क्या जीसस शान्तिप्रिय, मानव प्रेमी व दयालु था ?
जीसस के जन्म को “ पृथ्वी पर शांतिदूत " के नाम से प्रचारित किया जाता है। जबकि जीसस ने स्वयं कहा था कि-
(1) “यह न समझो। कि मैं पृथ्वी पर मिलाप कराने आया हूँ। मैं मिलाप कराने को नहीं, पर तलवार चलवाने आया हूँ। मैं तो आया हूँ। मनुष्य को उसके पिता से, और बेटी को उसकी माँ से; और बहू को उसकी सास से; अलग कर दूँ। मनुष्य के बैरी उसके घर के ही लोग होंगे।”(मत्ती 10:34-36)
(2) यीशु ने कहा “परन्तु मेरे उन बैरियों को जो नहीं चाहते थे कि मैं उन पर राज्य करूँ; उनको यहाँ लाकर मेरे सामने घात करो।”(लूका 19:27)
(3) “जो मेरे साथ नहीं, बह मेरे विरोध में है।'” (मत्ती 12:30)
(4) यीशु ने उनसे कहा, “और तुमसे सच सच कहता हूँ. जब तक मनुष्य के पुत्र का मांस न खाओ और उसका लहू न पीओ; तुम में जीवन नहीं।” (युहन्ना 6 : 53)
(5) उसने उनसे कहा “और जिसके पास तलवार नहीं वह अपने कपड़े बेचकर एक मोल ले।” (लूका 22:36)
(6) “जो मुझमें बना रहता है; और मैं उसमें; वह बहुत फलता है। क्योंकि मुझसे अलग होकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते। यदि कोई मुझ में बना न रहे तो; वह डाली नाई फैंक दिया जाता है और सूख जाता है; और लोग उन्हें बटोरकर आग में झो्क देते हैं।” (युहन्ना 15:6)
इन्क्वीजीशन के समय, यीशु में अविश्वासियों को, जलाने का आदेश सम्भवत: यीशु के इन्हीं शब्दों पर आधारित है।
(7) जीजस के चरित्र को सबसे अधिक दर्शानेवाला स्वरूप उसका शाश्वत यातना उकसाने वाली भावना में छिपा है, देखिए : “जीज़स अपने स्वर्ग दूतों को भेजेगा; और वे उसके राज्य में से सब ठोकर के कारणों को और कुकर्म करने वालों को ड्कट्ठा करेंगे और उन्हें आग के कुण्ड में डालेंगे।” (मत्ती 13:41)
(8) “यदि तेरा हाथ तुझे ठोकर खिलाए तो उसे काट डाल; टुण्डा होकर जीवन में प्रवेश करना; तेरे लिए उससे भला है कि दो हाथ रहते हुए नरक के बीच उस आग में डाला जाए जो कभी बुझने की नहीं।” (मरकुस, 9:43 )
क्या इस प्रकार के उपदेश उचित हैं ? क्या यह हिंसात्मक धर्मकियों के उदाहरण ईसाई प्रचार का तरीका है ? क्या इस प्रकार का नरक ही शान्तिकारक विचार है?
क्या जीजस ने “परिवारिक मूल्यों” को बढ़ावा दिया ?
(1) “उसने कहा; यदि कोई मेरे पास आए, और अपने पिता और माता और पत्नी और लड़के बालों और भाइयों और बहिनों बरन अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने, तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता।”' (लूका 14:26)
(2) “क्या तुम समझते हो कि मैं पृथ्वी पर मेल मिलाप कराने आया हूँ ? मैं तुमसे कहता हूँ; नहीं; बल्कि मैं तो अलग कराने आया हूँ ” (लूका 12:51)
(3) एक और चेले ने उस से कहा; “हे प्रभु! मुझे पहले जाने दे, कि अपने पिता को गाढ़ ढूँ। यीशू ने उससे कहा; तू मेरे पीछे हो ले; और मुरदों को अपने मुरदे गाढ़ने दे” (मत्ती 8:22 )
यानी उसने चेले को अपने पिता का अन्तिम संस्कार भी करने की आज्ञा नहीं दी।
जीसस ने कभी “परिवार” शब्द को प्रयोग नहीं किया। उसने न कभी शादी की, और न कभी पिता बना। उसने स्वयं अपनी माँ को घुड़कते हुए कहा “हे महिला! मुझे तुझसे क्या काम ! ( युहन्ना 2:4 )
अतः जीसस ने कभी भी परिवारिक मूल्यों व मधुर सम्बन्धों को बढ़ावा नहीं दिया जो कि सांसारिक जीवन की पहली आवश्यकता है। व्यावहारिक दृष्टि से जीजस का यह कार्य पूर्णतया अनुचित है।
क्या जीसस समतावादी और सामाजिक न्याय का समर्थक था?
