सनातन धर्म के प्राचीन सम्प्रदायों में मौजूद वर्णव्यस्था का स्वरुप

 



1. ब्रह्म संप्रदाय

ब्रह्म सम्प्रदाय के संस्थापक माधवाचार्य थे।माधवाचार्य के अनुसार, पुरुष सूक्त में वर्णित वर्ण की अवधारणा को जन्म से नहीं, बल्कि आत्मा के स्वभाव से परिभाषित किया गया है। ब्राह्मण प्रकृति की आत्मा शूद्र के रूप में पैदा हो सकती थी लेकिन ब्राह्मण बन सकती थी।

माधवाचार्य ने  " तत्पर्य निर्णय " में इसी विषय को आगे प्रतिपादित किया है -

अधिकाश्चेद् गुणा: शूद्रे ब्रह्मणादि: स उच्छ्यते ब्रह्मणोऽप्यल्पगुणक:द्र एवेति कीर्तित: 

अर्थ- यदि शूद्र में श्रेष्ठ भाव हैं तो उसे ब्राह्मण कहा जाता है और निम्न गुणों वाले ब्राह्मण को शूद्र  के रूप में जाना जाता है।





माधवाचार्य ने उल्लेख किया है -

(विष्णुभक्तिश्चनुगता सर्ववर्णेषु विश्पतिम्)

अर्थ- विष्णु के "शुद्ध सात्विक भक्त" चार वर्णों के विभाजन से ऊपर है।

वर्ण और जाति भिन्न हैं। वर्ण आंतरिक जीव स्वरूप है । शूद्र वैष्णव और गुरु बन सकता है। हम  श्री व्यासराज के शिष्य, माधवाचार्य परंपरा के महान "कनकदास" को कैसे भूल सकते हैं। मैं सभी से अनुरोध करता हूं कि वे जाकर पढ़ें उनकी अद्भुत कहानी कि कैसे उन्होंने पाखण्डियों द्वारा जातिगत भेदभाव का सामना किया उडुपी मंदिर में और क्या हुआ ?


2. गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय

गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की आधारशिला चैतन्य महाप्रभु के द्वारा रखी गई इनके ही द्वारा इस संप्रदाय की 16वीं शती  में स्थापना की गयी। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है।  श्रीमद् अभयचरणारविन्द भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के पश्चिमी जगत के आज तक के सर्वश्रेष्ठ प्रचारक माने जाते हैं।

एक वैष्णव ब्राह्मण का चयन उसके जन्म के आधार पर नहीं अपितु उसके गुणों पर आधारित होता है इसलिए चैतन्य महाप्रभु का मानना था की -

किब विप्र, किब न्यासी, शूद्र केने नय ।

येई कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता, सेई गुरु हय ॥

(चैतन्य-चरितामृत, मध्य 8:128)

अर्थ -"चाहे कोई ब्राह्मण हो, सन्यासी हो या शूद्र - चाहे वह कुछ भी हो - अगर वह कृष्णतत्त्ववेत्ता है तो वह यथार्थ प्रामाणिक गुरु बन सकता है ।"

यही परम प्रभु की ओर से संकेत है🙏



श्री सनातन गोस्वामी जी ने हरिभक्ति-विलास में लिखा है की-
तत्वसागरे च--
यथा काश्चनतां याति कांस्य रसविधानत:।
तथा दीक्षाविधानेन द्विजत्वं जायते नृणाम्‌ ॥१२॥
(हरिभक्ति विलास 2:12)
अर्थ - "तत्वसागर में उक्त है - जिस प्रकार बेल धातु जैसी आधार धातु को रासायनिक प्रक्रिया द्वारा सोने में बदला जा सकता है, उसी तरह किसी भी व्यक्ति को दीक्षा-विधान, दीक्षा प्रक्रिया द्वारा द्विज में बदला जा सकता है"





एक बहुत ही प्रसिद्ध बंगाली वैष्णव कविता है -


मुचि हया सूचि यदि कृष्णा भजे
सूचि हया मुचि यदि कृष्णा त्यजे
अर्थ - मोची भी ब्राह्मण हो जाता है यदि वो कृष्णा को भजता है ब्राह्मण मोची हो जाता है यदि वो ईश्वर का त्याग करता है ।


