अध्याय एक
कुरुक्षेत्र के
युद्धस्थल में सैन्य निरिक्षण
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे
कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |
मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय || १ ||
अनुवाद
धृतराष्ट्र ने कहा -- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से
एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?
अध्याय दो--गीता का सार
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् || ७ ||
अनुवाद
अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया
हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था मैं
आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका
शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें |
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्र्च भाषसे |
गतासूनगतासूंश्र्च नानुशोचन्ति पण्डिताः || ११ ||
अनुवाद
श्री भगवान् ने कहा
– तुम पाण्डित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक करने योग्य नहीं
है |
जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवितके लिए, न ही मृत के लिए शोक
करते हैं |
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्र्च भाषसे |
गतासूनगतासूंश्र्च नानुशोचन्ति पण्डिताः || ११ ||
अनुवाद
श्री भगवान् ने कहा
– तुम पाण्डित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक करने योग्य नहीं
है | जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवित के लिए, न ही मृत के लिए
शोक करते हैं |
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति || १३ ||
अनुवाद
जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था
में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु
होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है | धीर व्यक्ति ऐसे
परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता |
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |
अगामापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत || १४ ||
अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! सुख तथा दुख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अन्तर्धान
होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने जाने के समान है | हे भरतवंशी! वे
इन्द्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन
करना सीखे |
न जायते म्रियते वा कदाचिन्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्र्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे || २० ||
अनुवाद
आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु | वह न तो कभी जन्मा
है,
न जन्म लेता है और न जन्म लेगा |वह अजन्मा, नित्य, शाश्र्वत तथा पुरातन
है |
शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता
वांसासि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्य-
न्यानि संयाति नवानि देहि || २२ ||
अनुवाद
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा
पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है |
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः |
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः || २३ ||
अनुवाद
यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा
जलाया जा सकता है,
न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है |
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च |
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि || २७ ||
अनुवाद
जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के
पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है | अतः अपने
अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए |
देही नित्यमवध्योऽयं
देहे सर्वस्य भारत |
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि || ३० ||
अनुवाद
हे भारतवंशी! शरीर
में रहने वाले (देही) का कभी भी वध नहीं किया जा सकता । अतः तुम्हें किसी भी जीव
के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है ।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति
प्रत्यवायो न विद्यते |
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् || ४० ||
अनुवाद
इस प्रयास में न तो हानि होती है न ही ह्रास अपितु इस पथ पर की गई अल्प प्रगति
भी महान भय से रक्षा कर सकती है |
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |
बहुशाखा ह्यनन्ताश्र्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् || ४१ ||
अनुवाद
जो इस मार्ग पर (चलते) हैं वे प्रयोजन में दृढ़ रहते हैं और उनका लक्ष्य भी एक
होता है |
हे कुरुनन्दन! जो दृढ़प्रतिज्ञ नहीं है उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त
रहती है |
भोगैश्र्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् |
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते || ४४ ||
अनुवाद
जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्र्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से ऐसी
वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं, उनके मनों में
भगवान् के प्रति भक्ति का दृढ़ निश्चय नहीं होता |
त्रैगुण्यविषया वेदा
निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन |
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् || ४५ ||
अनुवाद
वेदों में मुख्यतया प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है | हे अर्जुन! इन तीनों
गुणों से ऊपर उठो |
समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्म-परायण
बनो |
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके |
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः || ४६ ||
अनुवाद
एक छोटे से कूप का सारा कार्य एक विशाल जलाशय से तुरन्त पूरा हो जाता है | इसी प्रकार वेदों
के आन्तरिक तात्पर्य जानने वाले को उनके सारे प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं |
विषया विनिवर्तन्ते
निराहारस्य देहिनः |
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते || ५९ ||
अनुवाद
देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की
इच्छा बनी रहती है |
लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बन्द करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है |
ध्यायतो
विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते |
सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || ६२ ||
अनुवाद
इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाति है
और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से
क्रोध प्रकट होता है |
