शूद्रों के धार्मिक अधिकार





【मानव जाति चतुर्वर्ण प्रवर्तन मनु】


◙ आचार्य यास्क निरुक्त में इसी मान्यता को स्थापित करते हैं-
‘‘मनोरपत्यं मनुष्यः (मानवः)’’
(निरुक्त - 3:4)
अर्थ-‘मनु की सन्तान होने के कारण सबको मनुष्य या मानव कहा जाता है।’


◙ मनोर्वंशो मानवानाम्, ततोऽयं प्रथितोऽभवत्।
ब्रह्मक्षत्रादयः तस्मात्, मनोः जातास्तु मानवाः॥
(महाभारत -आदिपर्व 75:14)
अर्थ-मानव वंश मनु के द्वारा प्रवर्तित है। उसी मनु से यह प्रतिष्ठित हुआ है। सभी मानव मनु की सन्तान हैं अतः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी उसी मनु के वंशज हैं।


◙ ‘मनुराह वै अग्रे यज्ञेन ईजे।तद् अनुकृत्य इमाः प्रजाः यजन्ते।तस्माद् आह-‘मनुष्वद्’ इति। ‘मनोः यज्ञः’ इति उ-वै-आहुः।तस्माद् वा इव आहुः ‘मनुष्वद्’ इति।’’
(शतपथ ब्राह्मण - 1 :5:1 :7)
अर्थात्-‘यह सुनिश्चित तथ्य है कि मनु ने सर्वप्रथम यज्ञ का अनुष्ठान किया। उसी मनु का अनुसरण करके सब प्रजाएं (जनता) यज्ञ करती हैं। इसी आधार पर कहा जाता है कि यज्ञ मनु के अनुसरण पर किया जाता है अर्थात् यज्ञ का आदिप्रवर्तक मनु है।’ यह आदि मनु ब्रह्मापुत्र स्वायंभुव मनु ही है।


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【शूद्रों का वेदाध्ययन में अधिकार】


यथे॒मां वाचं॑ कल्या॒णीमा॒वदा॑नि॒ जने॑भ्यः।ब्र॒ह्म॒रा॒ज॒न्या᳖भ्या शूद्राय॒ चार्या॑य च॒ स्वाय॒ चार॑णाय च।
प्रि॒यो दे॒वानां॒ दक्षि॑णायै दा॒तुरि॒ह भू॑यासम॒यं
मे॒ कामः॒ समृ॑ध्यता॒मुप॑ मा॒दो न॑मतु ॥२ ॥
( यजुर्वेद-26 : 2 )
अर्थ - हे मनुष्यो ! मैं (ईश्वर ) सबका कल्याण करने वाली वेदरूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण , क्षत्रियों, शूद्रों , वैश्यों और अपने स्त्रियों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो , उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिसे पराया समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ, वैसे ही तुम भी आगे आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलते रहो।


*वेदाध्ययन से ही शुद्र मनुष्य द्विज बनता है ।
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【यज्ञ में शूद्रों का सम्मान सत्कार】


◙ सर्वे वर्णा यथा पूजां प्राप्नुवन्ति सुसत्कृता:।
न चावज्ञा प्रयोक्तव्या कामक्रोधवशादपि।।
(वालमीकि रामायण 1:13:13 )
अर्थ -सभी वर्णों के लोगों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार किया जाना चाहिए। अपमान नहीं होना चाहिए क्रोध पर लोभ पर वासना के द्वारा किसी को भी।


◙ ब्राह्मणान् क्षत्रियान् वैश्यान् शूद्रांश्चैव सहस्रशः।
समानयस्व सत्कृत्य सर्वदेशेषु मानवान्॥
(वाल्मीकि रामायण -1: 13:19)
अर्थ-महर्षि वसिष्ठ आदेश देते है-‘हजारों की संख्या में ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों को सभी प्रदेशों से सत्कारपूर्वक बुलाओ। उनको श्रद्धा-सत्कारपूर्वक भोजन कराओ ।’


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【रामायण शूद्रों के लिए भी 】


पठन् द्विजो वाक् ऋषभत्वम् ईयात् |
स्यात् क्षत्रियो भूमि पतित्वम् ईयात् ||
वणिक् जनः पण्य फलत्वम् ईयात् |
जनः च शूद्रो अपि महत्त्वम् ईयात् ||
(वाल्मीकि रामायण 1-1-100 )


