वैष्णव धर्म और वर्ण व्यवस्था




आरम्भ में सभी एक ही वर्ण के थे

आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृत: ।
कृतकृत्या: प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदु: ॥ १० ॥
(श्रीमद भागवतम 11.17.10)
अर्थात -श्रीकृष्ण ने कहा -प्रारंभ में, सत्य-युग में, केवल एक सामाजिक वर्ग था , एक ही वर्ण था जिसे हंस कहा जाता था, जिससे सभी मनुष्य संबंधित हैं। उस युग में सभी लोग  भगवान के अनन्य भक्त होते थे, और इस प्रकार विद्वान इस प्रथम युग को कृतयुग कहते हैं, या वह युग जिसमें सभी धार्मिक कर्तव्य पूरी तरह से पूरे होते हैं।

एक एव पुरा वेद: प्रणव: सर्ववाङ्‌मय: ।
देवो नारायणो नान्य एकोऽग्निर्वर्ण एव च ॥ ४८ ॥
(श्रीमद भागवतम -9: 14: 48 )
अर्थात -”पहले सर्व वांग्मय प्रणव (ओंकार) ही एक मात्र वेद था। एकमात्र देवता सर्वव्यापी नारायण  थे और कोई नहीं। एक मात्र लौकिक अग्नि ही अग्नि थी और एकमात्र हंस ही एक वर्ण था।


1 वर्ण से 4 वर्णों में कर्मानुसार विभाजन

न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।
ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्॥
(महाभारत- शान्तिपर्व 188.10)
अर्थात्-सारा मनुष्य-जगत् एक ब्रह्म की सन्तान है।  वर्णों में कोई भेद नहीं है। ब्रह्मा के द्वारा रचा गया यह सारा संसार पहले सम्पूर्णतः ब्राह्मण ही था। मनुष्यों के कर्मों द्वारा यह वर्णों में विभक्त हुआ। 

विप्रक्षत्रियविट्‍शूद्रा मुखबाहूरुपादजा: ।
वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणा: ॥ १३ ॥
(श्रीमद भागवतम -11.17.13)
अर्थात -श्रीकृष्ण ने कहा -ब्राह्मण नामक वर्ण के मुखमण्डल के गुणों के आधार पर प्रथम वर्ण का ‘ब्राह्मण वर्ण’ नाम रखा गया , भुजा ‘क्षत्रिय वर्ण’ को बनाया गया अर्थात् भुजाओं के गुणों के अनुसार ‘राजन्य=क्षत्रिय वर्ण’ नाम रखा गया जो ‘वैश्य वर्ण’ है, वह इसका मध्यभाग या जंघा रूप कहा गया अर्थात् पेट आदि मध्यभाग के गुणों के अनुसार ‘वैश्य वर्ण’ नाम रखा गया ‘शूद्रवर्ण’ पैरों की तुलना से निर्मित हुआ  । प्रत्येक सामाजिक विभाजन को उसके विशेष कर्तव्यों और व्यवहार और लक्षणों के अनुसार पहचाना गया।

चारो वर्णों को जो हंश नाम के वर्ण से निकले उनको गुणों और कर्मो के अनुसार विभाजित किया गया इसकी पुष्टि भगवद गीता भी करती है -

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।
(श्रीमद भगवद गीता 18:41)
अर्थात -हे परंतप ब्राह्मण? क्षत्रिय? वैश्य और शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए तीनों गुणों के द्वारा विभक्त किये गये हैं।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ।।13।।
(श्रीमद भगवद गीता 4:13)
अर्थात -ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान ।


चारो वर्णों के कर्तव्य

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।
 (श्रीमद भगवद् गीता -18:42)
अर्थात -मनका निग्रह करना इन्द्रियों को वशमें करना; धर्मपालन के लिये कष्ट सहना; बाहर-भीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराध को क्षमा करना; शरीर, मन आदिमें सरलता रखना; वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना; यज्ञविधि को अनुभव में लाना; और परमात्मा, वेद आदि में आस्तिक भाव रखना -- ये सब-के-सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।। 
(श्रीमद भगवद् गीता -18:43)
अर्थात -शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता, युद्ध में कभी पीठ न दिखाना, दान करना और शासन करने का भाव -- ये सबके सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।
 (श्रीमद भगवद् गीता -18:44)
अर्थात - कृषि, गौपालन तथा वाणिज्य - ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं, और शूद्र का स्वाभाविक कर्म है परिचर्या अर्थात् नौकरी करना।।