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः |
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति || ६३ ||
अनुवाद
क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है | जब स्मरणशक्ति
भ्रमित हो जाति है,
तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव-कूप में पुनः गिर
जाता है |
रागद्वेषविमुक्तैस्तु
विषयानिन्द्रियैश्र्चरन् |
आत्मवश्यैर्विधेयात्माप्रसादधिगच्छति || ६४ ||
अनुवाद
किन्तु समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इन्द्रियों को संयम द्वारा वश में करने
में समर्थ व्यक्ति भगवान् की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है |
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी |
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः || ६९ ||
अनुवाद
जो सब जीवों के लिए रात्रि है, वह आत्मसंयमी के
जागने का
समय है और जो समस्त जीवों के जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षक मुनि
के लिए रात्रि है |
अध्याय तीन कर्मयोग
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र
लोकोऽयं कर्मबन्धनः |
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङगः समाचर || ९ ||
अनुवाद
श्रीविष्णु के लिए
यज्ञ रूप में कर्म करना चाहिए, अन्यथाकर्म के
द्वारा इस भौतिक जगत् में बन्धन उत्पन्न होता है |अतः हे
कुन्तीपुत्र! उनकी प्रसन्नता के लिए अपने नियत कर्म करो| इस तरह तुम बन्धन
से सदा मुक्त रहोगे |
अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः || १४ ||
अनुवाद
सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न
होता है |
वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है |
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते || २१ ||
अनुवाद
महापुरुष जो जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति
उसी का अनुसरण करते हैं | वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत
करता है, सम्पूर्ण विश्र्व उसका अनुसरण करता है |
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |
अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || २७ ||
अनुवाद
जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का
कर्ता मान बैठता है,
जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों
द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं |
श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् || ३७ ||
अनुवाद
श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न
काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस
संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है |
अध्याय चार---दिव्य ज्ञान
श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् || १ ||
अनुवाद
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव
विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को
उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश
इक्ष्वाकु को दिया |
एवं
परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु: |
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप || २ ||
अनुवाद
इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों
ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह
परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त
हो गया लगता है |
स एवायं मया तेऽद्य
योगः प्रोक्तः पुरातनः |
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् || ३ ||
अनुवाद
आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का
विज्ञान,
तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे
भक्त तथा मित्र हो,
अतः तुम इस विज्ञानके दिव्य रहस्य को समझ सकते हो |
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्र्वरोऽपि सन् |
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया || ६ ||
अनुवाद
यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी
हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में
प्रकट होता हूँ |
यदा यदा हि धर्मस्य
ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् || ७ ||
अनुवाद
हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की
प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||
अनुवाद
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश
करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || ९ ||
अनुवाद
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को
छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन
धाम को प्राप्त होता है |
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः |
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः || १० ||
अनुवाद
आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें पूर्णतया तन्मय होकर और मेरी
शरण में आकर बहुत से व्यक्ति भूत काल में मेरे
ज्ञान से पवित्र हो चुके हैं | इस प्रकार से उन सबों ने मेरे
प्रति दिव्यप्रेम को प्राप्त किया है |
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || ११ ||
अनुवाद
जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं
उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ
का अनुगमन करता है |
चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः |
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || १३ ||
अनुवाद
प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसा र मेरे द्वारा मानव
समाज के चार विभाग रचे गये | यद्यपि मैं इस व्यवस्था का
स्त्रष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जाना लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ |
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः || ३४ ||
अनुवाद
तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो | उनसे विनीत होकर
जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो | स्वरुपसिद्ध व्यक्ति
तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं , क्योंकि उन्होंने
सत्य का दर्शन किया है |
अध्याय पाँच
कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
विद्याविनयसम्पन्ने
ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |
शुनि चैव श्र्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः || १८ ||
अनुवाद
विनम्र साधुपुरुष
अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान्
तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल
को समानदृष्टि (समभाव) से देखते हैं |
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते |
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः || २२ ||
अनुवाद
बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के
संसर्ग से उत्पन्न होते हैं | हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि
तथा अन्त होता है,
अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता |
भोक्तारं
यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् |
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति || २९ ||
अनुवाद
मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं
का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी
जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से
शान्ति लाभ-करता है |
अध्याय छह----ध्यानयोग
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु |
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा || १७ ||
अनुवाद
जो खाने,
सोने,
आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा
समस्त भौतिक
क्लेशों को नष्ट कर सकता है |
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्र्वती: समाः |
श्रुचीनां श्रीमतां ग्रेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते || ४१ ||
अनुवाद
असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक भोग करने के बाद
या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या कि धनवानों के
कुल में जन्म लेता है |
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना |
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः || ४७ ||
अनुवाद
और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्तःकरण में
मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य
प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में
युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है | यही मेरा मत है |
अध्याय सात---भगवद्ज्ञान
मनुष्याणां
सहस्त्रेषु कश्र्चिद्यतति सिद्धये |
यततामपि सिद्धानां कश्र्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः || ३ ||
अनुवाद
कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है
और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई मुझे वास्तव में जान
पाता है |
भूमिरापोऽनलो वायु:
खं मनो बुद्धिरेव च |
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा || ४ ||
अनुवाद
पृथ्वी,
जल,
अग्नि,
वायु,
आकाश,
मन,
बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से
विभक्त मेरी भिन्ना (अपर) प्रकृतियाँ हैं |
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् |
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् || ५ ||
अनुवाद
हे महाबाहु अर्जुन! इनके अतिरिक्त मेरी एक अन्य परा शक्तिहै जो उन जीवों से
युक्तहै, जो इस भौतिक अपरा प्रकृति केसाधनों का विदोहन कर रहे हैं |
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय |
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव || ७ ||
अनुवाद
हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है | जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते
हैं,
उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है |
दैवी ह्येषा
गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते || १४ ||
अनुवाद
प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे
शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं |
न मां दुष्कृतिनो
मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः |
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः || १५ ||
अनुवाद
जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया
गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण
करने वाले हैं,
ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते |
चतुर्विधा भजन्ते
मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन |
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ || १६ ||
अनुवाद
हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते
हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा
ज्ञानी |
तेषां ज्ञानी
नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते |
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः || १७ ||
अनुवाद
इनमें से जो
परमज्ञानी है और शुद्धभक्ति में लगा रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे
अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे प्रिय है |
नाहं प्रकाशः
सर्वस्य योगमायासमावृतः |
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् || २५ ||
अनुवाद
मैं मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूँ | उनके लिए तो मैं
अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूँ, अतः वे यह नहीं जान
पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ |
वेदाहं समतीतानि
वर्तमानानि चार्जुन |
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्र्चन || २६ ||
अनुवाद
हे अर्जुन! श्रीभगवान् होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित
हो रहा है और जो
आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ | मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ, किन्तु मुझे कोई
नहीं जानता |
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत |
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप || २७ ||
अनुवाद
हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से
उत्पन्न द्वन्द्वों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते हैं |
येषां त्वन्तगतं
पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् |
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः || २८ ||
अनुवाद
जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किये हैं और जिनके
पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन हो चुका होता है, वे मोह के
द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्पपूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं
|
अध्याय आठ --भगवत्प्राप्ति
अन्तकाले च मामेव
स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः || ५ ||
अनुवाद
और जीवन के अन्त में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता
है, वह तुरन्त मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है | इसमें रंचमात्र भी
सन्देह नहीं है |
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः || ६ ||
अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भावका स्मरण करता है, वह उस उस भाव को
निश्चित रूप से प्राप्त होता है |
तस्मात्सर्वेषु
कालेषु मामनुस्मर युध्य च |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः || ७ ||
अनुवाद
अतएव, हे अर्जुन!
तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और
साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना
चाहिए | अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं
बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे
प्राप्त कर सकोगे |
अनन्यचेताः सततं यो
मां स्मरति नित्यशः |
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः || १४ ||
अनुवाद
हे अर्जुन! जो अनन्य भाव से निरन्तर मेरा स्मरण करता है उसके लिए मैं सुलभ
हूँ,
क्योंकि वह मेरी भक्ति में प्रवृत्त रहता है |
मामुपेत्य
पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्र्वतम् |
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः || १५ ||
अनुवाद
झे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य
जगत् में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धिप्राप्त हो चुकी होती है |
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन |
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते || १६ ||
अनुवाद
इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण
का चक्कर लगा
रहता है |
किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म
नहीं लेता |
वेदेषु यज्ञेषु
तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् |
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्
|| २८ ||
अनुवाद
जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा
सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता | वह मात्र भक्ति
सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता
है और अन्त में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है |
अध्याय नौ---परम गुह्य ज्ञान
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् |
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ||
२ ||
अनुवाद
यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों
में सर्वाधिक गोपनीय है | यह परम शुद्ध है और
चूँकि यह
आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का
सिद्धान्त है |
यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता
है |
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि
सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित: ।। 4 ।।
अनुवाद
यह सम्पूर्ण जगत्
मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त है । समस्त जीव सुझमें है, किन्तु मैं उनमें
नही हुं ।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते || १० ||
अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता
में कार्य करती है,
जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न
होते हैं |
इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट
होता रहता है |
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् |
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्र्वरम् || ११ ||
अनुवाद
जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं | वे मुझ
परमेश्र्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते |
मोघाशा मोघकर्माणो
मोघज्ञाना विचेतसः |
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः || १२ ||
अनुवाद
जो लोग इस प्रकार
मोहग्रस्त होते हैं,
वे आसुरी तथा
नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं | इस मोहग्रस्त अवस्था
में उनकी मुक्ति-आशा, उनके सकाम कर्म तथा ज्ञान का अनुशीलन
सभी निष्फल हो जाते हैं |
महात्मानस्तु मां
पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः |
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् || १३ ||
अनुवाद
हे पार्थ! मोहमुक्त
महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं | वे पूर्णतः भक्ति
में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान् के
रूप में जानते हैं |
सततं कीर्तयन्तो मां
यतन्तश्र्च दृढव्रताः |
नमस्यन्तश्र्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते || १४ ||
अनुवाद
ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढसंकल्प के साथप्रयास करते
हुए,
मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरन्तर मेरी पूजा
करते हैं|
अनन्याश्र्चिन्तयन्तो
मां ये जनाः पर्युपासते
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् || २२ ||
अनुवाद
किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर
मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा
करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता
हूँ |
यान्ति देवव्रता
देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः|
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् || २५ ||
अनुवाद
जो देवताओं की पूजा
करते हैं,
वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे, जो पितरों को पूजते
हैं,
वे पितरों के पास जाते हैं, जो भूत-प्रेतों की
उपासना करते हैं,
वे उन्हीं के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ निवास
करते हैं |
पत्रं पुष्पं फलं
तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः || २६ ||
अनुवाद
यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार
करता हूँ |
यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् |
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् || २७ ||
अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते
हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित
करते हुए करो |
समोऽहं
सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः |
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् || २९ ||
अनुवाद
मैं न तो किसी से द्वेष करता हूँ, न ही किसी के साथ
