मनुस्मृति (3.46)– जिस समाज या परिवार में स्त्रियों का आदर– सम्मान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्यगुण और सुख़- समृद्धि निवास करते हैं और जहां इनका आदर- सम्मान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों के सभी काम निष्फल हो जाते हैं भले ही वे कितना ही श्रेष्ठ कर्म कर लें, उन्हें अत्यंत दुखों का सामना करना पड़ता है.
यह श्लोक केवल स्त्री जाति की प्रशंसा करने के लिए ही नहीं है बल्कि यह कठोर सच्चाई है जिसको महिलाओं की अवमानना करने वालों को ध्यान में रखना चाहिए और जो मातृशक्ति का आदर करते हैं उनके लिए तो यह शब्द अमृत के समान हैं. प्रकृति का यह नियम पूरी सृष्टि में हर एक समाज, हर एक परिवार, देश और पूरी मनुष्य जाति पर लागू होता है.
हम इसलिए परतंत्र हुए कि हमने महर्षि मनु के इस परामर्श की सदियों तक अवमानना की
आक्रमणों के बाद भी हम सुधरे नहीं और परिस्थिति बद से बदतर होती गई. १९(19) वीं शताब्दी के अंत में राजा राम मोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्या सागर और स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रयत्नों से स्थिति में सुधार हुआ और हमने वेद के सन्देश को मानना स्वीकार किया.
कई संकीर्ण मुस्लिम देशों में आज भी स्त्रियों को पुरुषों से समझदारी में आधे के बराबर मानते हैं और पुरुषों को जो अधिकार प्राप्त हैं उसकी तुलना में स्त्री का आधे पर ही अधिकार समझते हैं.
अत: ऐसे स्थान नर्क से भी बदतर बने हुए हैं. यूरोप में तो सदियों तक बाइबिल के अनुसार स्त्रियों की अवमानना के पूर्ण प्रारूप का ही अनुसरण किया गया.
हम इसलिए परतंत्र हुए कि हमने महर्षि मनु के इस परामर्श की सदियों तक अवमानना की
आक्रमणों के बाद भी हम सुधरे नहीं और परिस्थिति बद से बदतर होती गई. १९(19) वीं शताब्दी के अंत में राजा राम मोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्या सागर और स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रयत्नों से स्थिति में सुधार हुआ और हमने वेद के सन्देश को मानना स्वीकार किया.
कई संकीर्ण मुस्लिम देशों में आज भी स्त्रियों को पुरुषों से समझदारी में आधे के बराबर मानते हैं और पुरुषों को जो अधिकार प्राप्त हैं उसकी तुलना में स्त्री का आधे पर ही अधिकार समझते हैं.
अत: ऐसे स्थान नर्क से भी बदतर बने हुए हैं. यूरोप में तो सदियों तक बाइबिल के अनुसार स्त्रियों की अवमानना के पूर्ण प्रारूप का ही अनुसरण किया गया.
आइए, मनुस्मृति के कुछ और श्लोकों का अवलोकन करें और समाज को सुरक्षित और शांतिपूर्ण बनाएं–
परिवार में स्त्रियों का महत्त्व–
(मनुस्मृति 3.55)– पिता, भाई, पति या देवर को अपनी कन्या, बहन, स्त्री या भाभी को हमेशा यथायोग्य मधुर- भाषण, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रखना चाहिए और उन्हें किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं पहुंचने देना चाहिए.
(मनुस्मृति 3.57)– जिस कुल में स्त्रियां अपने पति के गलत आचरण, अत्याचार या व्यभिचार आदि दोषों से पीड़ित रहती हैं, वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है और जिस कुल में स्त्रीजन पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है.