भेदभाव रहित , दयालु रहना ही मनुष्यता


तप्यन्ते लोकतापेन साधवः प्रायशो जनाः ।
परमाराधनं तद्धि पुरुषस्याखिलात्मनः ॥४४॥
(श्रीमद भागवतम -8.7.44)
अर्थात -सज्जन पुरुष दूसरों को दुखी देखकर स्वयं दयार्द्र हो जाते हैं। इस संसार के समस्त प्राणियों की सेवा ही उनका परम आराधन होता है। 

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।। 
(श्रीमद भगवद् गीता - 5 :18)
अर्थात  - ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते हैं।

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी ॥13
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय: ।
मय्यार्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ॥14
 (श्रीमद भगवद् गीता -12:13-14)
अर्थात  - मेरे लिए वे भक्त प्रिय हैं जो सभी जीवों के प्रति भेदभाव नहीं करते है , जो मित्रवत हैं, और दयालु हैं। वे सम्पत्ति और अहंकार के प्रति आसक्ति से मुक्त होते हैं, सुख-दुःख में समान , क्षमाशील , सन्तुष्ट हैं। वे  आत्म-नियंत्रित में दृढ़ है और मन और बुद्धि में मेरे लिए समर्पित हैं।

परमेश्वर प्रत्येक प्राणी में है

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन |
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ||
(श्रीमद भगवद् गीता 10:39)
अर्थात  - हे अर्जुन ! मैं  सम्पूर्ण प्राणियों का उत्पत्ति का बीज हूँ, क्योंकि चर और अचर कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है, जो मुझसे रहित हो ।

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित: |
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च || 
(श्रीमद भगवद् गीता 10:20)
अर्थात  - हे अर्जुन, मैं सभी जीवों के हृदय में विराजमान हूं। मैं सभी प्राणियों का आरंभ, मध्य और अंत हूँ।


जात पात न पूछो भक्त की 

अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान्य ज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।
तेपुस्तपस्ते जुहुवु: सस्‍नुरार्या ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥ ७ ॥ 
(श्रीमद भागवतम - 3:33:7)

अर्थात -‘अहो! वह चाण्डाल भी सर्वश्रेष्ठ है, जिसकी जीभ के अग्रभाग पर आपका नाम विराजता है। जो श्रेष्ठ पुरुष आपका नाम उच्चारण करते हैं, उन्होंने तप, हवन, तीर्थस्नान, सदाचार का पालन और वेदाध्ययन- सब कुछ कर लिया।’

विप्राद् द्विषड्‌गुणयुतादरविन्दनाभ पादारविन्दविमुखात् श्वपचं वरिष्ठम् ।
मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थ प्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरिमान: ॥ १० ॥
(श्रीमद भागवतम -7.9.10)
अर्थात -यदि एक ब्राह्मण में सभी बारह गुणों से युक्त  हैं [जैसा कि सनत-सुजाता नामक पुस्तक में कहा गया है] लेकिन वह भक्त नहीं है और भगवान के चरण कमलों से विमुख है, तो उससे निश्चित रूप से एक चाण्डाल श्रेष्ठ है जो सब कुछ - मन, शब्द, कार्य, धन और जीवन - सर्वोच्च भगवान को समर्पित कर दिया है। ऐसा भक्त ऐसे ब्राह्मण से बेहतर है क्योंकि भक्त अपने पूरे परिवार को शुद्ध कर सकता है, जबकि तथाकथित ब्राह्मण झूठी प्रतिष्ठा की स्थिति और बड़प्पन का अभिमान रखने वाला खुद को भी शुद्ध नहीं कर सकता है।

 चाण्डालोऽपि सुनेः श्रेष्ठो विष्णुभक्तिपरायणः।
 विष्णुभक्तिविहीनस्तु द्विजोऽपि श्वपचोऽधमः ।।
 (पद्मपुराण)
अर्थात -‘हरिभक्ति में लीन रहने वाला चाण्डाल भी मुनि से श्रेष्ठ है, और हरिभक्ति से रहित ब्राह्मण चाण्डाल से भी अधम है।’