(1) यीशू ने कभी भी गुलाम प्रथा की निन्दा नहीं की बल्कि गुलामों को सताने को बढ़ावा दिया तथा गुलाम-मालिक सम्बन्धों में कठोरता बरतने को कहा।
“ हे सेवकों, हर प्रकार के भय के साथ अपने स्वामियों के आधीन रहो, न केवल भलों और नम्रों के, पर कुटिलों के भी। क्योंकि यदि कोई परमेश्वर का विचार करके अन्याय से दुख उठाता हुआ क्लेश सहता है, तो यह सुहावना है।
(1 पतरस 2 : 18-19 )
ऐसा ही इफेसियस 6:5-7 तथा टाइटस, 2 : 9-10 में कहा गया है।
(2) हे सेवकों, जो शरीर के अनुसार तुम्हारे स्वामी हैं, सब बातों में उन की आज्ञा का पालन करो, मनुष्यों को प्रसन्न करने वालों की नाईं दिखाने के लिये नहीं, परन्तु मन की सीधाई और परमेश्वर के भय से। (कुलुस्सियों 3:22)
क्या यीशु नैतिकतावादी है ?
(1) “जो कोई् उस त्यागी हुई से विवाह करे, वह व्यभिचार करता है।” (मत्ती 5:32 )
(2) “सो कल के लिए चिन्ता न करो” (मत्ती 6:34)
(3) “अपने लिए पृथ्वी पर धन इकट्ठा न करो”। (मत्ती; 6:19)
(4) “जा; जो कुछ तेरा है; उसे बेचकर कंगालों को दे, और तुझे स्वर्ग में धन मिलेगा; और आकर मेरे पीछे हो ले'।
( मरकुस 10:21)
(5) “नाशवान भोजन के लिए परिश्रम न करो।” (युहन्ना 6:27)
(6) “जो कोई तुमसे मांगे, उसे दे और जो तेरी वस्तु छीन ले; उससे न मांग” (लूका 6.30)
(7) “मैं तुमसे कहता हूँ कि जिसके पास है;. उसे दिया जाएगा और जिसके पास नहीं; उससे वह भी जो उसके पास है ले लिया जाएगा ” (लूका 19.26)
(8) “यदि कोई तुझ पर नालिश करके तेरा कुरता लेना चाहे तो उसे दोहर भी ले लेने दे; (मत्ती 5.41)
(9) “परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ कि बुरे का सामना न करना; परन्तु जो कोई तेरे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे; उसकी ओर दूसरा भी कर दे।” (मत्ती 5:39-40)
क्या उपरोक्त शिक्षाएँ व्यावहारिक एवं बुद्धिमत्ता पूर्ण है ? क्या यही शिक्षाएँ तुम अपनी संतानों को देना पसन्द करोगे?
क्या ईशा मसीह विश्वसनीय है ?
(1) जीजस ने अपने अनुयायियों को विश्वास दिलाया कि वे स्वयं दुबारा आने से पहले नहीं मरेंगे।
“मैं तुमसे सच कहता हूँ कि जो यहाँ खड़े हैं; उनमें से कितने ऐसे हैं, कि जब तक मनुष्य के पुत्र (स्वयं जीज़स) उस के राज्य में आते हुए न देख लेगें, तब तक मृत्यु का स्वाद कभी न चर्खेंगे” (मत्ती 16:28)
(2) “मैं शीघ्र ही आने वाला हूँ” (प्रकाशित वाक्य 3:11)
आज तक दो हजार वर्ष हो गए मगर जीजस नहीं आए। उसके अनुयायी उसके दुबारा आने की बेतावी से आज भी प्रतीक्षा कर रहे हैं। मगर मैं तुमसे कहता हूँ कि वह कभी नहीं आएंगे।
क्या ऐसा ईशा मसीह विश्वास के योग्य है जिसके लगभग दो हजार परस्पर विरोधी वचनो से बाइबिल भरी पड़ी है ? (दी बाहबिल हैंड बुक)।
(3) स्वयं जीजस ने सचाई के बारे में दो परस्पर विरोधी बातें कहीं,
“यदि मैं आप' ही अपनी गवाही दूं तो मेरी गवाही सच्ची नहीं” (युहन्ना 5:31)
“यीशु ने उनसे कहा कि यदि मैं अपनी गवाही देता हूँ तो भी मेरी गवाही ठीक है।” (यूहन्ना 8:14) आदि आदि।
क्या ईशा मसीह स्वयं में एक अच्छे उदाहरण हैं ?
