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प्रमाणिकता
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【पंचरात्रिक मत के अन्य नाम】
"एकांतिक" वैष्णव संप्रदाय का प्राचीन नाम है। इस संप्रदाय का सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथों में पंचरात्र है जिस कारण इसे पंचरात्र मत भी कहा जाता है। वैष्णव संप्रदाय को प्राचीन काल में अनेक नामों से पुकारते थे जिनमें भागवत, सात्वत तथा पांचरात्र नाम विशेष विख्यात हैं। एकांतिक' शब्द का अर्थ है - वह धर्म जिसमें एक ही (भगवान्) का सिद्धांत माना जाए। भागवत धर्म का प्रधान तत्व है प्रपत्ति या शरणागति। भगवान् की शरण में जाने पर ही जीव का कल्याण होता है।
सूरि: सुहृद् भागवत: सात्वत: पंचकालवित्।
एकान्ति कस्तन्मयश्च पांचरात्रिक इत्यपि॥
(पद्मतंत्र 4:2:88)
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【पंचरात्रिक मत के प्रवर्तक ऋषि 】
शुक्ल यजुर्वेद की काण्व शाखा का ही नाम 'एकायन शाखा' है, ऐसा 'काण्व शाखामहिमा संग्रह' नामक ग्रंथ में नागेश का कथन है। इस मत की पुष्टि 'जयाख्य संहिता' से भी होती है। इस संहिता के अनुसार पांचरात्र (वेष्णव मत) के प्रवर्तक पाँचों ऋषि, जिनके नाम औपगायन, कौशिक, शांडिल्य, भरद्वाज तथा मौंजायन हैं, काण्व शाखा के अध्येता बतलाए गए हैं -
शाण्डिल्यश्च भरद्वाजो मुनिर्मौञ्जायनस्तथा
इमौ च पञ्चगोत्रस्था मुख्याः काण्वीमुपाश्रिताः ।
(जयाख्य संहिता 1: 116)
पारम्परिक दृष्टि से पाञ्चरात्र नाम की व्याख्या पाँच ऋषि-गणों (शाण्डिल्य, औपगायन, मौआयन, कौशिक तथा भारद्वाज) द्वारा प्रवर्तित शास्त्र पाञ्चरात्र कहा गया, ईश्वर संहिता में उल्लेख है कि-
पञ्चायुधांशास्ते पञ्च शाण्डिल्यश्चौपगायनः ।
मौ आयनः कौशिकश्च भारद्वाजश्च योगिनः ॥
(ईश्वर संहिता 21.519-33)
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【पंचरात्रिक एकायन शाखा 】
'एकांतिक' तथा 'एकायन' दोनों शब्द प्राचीन भागवत संप्रदाय के लिए प्रयुक्त होते थे । उपनिषद् युग में भागवत धर्म 'एकायन' नाम से प्रख्यात था जो 'एकांतिक' का ही एक नूतन अभिधान है। छांदोग्य उपनिषद् में भूमाविद्या के वर्णनप्रसंग में नारद के द्वारा अधीत विद्याओं में 'एकायनविद्या' के नाम का प्रथम उल्लेख उपलब्ध होता है-
ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमथर्वाणं वाकोवाक्यमेकायन च।
(छांदोग्य उपनिषद् 7: 1:2)
इस शब्द के अर्थ के विषय में प्राचीन टीकाकारों में मतभेद है। रंग रामानुज नामक श्रीवैष्णव टीकाकार की सम्मति में 'एकायन' शब्द वेद की 'एकायन शाखा' का द्योतक है जिसका साक्षात् संबंध भागवत् या वैष्णव संप्रदाय से है। नागेश ने अपने ग्रन्थ काण्व शाखा महिमा संग्रह में कहा है कि एकायन शुक्ल यजुर्वेदीय काण्व शाखा है।
काण्वीं शाखामधीयानान् वेदवेदान्तपारगान् ।
संस्कृत्य दीक्षया सम्यक् सात्वतायुक्तमार्गतः ॥
(ईश्वर संहिता 25:94)
वेद वेदान्त के अधिकृत विद्वान् और काण्वी अर्थात् एकायनी शाखा में अधीत होकर सम्यक् वैष्णव दीक्षा से संस्कार प्राप्त करके ही मनुष्य सात्वत धर्म (वैष्णव धर्म) के युक्ति संगत मार्ग को प्राप्त कर सकता है।
इस बात की पुष्टि करते हुवे सात्वत संहिता 25:96 में उल्लेख है-
"एकायनान् यजुर्मयान श्रावि तदनन्तरम् "
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【पंचरात्र की प्राचीनता 】
🍁शतपथ ब्राह्मण से प्रमाण-
“पुरुषो ह वै नारायणोकामयत । अतितिष्ठेयं सर्वाणि भूतानि अहमेवेदं सर्व स्याम् इति । स एतं पु- 'रुषमेधं पञ्चरात्रं यज्ञक्रतुम् अपश्यत् । तम् आहरत् । तेनायजत । 'नेनेष्ट्वात्यतिष्ठत् सर्वाणि भूतानि । इदं सर्वम् अभवत् इति "