अवैष्णवाद् द्विजाद् विप्र चाण्डालो वैष्णवो वरः। 
सगणः श्वपचो मुक्तो ब्राह्मणो नरकं ब्रजेत् ।। 
(ब्रह्मवैवर्त पुराण:ब्रह्माखंड- 11:39)
अर्थात -‘अवैष्णव ब्राह्मण से वैष्णव चाण्डाल श्रेष्ठ है; क्योकि वह वैष्णव चाण्डाल अपने बन्धुगणों सहित भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है और वह अवैष्णव ब्राह्मण नरक में पड़ता है।’

अपार्थकं प्रभाषन्तः शूद्रा भागवता इति।
न शूद्रा भगवद्भक्ता विप्रा भागवताः स्मृताः।।
 (महाभारत आश्वमेधिकपर्व 118 : 32)
अर्थात -‘यदि भगवद्भक्त शूद्र है तो वह शूद्र नहीं, परमश्रेष्ठ ब्राह्मण है। वास्तव में सभी वर्णों में शूद्र वह है, जो भगवान की भक्ति से रहित है।’

शूद्रं वा भगवद्भक्तं निषादं श्वपचं तथा ।
द्विजजाति समंमन्यो न याति नरकं नरः ॥ 
(गरुडपुराण 1:230:49)
अर्थात -जो व्यक्ति शूद्रों, निषादों या चण्डालों के परिवार में उत्पन्न भगवान के भक्तों को द्विज सामान नहीं मानता वो निश्चित ही नरक जाता है

शूद्रं वा भगवद्भक्तं निषादं श्वपचं तथा ।
 वीक्षते जातिसामान्यात् स याति नरकं ध्रुवम् ॥ 
 (हरिभक्ति विलास 10:119)
अर्थात - जो व्यक्ति शूद्रों, निषादों या चण्डालों के परिवार में उत्पन्न भगवान के भक्तों को उस विशेष जाति का मानता है, वह निश्चय ही नरक जाता है।

नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधन क्रियादिभेदः ॥ ७२ ॥
(नारद भक्तिसूत्र 72)
अर्थात - भक्तों में जाति, विद्या, रूप, कुल, धन और क्रियादिका भेद नहीं है।

आनन्योन्यधिक्रियते पारम्पयत् सामान्यवत् ॥ ७८
(शाण्डिल्य भक्तिसूत्र 78)
अर्थात - भक्ति में उच्च जाति से लेकर चाण्डालादि नीच जातितक के मनुष्यों का समान रूप से अधिकार है। ठीक उसी तरह जैसे अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि सामान्य धर्मो के ज्ञान और अनुष्ठान में सबका समान अधिकार है गुरु तथा शास्त्रोंके उपदेश को परम्परा से यही बात सिद्ध होती है।

उर्ध्वपुण्ड्रमृजुं सौम्यं सचिह्नं धारयेद्यदि । 
स चण्डालोऽपि शुद्धात्मा पूज्य एव सदा द्विजैः ॥
(पद्मपुराण पाद्मोत्तरखण्ड 39 अध्याय)
अर्थात - चाण्डाल कुल में उत्पन्न व्यक्ति भी यदि ( एकादश अङ्गोंमें) तिलक चिह्न के साथ ललाट में सरल और सुन्दर ऊर्द्ध्वपुण्ड्र धारण करते हैं, तो वे भी शुद्धात्मा एवं ब्राह्मणों के द्वारा निश्चय ही सर्वदा पूज्य हैं ।


सकृत् प्रणामी कृष्णस्य मातुः स्तन्यं पिबेत्र हि । 
हरिपादे मनो येषां तेभ्यो नित्यं नमो नमः ॥ 
पुक्कसः श्वपचो वापि ये चान्ये म्लेच्छजातयः ।
तेऽपि वन्द्या महाभागा हरिपादैकसेवकाः।।
(पद्मपुराण-स्वर्गखण्ड 24 अध्याय)
 अर्थात - जिन्होंने एक बार भी श्रीकृष्ण को सब प्रकार के अहङ्कारों का परित्याग कर प्रणाम किया है उसको पुनः मातृ स्तन पान करने की जरूरत नहीं है। अधम चाण्डाल, कुक्कुरभोजी चाण्डाल यहाँ तक कि म्लेच्छ जातियाँ भी यदि एकान्त भाव से हरिपादपद्मों में शरण ग्रहणकर सेवा करती हैं, तो वे भी महाभाग और पूजा के योग्य हैं ।