(1) “उसने सबाध को दिन मक्का की चोरी करके नियम का उल्लंघन किया।” (मरकुस 2.23-27)
(2) “यीशु ने बिना आज्ञा अपने दो चेलों की गदही और उसके बच्चे को लाने की आज्ञा दी। यदि कोई तुमसे कुछ कहे तो कहो कि प्रभु को इनका प्रयोजन है।” (मत्ती 21:2-3)
(3) यीशु ने कहा कि “वह मन्दिर से बड़ा है” (मत्ती 12: 6) तथा “यहाँ वह (यीशु) हैं जो जोनाह से भी बड़ा है”
(मत्ती 21.41)
यीशु ने स्वयं को एक डिक्टेटर के रूप में प्रस्तुत किया। “जो मेरे साथ नहीं, वह मेरे विरोध में है.....जो कोई पवित्र आत्मा (यीशु) के विरोध में कहेगा तो उसका अपराध न तो इस लोक में और न परलोक में क्षमा किया जाएगा।” (मत्ती 12:30-32)
कभी-कभी जीसस ने अपने अनुचित कार्यो की पुष्टि पिछले पैगम्बरों के उदाहरणों से की जिनसे बाइबिल भरी पड़ी है।
क्या जीसस मानव का उद्धारक था ?
ईसाइयत का यह सब से गलत विचार है कि प्रथम नर-नारी आदम व हव्वा ने शैतान के उकसाने पर पाप किया और तब से आज तक सभी मनुष्य पापमय पैदा होते हैं। वे स्वयं कभी पाप मुक्त नहीं हो सकते जब तक कि कोई उद्धारक न हो। मगर जीजस से पहले जन्मे लोग कैसे पाप मुक्त होते थे ?
इतने पर भी ईशा मसीह क्यों ?
ईशा मसीह के नाम पर बाइबिल में अनेक अच्छी बातें भी हैं जो कि पहले से ही समाज में मौजूद थी बल्कि. अनेक विरोधाभासी बातें कहकर यीशू ने अपनी प्रतिष्ठा की कम ही किया है। उपरोक्त कथन का सार यही है कि यीशू ने नैतिकता और सदाचार के बारे में शायद ही कोई नवीन बात कही। हाँ अपने विरोधियों को नरक की भट्टी का भय हमेशा दिखाया है। सचाई तो यह है कि यीशु का जीवनबृत और उनके नाम से प्रचारित बातें उनके तथाकथित जन्म से ही पहले मौजूद विचार धाराओं की देन हैं।
इसी कारण अनेक विद्वान तो यीशु की ऐतिहासिकता पर भी संदेह करते हैं। अलवर्ट श्वेट्जर का कहना है कि “हमारे समय में तो ऐतिहासिक जीजस एक अजनबीपन है और एक रहस्य है। पहली शताब्दी का कोई भी लेखक जीजस की कहानी को नहीं मानता है।”
स्वयं न्यूटेस्टामेंट में जीजस सम्बन्धी अनेक अन्त: विरोध व भूलें हैं। जीजस का जीवन अनेक चमत्कारों और अनर्गल दाबों से भरा पड़ा है जो कि तत्कालीन पैगनवाद से ली गई है। वास्तव में यीशु की जीवनी भी अनेकों काल्पनिक गाथाओं और मिथों के समान हैं जो उस समय की धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं से प्रचलित थीं।
अच्छा तो यह होगा कि यीशु जैसे संदेह युक्त चरित्र वाले व्यक्ति की पूजा करने की अपेक्षा हम ऐसे ऐतिहासिक पुरुषों जैसे श्री राम, श्री कृष्ण, महात्मा बुद्ध, आइंसटाइन, साक्रेटीज, प्लेटो आदि विद्वानों को सम्मानित करें जिन्होंने ज्ञान-विज्ञान द्वारा लोगों के क्लेशों व यातनाओं को दूर करने के लिए कर्म किया हो।
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