वेद और पर्यावरण



वेद का सन्देश है कि मानव शुद्ध वायु में श्वास ले, शुद्ध जल को पान करे, शुद्ध अन्न का भोजन करे, शुद्ध मिट्टी में खेले-कूदे, शुद्ध भूमि में खेती करे।

इसके लिये आवश्यक है पर्यावरण का स्वच्छ होना, पवित्र होना,,

पर्यावरण सरक्षण के लिये हमारे ऋषि-मुनियों का गहरा चिन्तन मनन था,, वेदों में भी पर्यावरण के विषय में कहा है-

वात आ वातु भेषजं शम्भु मयोभु नो हृदे।
प्र ण आयूंषि तारिषत्।। -ऋ० १०/१८६/१

वायु हमें ऐसा औषध प्रदान करे, जो हमारे हृदय के लिए शांतिकर एवं आरोग्यकर हो, वायु हमारे आयु के दिनों को बढ़ाए।


यददो वात ते गृहेऽमृतस्य निधिर्हित:।
ततो नो देहि जीवसे।। -ऋ० १०/१८६/३

हे वायु! जो तेरे घर में अमृत की निधि रखी हुई है, उसमें से कुछ अंश हमें भी प्रदान कर, जिससे हम #दीर्घजीवी हों।


वेद भगवन् का सन्देश है -

"वनस्पति वन आस्थापयध्वम्"

अर्थात् -वन में वनस्पतियाँ उगाओ -ऋ० १०/१०१/११"। यदि #वनस्पति को काटना भी पड़े तो ऐसे काटें कि उसमें सैकड़ों स्थानों पर फिर अंकुर फूट आएं।


अयं हि त्वा स्वधितिस्तेतिजान: प्रणिनाय महते सौभगाय।
अतस्त्वं देव वनस्पते शतवल्शो विरोह, सहस्रवल्शा वि वयं रुहेम।। -यजु० ५/४३

हे वनस्पति, इस तेज कुल्हाड़े ने महान सौभाग्य के लिए तुझे काटा है, तू शतांकुर होती हुई बढ़, तेरा उपयोग करके हम सहस्रांकुर होते हुए वृद्धि को प्राप्त करें।


अथो त्वं दीर्घायुर्भूत्वा शतवल्शा विरोहतात्। -यजु० १२/१००

हे ओषधि, तू दीर्घायु होती हुई शत #अंकुरों से बढ़।


वेद सूचित करता है कि सूर्य और भूमि से वनस्पतियां में मधु उत्पन्न होता है, जिससे वे हमारे लिए लाभदायक होती हैं-

मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्य्य:।
माध्वीर्गावो भवन्तु न:।। -यजु० १३/२९

वनस्पति हमारे लिए मधुमान हो, सूर्य हमारे लिए मधुमान् हो, भूमियाँ हमारे लिए मधुमती हों।


फूलों-फलों से लदी हुई ओषधियां नित्य भूमि पर लहलहाती रहें, ऐसा वर्णन भी वेद में मिलता है-

"ओषधी: प्रतिमोदध्वं पुष्पवती: प्रसूवरी: -ऋ० १०/९७/३"।


वेद यह भी कहता है "मधुमन्मूलं मधुमदग्रमासां मधुमन्मध्यं वीरुधां बभूव। मधुमत्पर्णं मधुमत्पुष्पमासां

अर्थात् - ओषधियों का मूल, मध्य, अग्र, पत्ते, फूल सभी कुछ मधुमय हों -अथर्व० ८/७/१२"।



वेद मनुष्य को प्रेरित करता है -

"मापो मौषधीहिंसी:"

अर्थात् - तू जलों की हिंसा मत कर, #ओषधियों की हिंसा मत कर -यजु० ६/२२"।


जलों की हिंसा से अभिप्राय है उन्हें प्रदूषित करना तथा ओषधियों की हिंसा का तात्पर्य है उन्हें विनष्ट करना।

'पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृंह, पृथिवीं मा हिंसी:

अर्थात् - तू उत्कृष्ट खाद आदि के द्वारा भूमि को पोषक तत्त्व प्रदान कर, भूमि को दृढ़ कर, भूमि की हिंसा मत कर"।


भूमि की हिंसा करने का अभिप्राय है उसके #पोषक तत्वों को लगातार फसलों द्वारा इतना अधिक खींच लेना कि फिर वह उपजाऊ न रहे।

परन्तु यदि जल, वायु आदि ही प्रदूषित हो गए हों तो उनसे भूमि की क्षति-पूर्ति यज्ञ अग्निहोत्र से करे -

आयुर्यज्ञेन कल्पतां, प्राणो यज्ञेन कल्पतां, चक्षुर्यज्ञेन कल्पतां,
श्रोत्रंयज्ञेन कल्पतां, वाग् यज्ञेन कल्पतां, मनो यज्ञेन कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पताम्।। -यजु० १८/२९

अग्निहोत्र-रूप यज्ञ से आयु बढ़ती है, प्राण सबल होता है, चक्षु सशक्त होती है, श्रोत्र और वाणी #सामर्थ्ययुक्त होते हैं, मन और आत्मा बलवान् बनते हैं।


ऋग्वेद में कहा है -

"सो अग्ने धत्ते सुवीर्यं स पुष्यति"

अर्थात् -जो अग्निहोत्र करता है उसे सुवीर्य प्राप्त होता है, वह पुष्ट होता है -ऋ० ३/१०/३।


प्राकृतिक रूप से आंधी, वर्षा और सूर्य द्वारा कुछ अंशों में स्वतः भी प्रदूषण-निवारण होता रहता है।

वेदों मे भी कहा है -

"वपन्ति मरुतो मिहम्" -ऋ० ८/७/४।

ये(हवाएँ) वर्षा द्वारा प्रदूषण को दूर करते हैं।


आ पर्जन्यस्य वृष्ट्योदस्थामामृता वयम्।
व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा।। -अथर्व० ३/३१/१

बादल की वृष्टि से हम उत्कृष्ट स्थिति को पा लेते हैं, सब पेड़-पौधे, पर्वत, भूप्रदेश धुलकर स्वच्छ हो जाते हैं, रोग दूर हो जाते हैं, #प्राणियों की आयु लम्बी हो जाती है।

वायु, जल, भूमि, आकाश, अन्न आदि पर्यावरण के सभी पदार्थों की शुद्धि के लिए वेद भगवन् हमें जागरूक करते हैं ,,

तथा ऋषियों नें भी अपने संदेशों से अस्वच्छता को दूर करने का आदेश देते हैं। पर्यावरण की #शुद्धि के लिए वेद भगवन् वनस्पति उगाना,

अग्निहोत्र करना, विद्युत, अग्नि, सूर्य एवं ओषधियों का उपयोग करना आदि उपायों को सुझाते हैं।

अग्निहोत्र आदि से ही पर्यावरण सन्तुलित होगा और पर्यावरण सन्तुलन से मानव सुरक्षित होगा,,

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