अगर आप सनातन धर्म के शास्त्रों को पढ़ते है तो पाएंगे कि सभी स्मृति , पुराण और वैदिक शास्त्र इस बात पर एकमत है कि शूद्रों का कार्य केवल सेवा करना है और उस सेवा के बदले उसे धन की प्राप्ति होती है जिससे वो अपना जीवन यापन कर सके लेकिन वक्त के साथ परिस्तिथियाँ बदलती है और यही कारण था कि स्मार्त संप्रदाय का वर्चस्व जब समाज में हुवा तब उनके जन्म आधारित व्यवस्था में शूद्रों की स्तिथि दयनीय हो गयी ।
इतिहासकारों का मानना है की शुद्रो की स्तिथि सबसे अच्छी मौर्यकाल में थी यदि आर्थिक स्तिथि की बात करें तो मौर्यकाल में शूद्र सबसे अमीर होते थे ।
अर्थशास्त्र की रचना सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के आचार्य चाणक्य ने की थी।
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【 वार्त्ता क्या है ? 】
कृषिपाशुपाल्ये वणिज्या च वार्त्ता ।
(अर्थशास्त्र 1:4:1)
अर्थ- कृषि, पशुपालन एवं व्यापार " वार्त्ता " में आते है ।
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【शूद्रों के लिए वार्त्ता कर्म का अधिकार】
शूद्रस्य द्विजातिशुश्रूषा वार्त्ता कारुकुशीलवकर्म च ।
(अर्थशास्त्र 1:3:8)
अर्थ-शूद्र द्विजो (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के यहां श्रम कार्य (नौकरी) तथा धन संचय के साथ-साथ वार्त्ता , कारुकुशील कर्म (निष्पादन/गैर-निष्पादन कला) से संबंधित सभी काम कर सकते हैं।
आचार्य चाणक्य का अर्थशास्त्र अकेला ऐसा ग्रंथ है जो शुद्रो के कर्मो में इतने अधिकार देता है जिसके कारण उनकी आर्थिक स्तिथि समाज में सबसे अच्छी हो जाती है।
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【शूद्रों को सेना में लेना】
इस समय "शूद्रकर्षक" का भी उल्लेख मिलता है। कौटिल्य ने उन्हें सेना में भर्ती होने की छूट दी है। अब उन्हें सम्पत्ति रखने का भी अधिकार था। अतः मौर्यकाल में शूद्र वार्तावृत्ति तथा विभिन्न शिल्पों द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते थे।
(Dr .R .S. Sharma - Sudras in ancient India :page 150)
मौर्यकाल में आचार्य चाणक्य ने " शूद्रकर्षक " बनाया था क्यूंकि विदेशी यवनों से लड़ने के लिए क्षत्रिय पर्याप्त नहीं थे इसलिए उन्होंने अनपढ़ शूद्रों के लिए सेना में अलग विभाग बनाया जिसे " शूद्रकर्षक " कहा जाता था और ये सब अपनी भारत भूमि के लिए यवनो से लड़ते थे बाद में समय के साथ इन " शूद्रकर्षक " की संतानों को क्षत्रिय का दर्जा मिल गया था।
प्लूटार्क के अनुसार " सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने सम्पूर्ण भारत को 6,00,000 सैनिकों की विशाल वाहिनी द्वारा जीतकर अपने अधीन कर लिया "जाहिर सी बात है इतनी विशाल सेना में " शूद्रकर्षक " बहुत ज्यादा रहे होंगे।
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【कलिंग युद्धबंदी क्षत्रियों का शूद्र बनना】
अशोक ने कलिंग युद्ध में जिन डेढ़ लाख सैनिकों को युद्ध बन्दी बनाया था, वे सब राजकीय फर्मों में उत्पादक कार्यों में लगाये गये तथा जिससे शूद्रों की संख्या में वृद्धि हुई।
(Dr . R.S . Sharma - प्रारंभिक भारत का आर्थिक और सामाजिक विकास : पृष्ठ- 47)
ऐसा इसलिए हो सका क्युकी अर्थशास्त्र में जो क्षत्रियों के कर्म बताए गए थे वो ये युद्ध बंदी बनाने पर नहीं कर पाए इसलिए इनके कर्मानुसार इनको शूद्र मान लिया गया।
क्षत्रियस्याध्ययनं यजनं दानं शस्त्राजीवो भूतरक्षणं च
(अर्थशास्त्र 1:3:6)
अर्थ- क्षत्रिय के कर्तव्य हैं -अध्ययन , यज्ञ करवाना , दान देना , शस्त्र द्वारा जीविका अर्जित करना , राज्य के समस्त लोगों/प्राणियों की रक्षा करना।
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【 मौर्यकालीन व्यवस्था की कीर्ति 】
व्यवस्थितार्यमर्यादः कृतवर्णाश्रमस्थितिः।
त्रय्या हि रक्षितो लोकः प्रसीदति न सीदति।।
(अर्थशास्त्र 1:3:17)
अर्थ- वर्णाश्रम की जो स्थिति बनाई गई है उस में आर्यों की मर्यादा सन्निहित है। इस वर्णाश्रम की स्थिति से लोग प्रसन्न होते हैं उन्हें दुःख नहीं होता है।
अगर किसी को यहाँ आर्य शब्द का अर्थ विदेशी समझ आ रहा है तो उनके लिए यहाँ जैन हरिवंश पुराण (7:102-103) में इस आर्य शब्द पर एक कथन है -
आर्यामाह नरो नारीमार्यं नारी नरं निजम् ।
भोगभूमिनरस्त्रीणां नाम साधारणं हि तत् ।102।
उत्तमा जातिरेकव चातुर्वर्ण्यं न षट्क्रियाः ।
न स्वस्वामिकृतः पुंसां संबंधो न च लिंगिनः ।103।
अर्थ- पुरुष स्त्री को आर्या और स्त्री पुरुष को आर्य कहती है । यथार्थ में भोगभूमिज इस धरती पर स्त्री-पुरुषों का वह साधारण नाम है ।102। उस समय सबकी एक ही उत्तम जाति होती है । वहाँ न चार वर्ण होते हैं और न ही असि, मसि आदि छह कर्म होते हैं, न सेवक और स्वामी का संबंध होता है और न वेषधारी ही होते हैं ।103।
इस कथन से स्पष्ट है कि हर सनातनी पुरुष आर्य और स्त्री को आर्या कहा जाता है वो भी बिना किसी वर्ण भेद के।
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