वैष्णव और वैष्णव गुरु कोई भी बन सकता है। आज की तरह कई जातिवादी पाखंडियो ने कई बार चैतन्य महाप्रभु की आलोचना की, यहां तक ​​कि उनके खिलाफ कई षड्यंत्र भी किए। सभी रिकॉर्ड और बहुत अच्छी तरह से प्रलेखित है, महाप्रभु ने ऐसे सभी प्राणियों को वाद-विवाद में हराया।

भक्तिसिद्धांत सरस्वती ने सार्वजनिक बहसों में जातिवादी नकली दृष्टिकोण के खिलाफ तर्क दिया (जिसके लिए बाद में उनकी जान को खतरा था) उन्होंने औपचारिक पवित्र जनेऊ और जाति की परवाह किए बिना किसी को भी ब्राह्मण पुजारी बनने का अवसर प्रदान किया।

3. श्री वैष्णव संप्रदाय


श्री वैष्णव अति प्राचीन नाम है लेकिन अब इस संप्रदाय को इसके प्रमुख आचार्य के नाम से जाना जाता है। श्री वैष्णव के विभिन्न संप्रदाय मानते हैं कि "प्रपत्ति" भाव सभी के लिए खुला है और शूद्र गुरु और वैष्णव बन सकते हैं। रामानुजाचार्य स्वयं इसके समर्थक थे।  श्री रामानुजाचार्य के जीवन प्रसंग को कोई भी पढ़ सकता है।स्वामी रामानुजाचार्य जो सबसे प्रमुख श्री वैष्णव आचार्य हैं, उनके कई शिष्य (अनुयायी) थे जो ब्राह्मण नहीं थे। इसलिए श्री वैष्णव संप्रदाय में, जाति का मुद्दा मोक्ष के लिए नहीं उठता है। प्रभु के लिए प्रेम, दीक्षा और मोक्ष सभी के लिए है।

 कांचीपूर्णा (तिरुक्कच्चि नम्बि) नाम से एक शूद्र कांचीपुरम के मंदिर में सेवा कर रहा था। यद्यपि एक शूद्र कांचीपूर्णा इतना पवित्र और अच्छा था कि वहां के लोग उसके लिए बहुत सम्मान और श्रद्धा रखते थे।इससे प्रभावित होकर एक बार रामानुजाचार्य शूद्र कांचीपूर्णा ' को नमन किया और उन्हें दीक्षा देने के लिए कहा और उन्हें अपने गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया। जिस पर कांचीपूर्णा  ने रामानुज को उत्तर दिया -

"तुम एक ब्राह्मण हो, एक शूद्र हूँ मैं तुम्हें कैसे दीक्षा दे सकता हूँ?"

इस पर श्री रामानुज ने उत्तर दिया "एक व्यक्ति की जाति क्या है जो भगवान नारायण  के साथ दिन-रात संवाद करता है" इसके बाद संत काँचीपुर्ण ने उन्हें दीक्षा दी और श्री रामानुजाचार्य  के गुरु बने।
वर्तमान में कांचीपुरम में एक मंदिर है जहां कांचीपूर्णा की छवि स्थापित की गई है और जहां उन्हें एक वैष्णव संत के रूप में पूजा जाता है।




4. रामानंदी संप्रदाय

रामानंदी संप्रदाय के संस्थापक  श्री रामानंद थे। जगतगुरु श्री रामानंदाचार्य ने नारा दिया था की-

जात पात पूछे नही कोय,
जो हरि को भजे सो हरि का होय

अर्थ -"कोई आपकी जाति नहीं पूछता। जो कोई हरि की पूजा करता है, वह हरि का हो जाता है"

प्रपत्ति मोक्ष का कारण है इस पर जिज्ञासा होती है कि इस प्रपत्ति का अधिकारी कौन है ? इसके उत्तर में आचार्य रामानंदाचार्य जी अपने ग्रन्थ श्री वैष्णवमताब्जभास्कर में कहते हैं -