(मनुस्मृति 3.58)-अनादर के कारण जो स्त्रियां पीड़ित और दुखी: होकर पति, माता-पिता, भाई, देवर आदि को शाप देती हैं या कोसती हैं– वह परिवार ऐसे नष्ट हो जाता है जैसे पूरे परिवार को विष देकर मारने से, एक बार में ही सब के सब मर जाते हैं|
(मनुस्मृति 3.59)– ऐश्वर्य की कामना करने वाले मनुष्यों को हमेशा सत्कार और उत्सव के समय में स्त्रियों का आभूषण, वस्त्र, और भोजन आदि से सम्मान करना चाहिए.
(मनुस्मृति 3.62)– जो पुरुष, अपनी पत्नी को प्रसन्न नहीं रखता, उसका पूरा परिवार ही अप्रसन्न और शोकग्रस्त रहता है. और यदि पत्नी प्रसन्न है तो सारा परिवार खुशहाल रहता है.
(मनुस्मृति 9.26)– संतान को जन्म देकर घर का भाग्योदय करने वाली स्त्रियां सम्मान के योग्य और घर को प्रकाशित करनेवाली होती हैं. शोभा, लक्ष्मी और स्त्री में कोई अंतर नहीं है. यहां महर्षि मनु उन्हें घर की लक्ष्मी कहते हैं.
(मनुस्मृति 9.28)– स्त्री सभी प्रकार केसुखों को देने वाली हैं. चाहे संतान हो, उत्तम परोपकारी कार्य हो या विवाह या फ़िर बड़ों की सेवा – यह सभी सुख़ स्त्रियों के ही आधीन हैं. स्त्री कभी माँ के रूप में, कभी पत्नी और कभी अध्यात्मिक कार्यों की सहयोगी के रूप में जीवन को सुखद बनाती है. इस का मतलब है कि स्त्री की सहभागिता किसी भी धार्मिक और अध्यात्मिक कार्यों के लिए अति आवश्यक है.
(मनुस्मृति 9.96)– पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं, अत:साधारण से साधारण धर्मकार्य का अनुष्ठान भी पति -पत्नी दोनों को मिलकर करना चाहिए.
(मनुस्मृति 4.180)– एक समझदार व्यक्ति को परिवार के सदस्यों– माता, पुत्री और पत्नी आदि के साथ बहस या झगडा नहीं करना चाहिए.
(मनुस्मृति 9.4)– अपनी कन्या का योग्य वर से विवाह न करने वाला पिता, पत्नी की उचित आवश्यकताओं को पूरा न करने वाला पति और विधवा माता की देखभाल न करने वाला पुत्र– निंदनीय होते हैं.
स्त्रियों के स्वाधिकार–
(मनुस्मृति 9.11)– धन की संभाल और उसके व्यय की जिम्मेदारी, घर और घर के पदार्थों की शुद्धि, धर्म और अध्यात्म के अनुष्ठान आदि, भोजन पकाना और घर की पूरी सार -संभाल में स्त्री को पूर्ण स्वायत्ता मिलनी चाहिए और यह सभी कार्य उसी के मार्गदर्शन में होने चाहिए.इस श्लोक से यह भ्रांत धारणा निर्मूल हो जाती है कि स्त्रियां वैदिक कर्मकांड का अधिकार नहीं रखतीं. इसके विपरीत उन्हें इन अनुष्ठानों में अग्रणी रखा गया है और जो लोग स्त्रियों के इन अधिकारों का हनन करते हैं– वे वेद, मनुस्मृति और पूरी मानवता के ख़िलाफ़ हैं.
(मनुस्मृति 9.12)– स्त्रियां आत्म नियंत्रण से ही बुराइयों से बच सकती हैं, क्योंकि विश्वसनीय पुरुषों (पिता, पति, पुत्र आदि) द्वारा घर में रोकी गई अर्थात् निगरानी में रखी हुई स्त्रियां भी असुरक्षित हैं (बुराइयों से नहीं बच सकती). जो स्त्रियां अपनी रक्षा स्वयं अपने सामर्थ्य और आत्मबल से कर सकती हैं, वस्तुत: वही सुरक्षित रहती हैं.