म्लेच्छकुल में उत्पन्न वैष्णव को सर्वश्रेष्ठ 'ब्राह्मण गुरु रूप में निर्देश -
आचार्य कहेन, - तुमि ना वासिह भय ।
सेइ आचरिब जेइ शास्त्रमत हय ॥ 
तुमि खाइले हय कोटि-ब्राह्मण भोजन । 
एत बलि' श्राद्धपात्र कराइल भोजन ॥  
( चैतन्य चरितामृत  3:219-220) 
अर्थात - श्रीअद्वैताचार्य जी ने श्रीहरिदास ठाकुर को कहा- आप भयभीत न हों मैं वही करूँगा जो शास्त्र कहते हैं। आपको भोजन कराने से करोड़ों-करोड़ों ब्राह्मणों को भोजन कराना हो जायेगा। ऐसा कहकर उन्होंने श्रीहरिदास ठाकुर को भगवत् निवेदित उत्तम श्राद्ध- पात्र प्रदान किया और उन्हें भोजन कराया ॥



वैष्णव परम संहिता में शूद्रों के अधिकार

न मन्त्रोच्चारणा दोषः कर्मयोगस्य सम्मतः ।
तीव्रभक्तो भवे द्य स्तु विद्या धर्मरतः शुचिः॥
(परम संहिता 17:16)
अर्थात - शूद्र (अशिक्षित) उसके श्रवण में मन्त्र जपने में कोई पाप नहीं है और न ही उसके द्वारा किए गए कर्म-योग का कोई दोष है। यदि कोई शूद्र उत्साही भक्त है, जो सीखने और अच्छे आचरण के लिए उत्सुक है, और शुद्ध है, भले ही वह शूद्र हो, उसे हर चीज में भाग लेने की अनुमति देता है, बशर्ते वह गलती करने के लिए उत्तरदायी न हो।


शूद्रंतु तन्त्रजैमन्त्रै दासन्तं नामच स्मृतम् ।
उपवीतं च वस्त्रं च गुणमन्त्रेण योजयेत् ॥
(परम संहिता 17:14)
अर्थात - शूद्रों के लिए मंत्रों का प्रयोग तंत्रों में निर्धारित मंत्रों का होना चाहिए, और उन्हें दास से समाप्त होने वाले नाम दें (जैसे माधवदास , रामदास बृजदास आदि जैसा की आज वैष्णव पुजारी अपने नाम में लगाते है)। उन्हें पवित्र धागा जनेऊ (उपनयन) ऊपर का कपड़ा और गुण-मंत्र का पाठ दें।

ब्राह्मण का शरीर किस लिए है

‘ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते ।
कृच्छ्राय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च ॥ ४२ ॥
(श्रीमद भागवतम -11:17:42)
अर्थात - ब्राह्मण का यह शरीर विलासिता करने, धन बटोरने या राज्य करने जैसे छोटे कामों के लिए नहीं है। यह तो जीवन में घनघोर तप के लिए और शरीरपात होने पर सच्चिदानन्द की प्राप्ति के लिए है।


अन्य पुराण भी यही मत रखते है

सच्छ्रोत्रियकुले जातो अक्रियो नैव पूजितः । 
असत्क्षेत्रकुले पूज्यो व्यासवैभान्तकौ यथा ॥ 
क्षत्रियाणां कुले जातो विश्वामित्रोऽस्ति मत्समः । 
वेश्यापुत्रो वशिष्ठश्च अन्ये सिद्धा द्विजातयः ।।
यस्य तस्य कुले जातो गुणवानेव तैर्गुणैः ।
(पद्मपुराण - सृष्टिखण्ड-अध्याय 43 ) 
अर्थात - श्रीब्रह्मा जी कहते हैं - सत् श्रोत्रिय कुलमें उत्पन्न सदाचार रहित व्यक्ति कभी भी पूज्य नहीं होता। असत् क्षेत्र और कुलमें आविर्भूत व्यास और वैभान्तक मुनि पूजनीय हैं; क्षत्रिय कुल में उत्पन्न विश्वामित्र भी मेरे समान हैं। वेश्याके यहाँ उत्पन्न वशिष्ठ एवं ब्राह्मण गुणोंसे युक्त अन्य व्यक्ति भी ब्राह्मण कहे जाते हैं। वह किसी भी कुल में जन्म ग्रहण क्यों न करें, गुणवान् अपने गुणों द्वारा ही साक्षात् ब्रह्ममय ब्राह्मण है।