(शतपथ ब्राह्मण 13:6:1:1)
🍁महाभारत से प्रमाण-
1-एवमेकं साङ्ख्ययोगं वेदारण्यकमेव च | परस्पराङ्गान्येतानि पञ्चरात्रं च कथ्यते || ७६||
एष एकान्तिनां धर्मो नारायणपरात्मकः ||७६||
(महाभारत - शान्तिपर्व 12:336:76)
2-पञ्चरात्रस्य कृत्स्नस्य वेत्ता तु भगवान्स्वयम् ।६३||
(महाभारत - शान्तिपर्व 12:337:63)
3-साङ्ख्यं योगं पञ्चरात्रं वेदाः पाशुपतं तथा
ज्ञानान्येतानि राजर्षे विद्धि नानामतानि वै || ५९ ||
(महाभारत - शान्तिपर्व 12:337:59)
4-इदं महोपनिषदं चतुर्वेदसमन्वितम् |
साङ्ख्ययोगकृतं तेन पञ्चरात्रानुशब्दितम् || १०० ||
(महाभारत - शान्तिपर्व 12:326:100)
5-पञ्चरात्रविदो ये तु यथाक्रमपरा नृप ।
एकान्तभावोपगतास्ते हरिं प्रविशन्ति वै || ६७ ||
साङ्ख्यंचयोगं च सनातने द्वे वेदाश्च सर्वेनिखिलेन राजन् |
सर्वैः समस्तैरृषिभिर्निरुक्तो नारायणो विश्वमिदं पुराणम् || ६८
(महाभारत - शान्तिपर्व 12:337:67-68)
वेद, सांख्य, योग, पाशुपत तथा पांचरात्र में सन्निहित ज्ञानों में विरोधाभास नहीं अपितु सैद्धांतिक सामंजस्य है। जो समर्पियों के द्वारा प्रणीत पांचरात्र के ज्ञाता हैं तथा तदनुसार अनन्य शरणागत सेवापरायण भगवद्भक्त हैं, वे उन श्रीहरि में ही लीन हो जाते हैं।
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【पंचरात्र की चतुर्व्यूह प्रमाणिकता 】
शतपथ ब्राह्मण में पांचरात्र सूत्र का उल्लेख है। पांचरात्र साहित्य तीन भागों में विभक्त था -
1. पांचरात्र श्रुति ,
2. पांचरात्र उपनिषद् ,
3. पांचरात्र संहिता ।
पांचरात्र संहिताओं में जो चतुर्व्यूह का वर्णन है, वह भी इतिहास एवं पुराण सम्मत ही हैं-
🍁महाभारत से प्रमाण-
यो वासुदेवो भगवान्क्षेत्रज्ञो निर्गुणात्मकः |
ज्ञेयः स एव भगवाञ्जीवः सङ्कर्षणः प्रभुः || ३८ | |
सङ्कर्षणाच्च प्रद्युम्नो मनोभूतः स उच्यते | प्रद्युम्नाद्योऽनिरुद्धस्तु सोऽहङ्कारो महेश्वरः || ३९ ||
(महाभारत - शान्तिपर्व 12:326:38-39)
🍁श्रीमद्भागवतम् का प्रमाण-
वासुदेव: सङ्कर्षण: प्रद्युम्न: पुरुष: स्वयम् ।
अनिरुद्ध इति ब्रह्मन् मूर्तिव्यूहोऽभिधीयते ॥ २१ ॥
(श्रीमद भागवतम 12:11:21)
अर्थात्- वासुदेव, संकरण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध सर्वोच्च भगवान के प्रत्यक्ष व्यक्तिगत विस्तार के नाम हैं, हे ब्राह्मण शौनक.
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【 पंचरात्र और श्रुति 】
वैष्णव शास्त्र स्वयं अपने को श्रुतिमूलक सिद्ध करते हुए वेद की एकायन शाखा को अपना आधार बतलाता है। इसके अतिरिक्त यत्र-तत्र वैदिक आचार की मर्यादा को स्वीकार करने उसकी रक्षा करने की बात भी कही गयी है-
मनीषी वैदिकाचारं मनसाऽपि न लङ्घयेत् ।
यथा हि बल्लभो राज्ञो नदीं राज्ञा प्रवतिताम् ॥
(लक्ष्मीतन्त्र 17:96 )
एवं बिलङ्घयन् मर्त्यो मर्यादां वेदनिमिताम् ।
प्रियोऽपि न प्रियोऽसौ मे मदाज्ञाव्यनिवर्तनात् ॥
(लक्ष्मीतन्त्र 17:98)
इस प्रकार पंचरात्रिक /वैष्णव शास्त्र अपने ऊपर वेदविरोधी होने के आरोप का निराकरण करते हुए प्रतीत होते हैं।
पंचरात्र आगामो पर दूसरा आरोप यह लगाया गया कि यह शास्त्र वेदबाह्य जनों के द्वारा परिगृहीत है। इस कारण पाञ्चरात्र आगम अप्रामाणिक हैं। यामुनाचार्य ने इसका बड़ा ही सुन्दर उत्तर दिया है कि पाश्चरात्रिक वेदबाह्य हैं और वैदिक पाञ्च रात्रबाह्य , यदि वेदवाह्य जनों से परिगृहीत होने से पाञ्चरात्र अप्रमाण है तो पाञ्च रात्रबाह्य जनों से परिगृहीत होने से वेद अप्रमाण क्यों नहीं है ?