पक्षपात करता हूँ | मैं सबों के लिए
समभाव हूँ | किन्तु जो भी भक्तिपूर्वक मेरी सेवा करता
है, वह मेरा मित्र है, मुझमें स्थित
रहता है और मैं भी उसका मित्र हूँ |
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् |
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः || ३० ||
अनुवाद
यदि कोई जघन्य से
जघन्य कर्म करता है,
किन्तु यदि वह
भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्योंकि वह अपने
संकल्प में अडिग रहता है |
मांहिपार्थव्यपाश्रित्ययेऽपिस्यु:
पापयोनयः |
स्त्रियोवैश्यास्तथा शुद्रास्तेऽपियान्तिपरांगतिम् || ३२ ||
अनुवाद
हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही
निम्नजन्मा स्त्री, वैश्य (व्यापारी) तथा शुद्र (श्रमिक) क्यों न हों,वे परमधाम को
प्राप्त करते हैं |
मन्मनाभवमद्भक्तोमद्याजीमांनमस्कुरु
|
मामेवैष्यसियुक्त्वैवमात्मनंमत्परायणः || ३४ ||
अनुवाद
अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और
मेरी ही पूजा करो |
इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त
होगे |
अध्याय --दस श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
अहं सर्वस्य
प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः || ८ ||
अनुवाद
मैं समस्त
आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु
मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी
प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में
तत्पर होते हैं |
मच्चित्ता
मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||
अनुवाद
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा
में
अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए
परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||
अनुवाद
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान
प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं
तमः |
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता || ११ ||
अनुवाद
मैं उन पर विशेष
कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के
द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ |
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् || १२ ||
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा |
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे || १३ ||
अनुवाद
अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा
महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास
जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे
हैं |
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं
श्रीमदूर्जितमेव वा |
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् || ४१ ||
अनुवाद
तुम जान लो कि सारा ऐश्र्वर्य, सौन्दर्य तथा
तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं |
किसी भी तेजस्वी या सुन्दर सृष्टि को, चाहे वह अध्यात्म
जगत
में हो या इस जगत में, कृष्ण की विभूति का अंश रूप ही मानना चाहिए
अध्याय ग्यारह --विराट रूप
भक्त्या
त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन |
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप || ५४ ||
अनुवाद
हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा
जा सकता है, जिसरूप में मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा
साक्षात् दर्शन भीकिया जा सकता है | केवल इसी विधि से
तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकतेहो |
मत्कर्मकृन्मत्परमो
मद्भक्त: सङ्गवर्जित: ।
निर्वैर: सर्वभूतेषु
य: स मामेति पाण्ङव ।। 55 ।।
अनुवाद
हे अर्जुन जो
व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त होकर, मेरी शुध भक्ति में
तत्पर रहता है ,
जो मेरे लिए ही कर्म करता है, जो मुझे ही जीवन
लक्ष समझता है और जो प्रत्यक जीव से
मैत्रीभाव रखता है,
वह निश्यय ही मुझे प्राप्त करता है ।
अध्याय बारह -- भक्तियोग
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् |
अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्यते || ५ ||
अनुवाद
जिनलोगों के मन परमेश्र्वर के अव्यक्त, निराकार स्वरूप के प्रति आसक्त हैं, उनके लिए प्रगति कर पाना अत्यन्त कष्टप्रद है | देहधारियों के लिए उसक्षेत्र में प्रगति कर पाना सदैव
दुष्कर होता है |
मय्येव मन आधत्स्व
मयि बुद्धिं निवेश्य |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः || ८ ||
अनुवाद
मुझ भगवान् में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी सारी बुद्धि मुझमें लगाओ | इस प्रकार तुम
निस्सन्देह मुझमें
सदैव वास करोगे |
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् |
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय || ९ ||
अनुवाद
हे अर्जुन, हे धनञ्जय! यदि
तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर
स्थिर नहीं कर सकते, तो तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का
पालन करो | इस प्रकार तुम मुझे प्राप्त करने की चाह उत्पन्न करो |
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि
मत्कर्मपरमो भव |
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि || १० ||
अनुवाद
यदि तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का भी अभ्यास नहीं कर सकते, तो मेरे लिए कर्म
करने का प्रयत्न करो, क्योंकि मेरे लिए कर्म करने से तुम पूर्ण अवस्था
(सिद्धि) को प्राप्त होगे |
अध्याय चौदह---प्रकृति के तीन गुण
सर्वयोनिषु
कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः |
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता || ४ ||
अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक
प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका
बीज-प्रदाता पिता हूँ |
मां च योऽव्यभिचारेण
भक्तियोगेन सेवते |
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते || २६ ||
अनुवाद
जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही
प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुँच जाता है
|
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च |
शाश्र्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च || २७ ||
अनुवाद
और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा
शाश्र्वत है और चरम सुख का स्वाभाविक पद है |
अध्याय पन्द्रह ---पुरुषोत्तम योग
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा
अध्यात्मनित्या
विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-
र्गच्छन्त्यमूढाः
पदमव्ययं तत् ॥ १५- ५ ॥
अनुवाद
जो झूठी प्रतिष्ठा, मोह तथा कुसंगति से मुक्त हैं,जो शाश्र्वत तत्त्व
को समझते हैं,
जिन्होंने भौतिक काम को नष्ट कर दिया है, जो सुख तथा दुख के
द्वन्द्वसे मुक्त हैं और जो मोहरहित होकर परम पुरुष के शरणागत होना चाहते हैं, वे उस शाश्र्वत
राज्य को प्राप्त होते हैं ।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः |
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम || ६ ||
अनुवाद
वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि
या बिजली से । जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत्
में फिर से लौट कर नहीं आते ।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति || ७ ||
अनुवाद
इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों
इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी
सम्मिलित है ।
सर्वस्य चाहं
ह्रदि सन्निविष्टो
मत्तः
स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव
चाहम् || १५ ||
अनुवाद
मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति
होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं
वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने
वाला हूँ |
यो मामेवमसम्मूढो
जानाति पुरुषोत्तमम् |
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत || १९ ||
अनुवाद
जो कोई भी मुझे संशयरहित होकर पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में जानता है, वह सब कुछ जानता है
। अतएव हे भरतपुत्र! वह व्यक्ति मेरी पूर्ण भक्ति में रत होता है ।
अध्याय अठारह
उपसंहार - संन्यास की सिद्धि
शमो दमस्तपः शौचं
क्षान्तिरार्जवमेव च |
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् || ४२ ||
अनुवाद
शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता , सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा
धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं , जिनके द्वारा
ब्राह्मण कर्मकरते हैं |
ब्रह्मभूतः
प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति |
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् || ५४ ||
अनुवाद
इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरन्त परब्रह्म
का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है | वह न तो कभी शोक
करता है,
न किसी वस्तु की कामना करता है | वह प्रत्येक जीव पर
समभाव रखता है |
उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है |
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्र्चास्मि तत्त्वतः |
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् || ५५ ||
अनुवाद
केवल भक्ति से मुझ भगवान् को यथारूप में जाना जा सकता है | जब मनुष्य ऐसी
भक्ति से मेरे पूर्ण भावनामृत में होता है, तो वह वैकुण्ठ
जगत् में प्रवेश कर सकता है |
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि |
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि || ५८ ||
अनुवाद
यदि तुम मुझसे भावनाभावित होगे, तो मेरी कृपा से तुम
बद्ध
जीवन के सारे अवरोधों को लाँघ जाओगे | लेकिन यदि तुम
मिथ्या अहंकारवश ऐसी चेतना में कर्म नहीं करोगे और मेरी बात नहीं सुनोगे, तो तुम विनष्ट हो
जाओगे |
ईश्र्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति |
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढ़ानि मायया || ६१ ||
अनुवाद
हे अर्जुन! परमेश्र्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और भौतिक शक्ति से
निर्मित यन्त्र में सवार की भाँति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा (भरमा)
रहे हैं |
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || ६५ ||
अनुवाद
सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और
मुझे नमस्कार करो |
इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन
देता हूँ,
क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः || ६६ ||
अनुवाद
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से
तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
य इदं परमं गुह्यं मद्भकतेष्वभिधास्यति |
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः || ६८ ||
अनुवाद-
-जो व्यक्ति भक्तों
को यह परम रहस्य बताता है, वह शुद्ध भक्ति को प्राप्त करेगा और अन्त में वह मेरे
पास वापस आएगा |
न च
तस्मान्मनुष्येषु कश्र्चिन्मे प्रियकृत्तमः |
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि || ६९ ||
अनुवाद
इस संसार में
उसकी अपेक्षा कोई अन्य सेवक न तो मुझे अधिक प्रिय है और न कभी होगा |
यत्र योगेश्र्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम || ७८ ||
अनुवाद
जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा
नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है
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