तत्वदर्शन सम्पन्नः समिधशिस्तितः ।
सत्यब्रह्मविदः शान्तः सर्वशास्त्रेषु निष्ठितः ।।
(भविष्य पुराण : ब्राह्मपर्व - 33 श्लोक 2,6)
अर्थात -जो तत्वदर्शी समाधि संपन्न हो और जो ब्रह्म का ज्ञाता हो और सभी शास्त्रों में निष्ठा रखता हो वह ब्राह्मण है ।

यत्र वा तत्र वा वर्ण उत्तमाधममध्यमाः ।
 निवृत्तः पापकर्मेम्यों ब्राह्मण: स विधीयते || 
शूद्रीषपि शीलसम्पन्नह ब्राह्मणादधिको भवेत्‌ ।
 ब्राह्मण विगताचार: शृद्राद्धीनतरों भवेत्‌|| 
(भविष्य पुराण : ब्रह्मपर्व -44 श्लोक 30-31)
अर्थात -तदनुसार जिस किसी वर्ण में उत्तम, मध्यम या अधम कोई भी मनुष्य पाप कर्म न करे वह ब्राह्मण है। क्योंकि अच्छे शीलवाला शुद्र ब्राह्मण से उत्तम बताया गया है और आचार भ्रष्ट ब्राह्मण शुद्र  से भी हीन कहा गया है ।


यद्येका स्फुटमेव जातिरपरा कृत्यात्परं भेदिनी।
 यद्वा व्याहृतिरिकतामधिगता यच्चान्यधर्म ययो ।॥
(भविष्य पुराण : ब्रह्मपर्व - 44 श्लोक 33)
अर्थात -मानव जाति एक ही है किन्तु वर्णो का निर्माण भिन्न भिन्न कर्मो द्वारा किये गया है इसलिए व्यवहार में यह मानव जाति एक है केवल कर्मों में भिन्नता है ।


सामग्रय़नुष्ठनगणौः समग्रः शूद्रायतः सन्ति समाद्विजानाम्। 
तन्माद्विशेषो द्विज शूद्रनाम्नोनाध्यात्मिको बाह्य निमित्त को वा ॥ 
((भविष्य पुराण : ब्रह्मपर्व - 41:29) 
अर्थात -क्योंकि सम्मान्य शूद्र और सम्मान्य ब्राह्मण ये दोनों सामग्री , अनुष्ठान में समान ही हैं, इसलिये ब्राह्मण और शूद्र में बाह्य या आध्यात्मिक कोई भेद नहीं है।

वैष्णव धर्म और वर्ण परिवर्तन


सभी पवित्र हिंदू शास्त्र वर्ण परिवर्तन का पूर्ण समर्थन करते हैं। आलवार , गौड़िया और रामानंदी जैसे वैष्णव (रामानुज को छोड़कर) पूरी तरह से सहमत हैं कि वर्ण को बदला जा सकता है।

🍁यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम् ।
यदन्यत्रापि द‍ृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ॥ ३५ ॥
(श्रीमद भागवतम -7.11.35 )

अर्थात – नारद जी  ने कहा यदि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होने के लक्षण दिखाता है, जैसा कि  वर्णित है, भले ही वह एक अलग वर्ग में प्रकट हुआ हो, उसे वर्गीकरण के उन लक्षणों के अनुसार स्वीकार किया जाएगा ।

=>उदाहरण :-

1- धृष्टाद् धार्ष्टमभूत् क्षत्रं ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ ।
नृगस्य वंश: सुमतिर्भूतज्योतिस्ततो वसु: ॥ १७ ॥
(श्रीमद भागवतम - 9.2.17)
अर्थात – मनु के पुत्र धृष्ट से धार्ष्ट नामक एक क्षत्रिय उत्पन्न हुवे,बाद में उन्होंने ब्राह्मणों का स्थान प्राप्त किया।  नृग से सुमति उत्पन्न हुई। सुमति से भूतज्योति और भूतज्योति से वासु उत्पन्न हुवे।