जो लोग स्त्रियों की सुरक्षा के नाम पर उन्हें घर में ही रखना पसंद करते हैं, उनका ऐसा सोचना व्यर्थ है. इसके बजाय स्त्रियों को उचित प्रशिक्षण तथा सही मार्गदर्शन मिलना चाहिए ताकि वे अपना बचाव स्वयं कर सकें और गलत रास्ते पर भी न जाएं| स्त्रियोंको चारदिवारी में कैद रखना महर्षि मनु के पूर्णत: विपरीत है.
स्त्रियों की सुरक्षा–
(मनुस्मृति 9.6)– एक दुर्बल पति को भी अपनी पत्नी की रक्षा का यत्न करना चाहिए.(मनुस्मृति 9.5)– स्त्रियां चरित्र भ्रष्टता से बचें क्योंकि अगर स्त्रियां आचरणहीन हो जाएंगी तो सम्पूर्ण समाज ही विनष्ट हो जाता है.
(मनुस्मृति 5.149)– स्त्री हमेशा स्वयं को सुरक्षित रखे| स्त्री की हिफ़ाजत– पिता, पति और पुत्र का दायित्व है.
इस का मतलब यह नहीं है कि मनु स्त्री को बंधन में रखना चाहते हैं.
(मनुस्मृति 9.12) में स्त्रियों की स्वतंत्रता के लिए उनके विचार स्पष्ट हैं. वे यहां स्त्रियों की सामाजिक सुरक्षा की बात कर रहे हैं.
क्योंकि जो समाज, अपनी स्त्रियों की रक्षा विकृत मनोवृत्तियों के लोगों से नहीं कर सकता, वह स्वयं भी सुरक्षित नहीं रहता.
इसीलिए जब पश्चिम और मध्य एशिया के बर्बर आक्रमणकारियों ने हम पर आक्रमण किए तब हमारे शूरवीरों ने मां- बहनों के सम्मान के लिए प्राण तक न्यौछावर कर दिए! महाराणा प्रताप के शौर्य और आल्हा- उदल के बलिदान की कथाएं आज भी हमें गर्व से भर देती हैं. हमारी संस्कृति के इस महान इतिहास के बावजूद भी हम ने आज स्त्रियों को या तो घर में कैद कर रखा है या उन्हें भोग- विलास की वस्तु मान कर उनका व्यापारीकरण कर रहे हैं. अगर हम स्त्रियों के सम्मान की रक्षा करने की बजाय उनके विश्वास को ऐसे ही आहत करते रहे तो हमारा विनाश भी निश्चित ही है.
इसीलिए जब पश्चिम और मध्य एशिया के बर्बर आक्रमणकारियों ने हम पर आक्रमण किए तब हमारे शूरवीरों ने मां- बहनों के सम्मान के लिए प्राण तक न्यौछावर कर दिए! महाराणा प्रताप के शौर्य और आल्हा- उदल के बलिदान की कथाएं आज भी हमें गर्व से भर देती हैं. हमारी संस्कृति के इस महान इतिहास के बावजूद भी हम ने आज स्त्रियों को या तो घर में कैद कर रखा है या उन्हें भोग- विलास की वस्तु मान कर उनका व्यापारीकरण कर रहे हैं. अगर हम स्त्रियों के सम्मान की रक्षा करने की बजाय उनके विश्वास को ऐसे ही आहत करते रहे तो हमारा विनाश भी निश्चित ही है.
संपत्ति में अधिकार-
(मनुस्मृति 9.130)– पुत्र के ही समान कन्या है, उस पुत्री के रहते हुए कोई दूसरा उसकी संपत्ति के अधिकार को कैसे छीन सकता है?मनु के अनुसार पिता की संपत्ति में तो कन्या का अधिकार पुत्र के बराबर है ही परंतु माता की संपत्ति पर एकमात्र कन्या का ही अधिकार है.