अर्थात - इस रामायण को पढ़ने वाला अगर व्यक्ति ब्राह्मण होगा तो वो अच्छा वक्ता बनेगा , वह अपने भाषण में श्रेष्ठता प्राप्त करता है, और यदि वह क्षत्रिय व्यक्ति हो, उसे भूमि-अधिकार प्राप्त हो, और अगर वह व्यापार से वैश्य व्यक्ति हो तो वह वह धन-लाभ अर्जित करता है, और यदि वह मजदूर वर्ग (नौकरी करने वाला) से शूद्र व्यक्ति होता है, तो वह व्यक्तिगत महानता को प्राप्त करता है " इस प्रकार नारद ऋषि ने वाल्मीकि ऋषि-को रामायण का सार दिया।


वाल्मीकि रामायण में अनेकों उदाहरण भरे पड़े है जहाँ ब्राह्मण के साथ शुद्र को हवंन और पूजा में सामूहिक रूप से आमंत्रित किया जाता था, इससे यह प्रमाणित होता है की वेद से लेकर वाल्मीकि रामायण तक कभी कोई भेदभाव नही हुआ था।
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【शूद्रों का यज्ञ -अनुष्ठान में अधिकार】


◙ अ॒ग्नेस्त॒नूर॑सि वा॒चो वि॒सर्ज॑नं दे॒ववी॑तये त्वा गृह्णामि बृ॒हद् ग्रा॑वासि वानस्प॒त्यः सऽइ॒दं दे॒वेभ्यो॑ ह॒विः श॑मीष्व सु॒शमि॑ शमीष्व। हवि॑ष्कृ॒देहि॒ हवि॑ष्कृ॒देहि॑ ॥१५॥
(यजुर्वेद -1:15)
अर्थ - मैं सब जनों के सहित और काष्ठ के मूसल आदि पदार्थ विद्वान् वा दिव्यगुणों के लिये उस यज्ञ को श्रेष्ठ विद्वान् वा विविध भोगों की प्राप्ति के लिये ग्रहण करता हूं। हे विद्वान् मनुष्य! तुम विद्वानों के सुख के लिये अच्छे प्रकार दुःख शान्त करने वाले यज्ञ करने योग्य पदार्थ को अत्यन्त शुद्ध करो। जो मनुष्य वेद आदि शास्त्रों को प्रीतिपूर्वक पढ़ते वा पढ़ाते हैं, उन्हीं को यह होम में चढ़ाने योग्य पदार्थों का विधान करने वाली जो कि यज्ञ को करने के लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की शुद्ध सुशिक्षित और प्रसिद्ध वाणी वेद के पढ़ने से है .


🍁महाभारत में भी चारों वर्णों को तप,दान व अग्निहोत्र का अधिकार दिया गया है-


◙ ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्रा ये चाश्रितास्तपे।
दानधर्माग्निना शुद्धास्ते स्वर्गं यान्ति भारत!।।
( महाभारत-अश्वमेधिकापर्व 11:37)
अर्थात - जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,शूद्र तप,दान,धर्म और अग्निहोत्र करते हैं, वे शुद्ध होकर स्वर्ग को प्राप्त करते हैं।


🍁महाभारत में ही एक अन्य स्थान पर यज्ञ में चारों वर्णों की भागीदारी को स्वीकार किया गया है-


◙ ‘चत्वारो वर्णाः यज्ञमिमं वहन्ति’’
(महाभारत -वनपर्व 134:11)
अर्थात - इस यज्ञ का सपादन चारों वर्ण कर रहे हैं।


🍁महाभारत में तो इससे भी आगे बढ़कर दस्युओं के लिए भी इन कर्मों का विधान किया है-


◙ भूमिपानां च शुश्रूषा कर्त्तव्या सर्वदस्युभिः।
वेदधर्मक्रियाश्चैव तेषां धर्मो विधीयते।।
(महाभारत - शान्तिपर्व 65:18)
अर्थात - दस्युओं को राजाओं की सेवा पक्ष में युद्ध करके करनी चाहिए। वेदाध्ययन, यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानों का पालन करना उनका भी विहित धर्म है।


🍁महाभारतकार कहता है कि कर्मभ्रष्ट होकर निन वर्ण को ग्रहण करने वालों के लिए यज्ञ, धर्मपालन, वेदाध्ययन का निषेध नहीं है –


