता, जबकि जातिव्यवस्था में अनपढ, मूढ़, चोर या डाकू भी ब्राह्मण ही रहता है और वह उस पतित स्थिति में भी उच्च जातीयता का अभिमान रखता है।
8 - वर्णव्यवस्था में सवर्ण विवाह की प्राथमिकता होते हुए भी समान गुण-कर्म-योग्यता की कन्या से अन्य वर्ण में भी विवाह किया जा सकता है। मनु का कथन है-‘‘स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि’’ (2.238, 240)= ‘श्रेष्ठ स्त्री निनकुल से भी ग्रहण की जा सकती है।’ इस प्रकार वर्णव्यवस्था में अन्तर-वर्ण विवाह (अन्तर-जातीय विवाह) और सहभोज स्वीकार्य होते हैं। जातिव्यवस्था में ये दोनों ही स्वीकार्य नहीं होते।
वर्णव्यवस्था स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक तथा स्वैच्छिक है, जबकि जातिव्यवस्था अस्वाभाविक, अमनोवैज्ञानिक और बलात् आरोपित है।
9-वर्णव्यवस्था का व्यावहारिक क्षेत्र उदार एवं विस्तृत है, जबकि जातिव्यवस्था का संकीर्ण एवं सीमित।
10-वर्णव्यवस्था समाज और राष्ट्र में सामुदायिक भावना एवं समरसता उत्पन्न कर दृढ़ता प्रदान करती है, जबकि जातिव्यवस्था विघटन पर विघटन पैदा करती है। जातिव्यवस्था का विघटन असीम है।
11-वर्णव्यवस्था में शरीर, बुद्धि, मन का सामञ्जस्य बना रहता है, जबकि जातिव्यवस्था में इनका सामञ्जस्य होना सदा संभव नहीं होता।
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