सर्वे प्रपत्तेरधिकारिण: सदा शक्ता अशक्ता पदयोर्जगत्प्रभो: |
अपेक्ष्यते तत्र कुलं बलं च नो न चापि कालो न च शुद्धतापि वै ||
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर:मुक्तिसाधनप्रकरण -चतुर्थप्रश्नोत्तरे श्लोक110)

अर्थ - जगत्प्रभु सर्वेधर की शरणागति में सबको अधिकार है । चाहे वह बलवान्‌ हो, बलहीन हो, उच्च कुल में उत्पन्न हो या नीच हो क्योंकि भगवान्‌ परमकृपालु हैं अतः वे स्वप्रपत्ति में कुल तथा जाति आदि की अपेक्षा नहीं रखते हैं । इसलिये जीवमात्र प्रपत्ति का अधिकारी है ।

उन्होंने अपने वैष्णव मातबजीभास्कर में इस बात पर जोर दिया कि किसी की उम्र, लिंग, जाति, सामाजिक स्थिति, काया आदि कुछ भी हो। हर कोई भगवान राम के चरण कमलों की शरण लेने के लिए पात्र है।

यह वह संप्रदाय है जिसके तहत महान तुलसीदास जुड़े थे। इस प्रकार वे अपनी शिक्षाओं के अनुसार सभी जातियों के वैष्णव शिष्य बनाते हैं। संत रविदास और संत कबीरदास इनके सबसे प्रसिद्धः शिष्यों में से एक है। हिंदुओं को धर्म परिवर्तन से बचाने के लिए रविदास जी और कबीरदास जी ने वाद विवाद में मुस्लिम काजियों को हरा दिया था।



5. रुद्र संप्रदाय


विष्णुस्वामी प्राचीन भारत के एक दार्शनिक थे जिन्होंने शुद्धाद्वैत वैष्णव रुद्र सम्प्रदाय की स्थापना की।रुद्र सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य बल्लभ थे। वल्लभाचार्य को महान सुधारक के रूप में भी जाना जाता है। उन्होंने भक्ति की तलवार से कठोर जाति व्यवस्था की रस्सियों को भी काट दिया। विष्णुस्वामी ने भी जाति की विचार को त्यागकर सभी योग्य मनुष्यों  के लिए द्विजता का दरवाजा खोला।

वल्लभाचार्य ने निम्न जाति के कई लोगों को वैष्णव पुष्टिमार्ग में दीक्षित किया। "84 वैष्णवों की वार्ता " वर्णन करती है कि प्रपत्ति भाव सभी के लिए है और कोई भी वैष्णव बन सकता है, जाति के बावजूद, इन 84 वैष्णवों में से कई निम्न जाति के हैं।


6. नाथ संप्रदाय

नाथ सम्प्रदाय भारत का एक हिंदू धार्मिक पन्थ है।  शिव इस सम्प्रदाय के प्रथम गुरु एवं आराध्य हैं। इसके अलावा इस सम्प्रदाय में अनेक गुरु हुए जिनमें गुरु मत्स्येन्द्रनाथ तथा गुरु गोरखनाथ सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। नाथ सम्प्रदाय समस्त देश में बिखरा हुआ था। गुरु गोरखनाथ ने 10वीं शताब्दी में इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया, अतः इसके संस्थापक गोरखनाथ माने जाते हैं। 

यह अच्छी तरह से स्थापित है कि नाथ योगी विशेष रूप से गोरखनाथ ने योगी बनने और मोक्ष प्राप्त करने के लिए जन्म आधारित योग्यता को अस्वीकार कर दिया था। शूद्र योगी तथा गुरु बन सकते थे और यह बहुत आश्चर्य की बात है कि गोरखनाथ ने कई मुसलमानों को सनातन धर्म में दीछित करके योगी बना दिया। 



गोरख सिद्धांत में सूत संहिता का हवाला देते हुए नाथ गुरु की स्थिति को सबसे ऊपर (वर्णाश्रम) कहा गया है। नाथ मत की श्रेष्ठता अद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत पर स्थापित है और योग मत सभी लोगों के लिए स्थापित और अच्छी तरह से खुला है ।नर और मादा के बीच न तो भेदभाव। शिवतुल्य की सूची में भी 84 महासिद्ध  15 निम्न जाति के हैं, यहाँ तक कि सफाई करने वाले भी।