◙ धर्मो यज्ञक्रिया तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते।
इत्येते चतुरो वर्णांः येषां ब्राह्मी सरस्वती॥


(महाभारत -शान्तिपर्व 188:15)


अर्थ-वर्णान्तर प्राप्त जनों के लिए यज्ञक्रिया और धर्मानुष्ठान का निषेध कदापि नहीं है। वेदवाणी चारों वर्ण वालों के लिए है।


इसी प्रकार पांडवों के अश्वमेघ यज्ञ में भी शूद्र जन आमन्त्रित किये गये थे। वहां भी यज्ञ-भोजन की भागीदारी में कोई भेदभाव नहीं था। (महाभारत, अश्वमेध पर्व 88.23; 89.26)

🍁यज्ञ में अग्नि प्रज्वलन में भी अधिकार-

◙विद्यते: चतुर्थस्य वर्णस्य: अग्निनाधेयं इत्तेके

(भारद्वाज श्रौत सूत्र 5:2:8)

अर्थ -सभी चार वर्ण पवित्र यज्ञ की अग्नि को प्रज्वलित करने योग्य है ।
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【यज्ञ में प्रसाद में अधिकार 】


◙ ‘‘चत्वारो वै वर्णाः ब्राह्मणो राजन्यो वैश्यः शूद्रः,
न ह एतेषां एकश्चन भवति यः सोमं वमति।
स यद् ह एतेषां एकश्चित् स्यात् ह एव प्रायश्चित्तिः।’’
(शतपथ ब्राह्मण 5 : 5 : 4: 9)


अर्थ-वर्ण चार हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें कोई भी यज्ञ में सोम का त्याग नहीं करेगा। यदि एक भी कोई करेगा तो उसको प्रायश्चित्त करना पड़ेगा।


ऐतरेय ब्राह्मण में ऐतिहासिक उल्लेख आता है कि कवष ऐलूष नामक व्यक्ति एक शूद्रा का पुत्र था। वह वेदाध्ययन करके ऋषि बना। आज भी ऋग्वेद के 10:30-34 सूक्तों पर मन्त्रद्रष्टा के रूप में कवष ऐलूष का नाम मिलता है (2.29)।
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【शूद्रों को समान-व्यवस्था में छूट】


मनु का शूद्रों के प्रति सद्भावपूर्ण एवं मानवीय दृष्टिकोण देखिए कि द्विजवर्णों में अधिक गुणों के आधार पर समान का विधान होते हुए भी उन्होंने शूद्र को विशेष छूट दी है कि यदि शूद्र नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो उसे पहले समान दें-


◙ पञ्चानां त्रिषु वर्णेषु भूयांसि गुणवन्ति च।
यत्र स्युः सोऽत्र मानार्हः, शूद्रोऽपि दशमीं गतः॥
(मनुस्मृति 2:137)
अर्थ-तीन द्विज-वर्णों में समान गुण वाले अनेक हों तो जिसमें श्लोक 2.136 में उक्त पांच गुणों में से अधिक गुण हों, वह पहले समाननीय है किन्तु शूद्र यदि नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो वह भी पहले समाननीय है।


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【शूद्रों का अद्भुत मानवीय समान】


शूद्रों के प्रति मनु का कितना अद्भुत मानवीय भाव था इसकी जानकारी हमें मनु के निन आदेश में मिलती है। मनु कहते हैं कि अपने भृत्यों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही द्विज दपती भोजन करें-


◙ भुक्तवत्सु-अथ विप्रेषु स्वेषु भृत्येषु चैव हि।
भुंजीयातां ततः पश्चात्-अवशिष्टं तु दपती॥
(मनुस्मृति -3:116)


अर्थ-द्विजों के भोजन कर लेने के बाद और अपने भृत्यों के (जो कि शूद्र होते थे) पहले भोजन कर लेने के बाद ही शेष बचे भोजन को द्विज दपती खाया करें।


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【शूद्रों के कर्मो की प्रशंसा】


◙ पदभ्यं भगवतो जज्ञे सुश्रुषा धर्मसिध्ये।
तस्यं ज़ात: पुरा शुद्रों यद्व्र्त्त्या तुष्याते हरि:।।


(श्रीमद् भागवत महापुराण 3:6:33)