2-नाभागो दिष्टपुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यतां गत: ।
भलन्दन: सुतस्तस्य वत्सप्रीतिर्भलन्दनात् ॥ २३ ॥
(श्रीमद भागवतम -  9.2.23)
अर्थात –दिष्ट का पुत्र नाभाग था वह अपने कर्म से वैश्य हो गया उसका पुत्र भलंदन हुवा और उससे वत्सप्रीति हुवा ।

3-यवीयांस एकाशीतिर्जायन्तेया: पितुरादेशकरा महाशालीना 
महाश्रोत्रिया यज्ञशीला: कर्मविशुद्धा ब्राह्मणा बभूवु: ॥ १३ ॥
(श्रीमद भागवतम - 5.4.13)
अर्थात – राजा ऋषभदेव और जयन्ती के 81 पुत्र अपने पिता के आदेश के अनुसार, वे  अपनी गतिविधियों में वैदिक अनुष्ठानों को किया और वेदाध्यन किया। इस प्रकार वे सभी पूर्णतः योग्य ब्राह्मण बन गए ।

4-पृषध्स्तु मनुपुत्रो गुरुगोवधाच्छूद्रत्वमगमत्‌ ॥ १७॥
(विष्णु पुराण 4.1.17)
अर्थात – मनु का पृषध्र नामक पुत्र गुरु की गौ का वध करने के कारण क्षत्रिय से शूद्र हो गया ।

5-एते क्षत्रप्रसूता वै पुनश्चाड्रिरसा: स्मृता:।
रथीतराणां प्रवरा: क्षत्रोपेता द्विजातय: ॥ १०॥
(विष्णु पुराण 4.2.10)
अर्थात – रथीतर के वंशज क्षत्रिय की संतान   होते हुए भी आंगिरस कहलाये; अत: वे क्षत्रोपेत ब्राह्मण हुए ।

6-गृत्समदस्य शौनकश्चातुर्वर्ण्यप्रवर्तयिताभूत्‌॥ 
(विष्णु पुराण 4.8.6)
अर्थात – क्षत्रिय गृत्समद का पुत्र शौनक चा्तुर्वर्ण्य का प्रवर्तक ब्राह्मण हुआ ।

7-पुत्रोगृत्समद्स्यापि शुनको यस्य शौनकाः। 
ब्राह्मणः क्षत्रियाश्चैव वैश्याः शूद्रास्तथैवच॥ 
(हरिवंश पुराण- 1 . 29 . 8 )
अर्थात – गृत्समद के पुत्र शुनक हुए, जिससे शौनक-वंश का विस्तार हुआ ।  शौनक-वंश में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णो के लोग हुए।  

 ऐतिहासिक उदाहरण -

महर्षि ऐत्रेय महिदास : परंपरा के अनुसार उनकी माता 'इतरा' नाम की दासी थीं। इस ऋषि को ऐत्रेय ब्राह्मण के संकलन का श्रेय दिया जाता है।

ऋषिका लोपामुद्रा: यह विदर्भ की एक क्षत्रिय राजकुमारी थीं, जिन्होंने महर्षि अगस्त्य से विवाह किया था। यह ऋग्वेद के कुछ श्लोकों की द्रष्टा हैं। इनके और महर्षि अगस्त्य के बीच कई संपादन संवाद पुराणों में दर्ज हैं।

महर्षि विश्वामित्र: यह 'विश्वरथ' नाम के क्षत्रिय थे। इनको  'गायत्री मंत्र' की सर्वोत्कृष्टता को प्रकट करने का श्रेय दिया जाता है। महर्षि विश्वामित्र ने अपनी आध्यात्मिक ज्ञान के कारण ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया।

महर्षि वेद व्यास: यह पाराशर ऋषि से सत्यवती नाम की एक मछुआरे-महिला के पुत्र थे। इनका जन्मदिन 'गुरु-पूर्णिमा' के रूप में मनाया जाता है। महाभारत और कई अन्य सनातन ग्रंथों के संकलन का श्रेय इन्हें ही दिया जाता है।

महर्षि मातंग: यह एक शूद्र माता और एक वैश्य पिता के पुत्र थे। असल में, चांडालों को अक्सर (वराह पुराण 1.139.91 ) जैसे अंशों में 'मतंग' के रूप में संबोधित किया जाता है।