7. कौल सिद्ध परम्परा


कुलार्णव तन्त्र, कौलाचार से सम्बन्धित प्रसिद्ध तांत्रिक ग्रन्थ है। इसकी रचना 11 वीं से 15 वीं शती में हुई थी।इस संप्रदाय में भी कोई जातिभेद नहीं है -

ग॒त॑ शूद्रस्प शूद्र॒त्वं विप्रस्यापि च विप्रता ।
दीक्षासंस्कारसम्पन्ने जातिभेदो न विद्यते॥
(कुलार्णव तंत्र - 14: 91)
अर्थ – दीक्षा संस्कार के बाद कोई शूद्र , शूद्र नहीं रहता है, न ही कोई विप्र विप्र रहता है। दीक्षा के बाद जाति का कोई अंतर नहीं रहता है।

शरीरस्य न संस्कारों जायते न च कर्मणः।
आत्मन: कारयेदीक्षामनादिकुलकुण्डलीम्‌॥
(कुलार्णव तंत्र - 14: 81)
अर्थ – शरीर का न तो संस्कार होता है न उसकी कोई जाति होती है न कोई कर्म । आत्मा की ही दीक्षा होती है जो की अनादि कुलकुंडली है।

एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुअ्चावमानयेत्‌ ।
श्वानं योनिशतं गत्वा चण्डालत्वमवाप्नुयात्‌॥
(कुलार्णव तंत्र - 11 : 74)
अर्थ – यह बिलकुल निर्धरित है की जो अपने गुरु का सही से सम्मान नहीं करता वो चाण्डाल बन जाता है और वो कुत्ते के योनि में जन्म पाता है।

दीक्षया मोक्षदीपेन चण्डालोपि विमुच्यते ।
(कुलार्णव तंत्र - 14 : 80)
अर्थ – दीक्षा से चाण्डाल भी मोक्ष प्राप्त करता है।

ब्रह्मनन्दमयं ज्ञानं कथयामि वरानने ।
नः ब्राह्मणो ब्राह्मणस्तु क्षत्रिय: क्षत्रियस्तथा ॥  
वैश्यो न वैश्यः शूद्रों न शूद्रत्स्तु परमेश्वरी ।
चाण्डालो नैव चाण्डालः पौल्कसो न च॑ पौल्कसः ॥  
सर्वे सम॑ विजानीयात्परमार्मेविनिश्चयात्‌ ।
(ज्ञानार्णव तंत्र 23:28-29)
अर्थ – ब्रह्मज्ञान का अधिकारी कौन है ? किसी भी वर्ण के बीच कोई भेद नहीं है, यहां तक ​​​​कि चांडाल या पौलकसो को भी ब्रह्म के साथ एकीकरण प्राप्त होता है तथा सभी एक सामान है।

यदि ज्ञानं भवेद एव सा देवो न तु मनुषः 
चाण्डालदिनीचजातौ स्थिरो  व ब्राह्मणोत्तमः
(रुद्रयामल तंत्र 48:131)
अर्थ –अगर किसी को ज्ञान की प्राप्ति होती है तो वो देव सामान्य है मनुष्य नहीं निम्न जाती के चाण्डाल भी ज्ञान प्राप्ति के बाद ब्राह्मण से उत्तम हो जाता है।

8 . कापालिका और कालमुख परम्परा

इन खोये हुवे सम्प्रदायों में भी कोई जातिभेद नहीं था कपालिका शुद्र , चांडाली तक बनती थी इनके गुरु नाथयोग गुरुवों के समान थे ।