अर्थ- सब धर्मों की सिद्धि का मूल सिर्फ़ सेवा है, सेवा किए बिना कोई भी धर्म सिद्ध नहीं होता। अत: सब धर्मों की मूलभूत सेवा ही जिसका धर्म है वह शूद्र वर्णों में महान है । प्रथम तीन वर्णों धर्म अन्य पुरुषार्थ लिए हैं, किंतु शूद्र का धर्म सवपुरुषार्थ के लिए है; अत: इसकी वृत्ति से ही भगवान प्रसन्न हो जाते हैं।


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【शूद्रहत्या के लिए प्रायश्चित】


◙ एतदेव व्रतं कृत्स्नं षण्मासाञ् शूद्रहा चरेत् ।
वृषभैकादशा वापि दद्याद्विप्राय गाः सिताः ।।
(मनुस्मृति-11/130)


अर्थ - शूद्र के वध करने में छः मास पर्यन्त शुद्र हत्या के प्रायश्चित को करे और बैल और दस गऊ ब्राह्मण को देवे। यह भी अज्ञानता से वध करने में जानना। इन सब व्रतों के करने में कपाल ध्वजा को त्याग देना चाहिये।
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【पृथ्वी भी शुद्र सामान】


◙ स नैव व्यभवत्स शौद्रं वर्णममृजत पूषणमियं
वै पूषेयं हीदं सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च ॥ १३ ॥


(बृहदारण्यक उपनिषद् 1:4:13)


व्याख्या - यह शुद्र वर्ण पूषण (पालनेवाला ) अर्थात पोषण करने वाला हैं और साक्षात्‌ इस पृथ्वी के समान हैं क्यूंकि जैसे यह पृथ्वी सबका भरण -पोषण करती हैँ वैसे शुद्र भी सबका भरण-पोषण करता हैं। इसलिए पृथिवी को शूद्रदेव कहा गया हैं क्‍योंकि हमें अन्न देती है आश्रय देती है और हमारा पोषण करती है ।
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【देव को भी शुद्र कहना】


◙ ‘सः शौद्रं वर्णमसृजत्, पूषणमियं वै पूषा इयं हीदं सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च।’’
(शतपथ ब्राह्मण -14:4:2:25)


अर्थात्-उस ब्रह्म-पुरुष ने शूद्रसबन्धी वर्ण को उत्पन्न किया। देवों में पूषा देव को शूद्र के रूप में उत्पन्न किया, क्योंकि वह सबको पालन-पोषण करके पुष्ट करता है।


क्या यहां कहीं हीनभावना या अपमानजनक भावना दिखाई पड़ती है? गुणों में समानता यह है कि पृथ्वी का पोषक रूप=पूषा देव सब पदार्थों को पुष्ट करता है और शूद्र भी अपने श्रम-सेवा से सबको पुष्ट करता है, अतः गुण-कर्म-साय से दोनों शूद्र वर्णस्थ हैं।
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【शुद्रो से समानता का व्यव्हार】


◙ रुचं॑ नो धेहि ब्राह्म॒णेषु॒ रुच॒ꣳ राज॑सु नस्कृधि।
रुचं॒ विश्ये॑षु शू॒द्रेषु॒ मयि॑ धेहि रु॒चा रुच॑म् ॥
(यजुर्वेद-18:48)
अर्थ - हे ईश्वर ! आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिए, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिए, वैश्यों के प्रति उत्पन्न कीजिए और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिए।


मंत्र का भाव यह है कि हे परमात्मन! आपकी कृपा से हमारा स्वभाव और मन ऐसा हो जाए कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारी रुचि हो। सभी वर्णों के लोग हमें अच्छे लगें। सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारा बर्ताव सदा प्रेम और प्रीति का रहे।
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【शूद्रों को कम दंड】


◙ अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्
षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥


(मनुस्मृति 8:337)


◙ ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।
द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥


(मनुस्मृति 8:338)


अर्थात् - अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अट्ठाईसगुणा दण्ड देना चाहिए, क्योंकि उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भली-भांति समझने वाले हैं।


आप यहाँ समझ सकते है की शूद्र के लिए किसी भी अपराध के लिए सबसे कम दंड का विधान है क्यूंकि वो शिक्षित नहीं है.अतः ब्राह्मण को दण्डरहित छोड़ने का जहां भी कथन है, वह इस मनुव्यवस्था के विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त (मिलावट) है।
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【जनेऊ धारण का अधिकार】