महर्षि वाल्मीकि: यह ऋषियों के वंशज थे लेकिन चांडाल बन गए थे (सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया)चांडाल रत्नाकर नाम दिया गया था, क्योंकि इन्होने हत्या की और राजमार्ग डकैती की थी। प्रजापति ब्रह्मा द्वारा इनका सुधार किया गया और दिव्य ऋषि नारद से प्रेरित होकर इन्होने हिंदू महाकाव्य सर्वोत्कृष्ट- रामायण रचना किया ।

ऋषिका सुलभा मैत्रेयी: यह एक क्षत्रिय महिला थीं जिन्होंने ऋग्वेद की शाखा सौलभा को प्रख्यापित किया था
। उनकी गिनती ऋग्वेद के उन श्रद्धेय आचार्यों में होती है जिनके लिए कौशिकी ब्राह्मण जैसे ग्रंथों में सम्मान दिया गया है। सौलभा ब्राह्मण अब खो गया है, लेकिन काशिका में नाम का उल्लेख किया गया है। विदेह के राजा जनक के साथ ऋषिका सुलभा का आध्यात्मिकता पर संवाद है महाभारत के शांति पर्व में दर्ज है।

भक्त नम्मालवर: आलवार वैष्णव संतों में सबसे प्रमुख, ये शूद्र माता पिता की संतान थे। इनका जन्म अलवारथिरुनागिरि (कुरुगुर ) 3059 ईसा पूर्व में हुवा था । नम्मलवार को बारह अलवरों की पंक्ति में पांचवां माना जाता है। उन्हें वैष्णव परंपरा का एक महान रहस्यवादी माना जाता है। उन्हें बारह अलवरों में सबसे महान भी माना जाता है और नलयिर दिव्य प्रबंध में 4000 श्लोकों में से उनका योगदान 1352 श्लोकों में है । नाम्मलवार ने चार ग्रन्थ की रचना की हैं । वे इस प्रकार है -

तिरुविरुत्तम(ऋग वेद सामान )
तिरुवासिरियम (यजुर वेद सामान )
पेरिय तिरुवन्दादी (अथर्व वेद सामान )
तिरुवाय्मोळि (साम वेद सामान)

 इन्हे “वेदम तमिल सेय्द मारन” नाम से भी सम्बोधित किया जाता हैं । इसका अर्थ हैं की संस्कृत वेदों का सारार्थ तमिल प्रभंधा में अनुग्रह करने वाले मारन । अन्य आल्वारों के प्रभंध वेदों के अंग (जैसे शिक्ष, व्याकरण इत्यादि ) माने जाते हैं और तिरुवाय्मोळि को 4000 दिव्य पशुरो का सार संग्रह माना जाता हैं। 

संत रविदास: वे एक मोची थे, और इसलिए शूद्र मूल के थे। उन्होंने भक्ति आंदोलन को आगे बढ़ाया इनकी 16 रचनाओं को आदि ग्रंथ- सिख ग्रंथ में शामिल किया गया था।

संत मीरा: यह मेवाड़ की एक राजपूत क्षत्रिय राजकुमारी थीं और उन्होंने अपना जीवन भगवान कृष्ण की सेवा में समर्पित कर दिया। भगवान कृष्ण को संबोधित उनकी सुंदर काव्य रचनाएँ हैं: जो आज तक हिंदुओं द्वारा बड़े उत्साह के साथ पाठ किया जाता है।इन्होने वैष्णव मत का प्रचार प्रसार किया।

स्वामी विवेकानंद: आधुनिक हिंदू धर्म के अग्रणी सुधारकों  में से एक, वह बंगाल की कायस्थ उपजाति के थे । इन्होने अमेरिका और यूरोप में वेदांत का संदेश फैलाया और उनके लेखन और भाषण "द कलेक्टेड राइटिंग्स ऑफ़ स्वामी विवेकानंद" में निहित हैं । इन्होने रामकृष्ण मिशन- एक धार्मिक संगठन की स्थापना की अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार किया। धर्मांतरित हुवे लोगो की   घर वापसी का काम विवेकानंद 
 ने अपने धार्मिक संगठन रामकृष्ण मिशन द्वारा करवाया।

