वर्ण शब्द की परिभाषा

वर्णव्यस्था का सार समझाना है तो हमें वर्ण शब्द का भावार्थ जानना अति आवयश्क है तभी हम चतुर्वर्णव्यवस्था को समझ सकते है । महर्षि यास्क ने अपने ग्रंथ निरुक्त के अध्याय 2 खंड 3 में वर्ण शब्द पर चर्चा की है जो इस प्रकार है - 


'वर्णो वृणोते:' सूत्र के अनुसार 'वर्ण' वह है, जिसका कर्मानुसार वरण किया जाए। 


वर्ण शब्द "वृञ" धातु से बनता है । मूलतः वर्ण– ‘‘वॄञ वरणे’’ (धातु, स्वादि) वृ धातु से ‘‘“कृवृञा”’’ (उणादि कोष 3:10) इस  सूत्र से न प्रत्यय करने पर वर्ण शब्द बनता है।वर्ण का अर्थ होता है, जिसके माध्यम से किसी का वरण क जाये, चयन किया जाये, छांटा जाये उसको वर्ण कहा जाता है ।

उणादि‌ कोष में वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है कि ‘‘वृणोति व्रियते वा स वर्णः’’ अर्थात् जिसका वरण किया जाता हो वह वर्ण है। 
यहाँ व्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था में अपने गुण कर्मानुसार वरण अर्थात् चयन किया जाता है।



'वर्णो वृणोते:' सूत्र की व्याख्या करते हुए ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में स्वामी दयानन्द सरस्वती लिखते हैं -

वर्णो वृणोतेरिति निरुक्तप्रमाण्याद्वरणीया वरीतुमर्हा, गुणकर्माणि च दृष्ट्वा यथायोग्यं वियन्ते ये ते वर्णाः ॥
(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका -वर्णाश्रमधर्मविषय)
अर्थात् - जिसके जैसे गुणकर्म हों, उसे वैसा ही कार्य देना ‘वर्ण‘ है। अत: जब कोई मनुष्य अपने गुण, कर्म, रुचि व योग्यतानुसार शिक्षा प्राप्त करता है तथा तदनुसार जीविका चुनता है या वरण करता है, वह उसका 'वर्ण' कहलाता है और इस वर्ण का उसके माता-पिता के वर्ण के साथ सम्बन्ध होना अनिवार्य नहीं है। मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार कोई भी वर्ण चुन सकता है तथा योग्यतानुसार बदल भी सकता है।


पंडित कपिलदेव द्विवेदी जी अपने ग्रन्थ" प्रौढ़ - रचनानुवाद कौमुदी " में इस सूत्र "वर्णों वृणोतेः" का वर्णन करते हुवे लिखते है -

आर्यसंस्कृतौ वर्ण व्यवस्था स्वीक्रियते न तु जातिप्रथा जन्मना जातिरिति, कर्मणा वर्ण इति । वर्णों वृणोतेः । जनो यत्कर्म वृणोति स तस्य वर्णः ।
(प्रौढ़ रचनानुवाद कौमुदी -पृष्ठ 310)
अर्थात् - आर्य संस्कृति वर्ण व्यवस्था को स्वीकार करती है ना की जाति-प्रथा और न जन्मना जाति -रिति को , कर्मानुसार वर्ण हैं । वर्ण वह है, जिसका वरण (चयन) किया जाए। लोगों के जैसे कर्म होते हैं वैसा ही वर्ण उनके कर्मानुसार चयन किया जाता है ।



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