महर्षि मनु कन्या के लिए यह विशेष अधिकार इसलिए देते हैं ताकि वह किसी की दया पर न रहे, वो उसे स्वामिनी बनाना चाहते हैं, याचक नहीं.
क्योंकि एक समृद्ध और खुशहाल समाज की नींव स्त्रियों के स्वाभिमान और उनकी प्रसन्नता पर टिकी हुई है.
(मनुस्मृति 9.212- 213) – यदि किसी व्यक्ति के रिश्तेदार या पत्नी न हो तो उसकी संपत्ति को भाई – बहनों में समान रूप से बांट देना चाहिए. यदि बड़ा भाई, छोटे भाई– बहनों को उनका उचित भाग न दे तो वह कानूनन दण्डनीय है.
स्त्रियों की सुरक्षा को और अधिक सुनिश्चित करते हुए, मनु स्त्री की संपत्ति को अपने कब्जे में लेने वाले, चाहें उसके अपने ही क्यों न हों, उनके लिए भी कठोर दण्ड का प्रावधान करते हैं.
(मनुस्मृति 8.28-29)– अकेली स्त्री जिसकी संतान न हो या उसके परिवार में कोई पुरुष न बचा हो या विधवा हो या जिसका पति विदेश में रहता हो या जो स्त्री बीमार हो तो ऐसे स्त्री की सुरक्षा का दायित्व शासन का है. और यदि उसकी संपत्ति को उसके रिश्तेदार या मित्र चुरा लें तो शासन उन्हें कठोर दण्ड देकर, उसे उसकी संपत्ति वापस दिलाए.
विवाह –
(मनुस्मृति 9.89) – चाहे आजीवन कन्या पिता के घर में बिना विवाह के बैठी भी रहे परंतु गुणहीन, अयोग्य, दुष्ट पुरुष के साथ विवाह कभी न करे.(मनुस्मृति 9.90-91)– विवाह योग्य आयु होने के उपरांत कन्या अपने सदृश्य पति को स्वयं चुन सकती है. यदि उसके माता -पिता योग्य वर के चुनाव में असफल हो जाते हैं तो उसे अपना पति स्वयं चुन लेने का अधिकार है.
भारतवर्ष में तो प्राचीन काल में स्वयंवर की प्रथा भी रही है. अत: यह धारणा कि माता – पिता ही कन्या के लिए वर का चुनाव करें, मनु के विपरीत है.
महर्षि मनु के अनुसार वर के चुनाव में माता- पिता को कन्या की सहायता करनी चाहिए न कि अपना निर्णय उसपर थोपना चाहिए, जैसा कि आजकल चलन है.
(मनुस्मृति 9.4) – अपनी कन्या का योग्य वर से विवाह न करने वाला पिता, पत्नी की उचित आवश्यकताओं को पूरा न करने वाला पति और विधवा माता की देखभाल न करने वाला पुत्र – निंदनीय होते हैं.
(मनुस्मृति 9.12) – स्त्रियां आत्म नियंत्रण से ही बुराइयों से बच सकती हैं, क्योंकि विश्वसनीय पुरुषों (पिता, पति, पुत्र आदि) द्वारा घर में रोकी गई अर्थात् निगरानी में रखी हुई स्त्रियां भी असुरक्षित हैं (बुराइयों से नहीं बच सकती). जो स्त्रियां अपनी रक्षा स्वयं अपने सामर्थ्य और आत्मबल से कर सकती हैं, वस्तुत: वही सुरक्षित रहती हैं.
जो लोग स्त्रियों की सुरक्षा के नाम पर उन्हें घर में ही रखना पसंद करते हैं, उनका ऐसा सोचना व्यर्थ है. इसके बजाय स्त्रियों को उचित प्रशिक्षण तथा सही मार्गदर्शन मिलना चाहिए ताकि वे अपना बचाव स्वयं कर सकें और गलत रास्ते पर भी न जाएं. स्त्रियों को चारदिवारी में कैद रखना महर्षि मनु के पूर्णत: विपरीत है.
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