संत चोखामेला : यह एक महार, मराठी भक्ति आंदोलन में 14 वीं शताब्दी की एक प्रमुख हस्ती हैं। वे संत नामदेव के शिष्य थे, स्वयं एक शूद्र और भगवान विट्ठल के प्रबल भक्त थे। उन्होंने कई प्रसिद्ध अभंग लिखे जो भगवान विट्ठल (कृष्ण) को समर्पित भक्ति कविता हैं। 

संत गुरु घासी दास : इनका जन्म रायपुर, छत्तीसगढ़ (1756–1850) में निम्न जाति के परिवार में हुआ था। दलित संत गुरु घासी दास जनता को हिंदू धर्म के सतनामी संप्रदाय का प्रचार किया और छत्तीसगढ़ में सतनामी संप्रदाय की स्थापना की।इन्होने हिन्दू धर्म त्याग कर अन्य धर्म अपना लिए आदिवासी हिन्दुओ की घर वापसी करवाई । उनके काम के परिणामस्वरूप राज्य में कई दलित और बहिष्कृत समुदायों का सामाजिक और धार्मिक उत्थान हुआ।

संत बलराम हादी : इनका जन्म 18 वीं शताब्दी में हुआ , बलराम हादी ने बंगाल के नादिया क्षेत्र में बलहादी/बलरामी संप्रदाय की स्थापना की। वह हादी निम्न जाति के थे। इनके ज्ञान के कारण लोगो ने इन्हे राम का अवतार मान लिया। उन्होंने जिस धर्म का प्रचार किया वह गृहस्थों के लिए था और हादी, डोम, बगदी, मुची, बेडे  जैसे निम्न पिछड़ी जातियां  अनुयायी थे और यहां तक ​​कि मुसलमानों के बीच भी इनको प्रसिद्धि मिली और वह के मुस्लिम भी  इनके अनुयायी बने। इन्होने जातिवाद का विरोध किया और मुक्ति प्राप्त करने के लिए भक्ति और तपस्वी के मार्ग की वकालत की।




कलियुग में वर्ण व्यवस्था की दुर्गति


शुकदेव गोस्वामी जी ने श्रीमद भागवतम में कलियुग में होने वाले चीज़ो के बारे में बताते हुवे कहा है -

दाम्पत्येऽभिरुचिर्हेतुर्मायैव व्यावहारिके ।
स्त्रीत्वे पुंस्त्वे च हि रतिर्विप्रत्वे सूत्रमेव हि ॥ ३ ॥
(श्रीमद भागवतम -12 : 2 : 3)
अर्थात –केवल बाहरी चमड़े के आकर्षण के कारण स्त्री और पुरुष एक साथ रहेंगे, और व्यापार में सफलता छल पर निर्भर करेगी। स्त्रीत्व और पुरुषत्व का आंकलन किसी की सम्भोग में विशेषज्ञता के अनुसार किया जाएगा, और वैदिक वर्ण व्यवस्था के विपरीत एक आदमी को सिर्फ एक धागा (जनेऊ) पहनने से ब्राह्मण के रूप में जाना जाएगा।

क्षीयमाणेषु देहेषु देहिनां कलिदोषत: ।
वर्णाश्रमवतां धर्मे नष्टे वेदपथे नृणाम् ॥ 12 ॥
शूद्रप्रायेषु वर्णेषुच्छागप्रायासु धेनुषु ।
गृहप्रायेष्वाश्रमेषु यौनप्रायेषु बन्धुषु ॥ 14 ॥
(श्रीमद भागवतम -12:2:12-14)
कलियुग के दूषित होने से सभी जीवों के शरीर छोटे हो जायेंगे , जब उनके धार्मिक सिद्धांतों को वेदों का मार्ग नष्ट कर दिया गया होगा। वर्णव्यवस्था और आश्रमव्यवस्था नष्ट हो जायेगा । सभी वर्णों के लोग वेद-हीन होकर शूद्र हो जायेंगे। आश्रम वाले गृहस्थ जैसे होंगे | वैवाहिक संबंध वाले ही भाई होंगे। 

जैसा शुकदेव गोस्वामी जी ने संदेह जाता था आज वैसा ही हो रहा है इसलिए अब भी वक़्त है सुधर जाओ नहीं तो कलयुग का अंत होने से कोई नहीं रोक सकता। 




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