🍁प्राचीन शैव आगम ग्रन्थ जो लोग किसी कारण वेदाध्यन से वंचित रह गए हो और शूद्र हो उन्हें भी जनेऊ धारण का अधिकार देता है शैव धर्म के ऐसे ही उदारवादी नियमों के कारण दक्षिण भारत के आदिवासी जातियों में शैव धर्म का सबसे ज्यादा प्रभाव रहा तथा वहां के अधिकांश कबीले शैव थे -


◙ कार्पास निर्मित सत्र त्रिगुणं त्रिगुणीकृतम।
सूत्रमेक॑ तु शूद्राणां वैश्यानां द्विसरं भवेत्‌॥88
(कामिका आगम 3:88)
अर्थात -पवित्र धागा कपास से बना होना चाहिए। एक जनेऊ तीन धागों से बना होना चाहिए और ऐसी तीन धागों से पवित्र धागा बनाना चाहिए। योग्यता अनुसार शूद्र को एक पवित्र धागा पहनना चाहिए ; वैश्य दो पवित्र धागे पहन सकते हैं।


◙ क्षत्रविद्वद्ध जातीनां यदुक्तम्‌ चोपवीतकम॥
पूजादि मन्त्रकाले तु धार्यन्नो घार्यमेव वा।
अनुलोमादि वर्णानां युक्तायुक्त विचार्य च॥
जातिभेदोक्त विधिना न धार्य धार्यमेव च।
(कामिका आगम 3:91-92)


अर्थात -पवित्र धागा (जनेऊ) जिसे क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों द्वारा पहना जाना बताया गया है उन्हें केवल देवता-पूजा और मंत्र के समय ही पहना जाना चाहिए। अन्य समय में, वे पवित्र धागा पहन भी सकते हैं और नहीं भी। मिश्रित जातियों और अन्य लोगों के लिए निर्धारित पवित्र धागा पहनने के सटीक नियमों से अच्छी तरह से परामर्श किया जाना चाहिए और यह तय किया जाना चाहिए कि वे पवित्र धागा पहन सकते हैं या नहीं।


◙ पुरुषाघोर वामाजमन्त्रा विप्रदिततः क्रमात्‌।
स्वस्वजात्युक्त मन्त्रेण घार्य तदुपवीतकम्‌॥101
(कामिका आगम 3:101)
अर्थात -तत्पुरुष मन्त्र, अघोर मन्त्र, वामदेव मन्त्र के जाप से पवित्र धागा धारण करना चाहिए। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों द्वारा क्रमशः मंत्र और सद्योजाता मंत्र जैसे निर्धारित विशेष मंत्र के पाठ के साथ पहना जा सकता है।


🍁ज्यादा से ज्यादा लोगो को शिक्षा मिल सके और अधिक लोग द्विज बन सके वैदिक युग आने पर वर्ण व्यवस्था में कुछ नए और लाभकारी विधान जोड़े गए थे इसके लिए उपनयन कराने का अधिकार सभी द्विज वर्णों को दिया गया था -


◙ ‘ब्राह्मणस्त्रयाणां वर्णानामुपनयनं कर्त्तुमर्हति, राजन्यो द्वयस्य, वैश्यस्य, शूद्रमपि कुल-गुण-सपन्नं मन्त्रवर्जमुपनीतमध्यापये-दित्येके।’’


(सुश्रुत संहिता - सूत्रस्थान : 2)


अर्थात -‘ब्राह्मण अपने सहित तीन ( क्षत्रिय , वैश्य , शुद्र ) वर्णों का, क्षत्रिय अपने सहित दो (वैश्य , शुद्र ) का, वैश्य अपने सहित एक वर्ण (शुद्र ) का उपनयन करा सकता है। यह (यगोपवीत ) संस्कार यज्ञपूर्वक ही होता है।

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【शूद्र  के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम】

◙ शूद्रस्य ब्रह्मचर्यं च मुनिभिः कैश्चिदिष्यते 

( योग याज्ञवल्क्य 1:36)

अर्थ -याज्ञवल्क्य कहते हैं कि  ऋषि - मुनि शूद्रों के लिए ब्रह्मचर्य-आश्रम स्वीकार करते हैं। 

यह आश्रम विशेष रूप से शिक्षा (वेदाध्ययन) के लिए है।इस आश्रम में शिक्षा पूर्ती के बाद सभी को उनका योग्यतानुसार वर्ण आचार्य द्वारा मिलता है जो शिक्षा से वंचित रह जाता है वो शूद्र ही रह जाता है


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