9 .लिंगायत संप्रदाय

इस सम्प्रदाय की स्थापना 12वीं शताब्दी में महात्मा बसवण्णां ने की थी।बसवण्णा को शैव संप्रदाय के उपसंप्रदाय वीरशैव या लिंगायत का जनक माना जाता है। बसवण्णां जातिवाद के प्रबल विरोधी थे इन्होने जो संप्रदाय बनाया उसमें सभी एक सामान थे कोई ऊँच नीच नहीं था । इस संप्रदाय के अनुयायी सर्वार्धिक आदिवासी बने । इन्होने कहा था " कोई भी जन्म से उच्च या नीच न होकर जन्म से सभी समान होकर नैतिक ज्योति की प्राप्ति से श्रेष्ठ बनता है।"लिंगायत सम्प्रदाय में मूर्ति पूजा नहीं होती बल्कि अपने ही शरीर पर ईष्टलिंग को धारण करते हैं न ही ये वेदों को मानते है तथा इस संप्रदाय की स्थापना महात्मा बसवण्णां ने जाति प्रथा को खत्म करने के लिए किया था।


10.आलवार परम्परा

आलवार वैष्णव तमिल  सन्त थे। इनका काल 6 ठी से 9वीं शताब्दी के बीच रहा।ये श्री वैष्णव संप्रदाय से सम्बंधित है। इनके पदों का संग्रह "दिव्य प्रबन्ध" कहलाता है ।आलवार सन्त भक्ति आन्दोलन के जन्मदाता माने जाते हैं।ये जो प्राचीन वर्ण व्यवस्था मानते थे उसमे जाति का कोई भेद नहीं था । नारायण की उपासना करनेवाले भक्त 'आलवार' कहलाते हैं। इनकी संख्या 12 हैं। उनके नाम इस प्रकार है -

(1) पोय्गै आलवार
(2) भूतत्तालवार
(3) पेयालवार
(4) तिरुमालिसै आलवार
(5) नम्मालवार
(6) मधुरकवि आलवार
(7) कुलशेखरालवार
(8) पेरियालवार
(9) आण्डाल
(10) तोण्डरडिप्पोड़ियालवार
(11) तिरुप्पाणालवार
(12) तिरुमंगैयालवार।

ये आलवार संत भिन्न-भिन्न जातियों में पैदा हुए थे, परंतु संत होने के कारण उन सबका समान रूप से आदर है :- 

1 - संत मुनिवाहन योगी (तिरुप्पाणालवार) एक दलित (हरिजन, तथाकथित अछूत) परिवार में जन्म लिया और भारत में तमिल वैष्णव हिंदू मंदिरों में आज भी उनकी पूजा की जाती है।

तिरुप्पाणालवार



2-संत परकाल(तिरुमंगैयालवार) एक शूद्र परिवार में परिवार में जन्म लिया और भारत में तमिल वैष्णव हिंदू मंदिरों में आज भी उनकी पूजा की जाती है।

तिरुमंगैयालवार



3- नम्मालवार वैष्णव संतों में सबसे प्रमुख थे, ये शूद्र माता पिता की संतान थे। इनका जन्म अलवारथिरुनागिरि (कुरुगुर ) 3059 ईसा पूर्व में हुवा था । नलयिर दिव्य प्रबंध में 4000 श्लोकों में से उनका योगदान 1352 श्लोकों में है ।  इन्हे “वेदम तमिल सेय्द मारन” नाम से भी सम्बोधित किया जाता हैं , इसका अर्थ हैं की संस्कृत वेदों का सारार्थ तमिल प्रभंधा में अनुग्रह करने वाले मारन । 

नम्मालवार 


4- संत कुलशेखर (कुलशेखरालवार) एक क्षत्रिय परिवार में जन्म लिया और भारत में तमिल वैष्णव हिंदू मंदिरों में आज भी उनकी पूजा की जाती है।


कुलशेखरालवार



एक टिप्पणी भेजें

4 टिप्पणियाँ

  1. बहुत सारगर्भित और प्रासंगिक लेख भाई, बहुत बहुत शुभकामनाएं।।

    जवाब देंहटाएं
  2. आलोक पंचवेदी7 जनवरी 2022 को 10:36 am बजे

    http://panchvedi.blogspot.com/2021/06/blog-post_69.html

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आलोक पंचवेदी अपने असली नाम से आना ...और जो बात करनी है फेसबुक पर करना यहाँ गंदगी न मचाओ

      हटाएं