वेदबाह्यगृहीतत्वादप्रामाण्यवादि यत् ।
एतद्वाह्यगृहीतत्वाद् वेदानां कुतो न तत् ॥ ४
(आगमप्रामाण्यम् पृ० 62 )
तात्पर्य यह है कि यदि पाञ्चरात्र आगम वेदविद्या में अधिकृत को अपने में अधिकार देते हैं तो इसमें अप्रामाणिकता का कौन सा कारण है। वेद से विरोध तो वहां होता जहाँ पाञ्चरात्र वेद में उन्हें अधिकार प्रदान करता, जिन्हें वेद में अनधिकृत कहा गया है।
पंचरात्र वैष्णव सम्प्रदाय क अत्यंत प्राचीन ग्रन्थ हैं जो संस्कृत में हैं। पंचरात्र श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। पंचरात्र के सिद्धांतों की व्याख्या के लिए इनके अन्तर्गत 100 से अधिक ग्रन्थ आते हैं जिनमें ज्यादातर संहिता, तंत्र तथा उपनिषद है जिनकी रचना इतिहासकारों के अनुसार तृतीय शताब्दी ईसापूर्व से लेकर 850 ई तक की अवधि में होती रही है।
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धर्माधिकार
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【पंचरात्र और दिक्षा अधिकार】
🍁पंचरात्र आगम दीक्षा में स्त्री और शूद्रों को भी स्थान देते हैं। दीक्षायोग्य शिष्य के लक्षण बतलाते हुए पंचरात्र के तंत्र शास्त्र लक्ष्मीतन्त्र में कहा गया है—
कुलीनं च तथा प्राज्ञं शास्त्रार्थनिरतं सदा।
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं वा भगवत्परम्॥ ३९॥
ईदृग्लक्षणसंयुक्तं शिष्यमार्जवसंयुतम्।
वर्णधर्मक्रियोपेतां नारीं वा सद्विवेकिनीम्॥ ४०॥
विद्यादनुमते पत्युरनन्यां पतिमानिनीम्।
एवंलक्षणकं शिष्यमाचार्यो भगवन्मयः।
ज्ञापयेद्विधिवन्मन्त्रान् गुरुदृष्ट्या समीक्ष्य तु॥ ४१॥
(लक्ष्मीतन्त्र 21:39-41)
अर्थात - शिष्य को भी सर्वलक्षणयुक्त होना चाहिये उसे कुलीन, प्राज्ञ और शास्त्रार्थी चिन्तन मे निरत होना चाहिये । वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शुद्र अथवा कोई भगवद्भक्त भी हो सकता है । इस प्रकार से शिष्य के गुणों की समीक्षा करके भगवत्स्वरूप आचार्य उसे दीक्षा दे तथा वर्णधर्म-क्रिया में परायण तथा सदसद् का विवेक रखने वाली नारी को भी पति की अनुमति से आचार्य विधिवत् मन्त्रोपदेश उस स्त्री को करे ।
🍁स्त्री और शूद्रों को भी अधिकार -
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या दीक्षायोग्यास्त्रयः स्मृताः ।
जातिशीलगुणोपेताः शूद्राश्च स्त्रिय एव च ॥
(परम संहिता 7:24 )
अर्थात - ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों दीक्षा के योग्य माने जाते हैं; ऐसे शूद्र और स्त्रियाँ भी योग्य हैं जो अच्छे परिवार के हो या फिर अच्छे चरित्र और अच्छे गुणों के हो ।
स्त्रियः शूद्राश्चानुलोमाः कल्याणगुणसंयुताः ।
यदि तानपि शिष्यत्वे गृह्णीयात् कृपया गुरुः ॥ 27 ॥
(विश्वामित्र संहिता 3:27)
अर्थात - गुरु कृपा से स्त्री , शूद्र और (मिश्रित वर्ग) अनुलोम जो सद्गुणों से संपन्न है उन्हें दीक्षा के लिए भी स्वीकार किया जाता है ।
स्पष्ट है कि यहाँ पंचरात्रिक दिक्षा ग्रहण करने में स्त्री और शूद्रों के अधिकार का उल्लेख है।
🍁सभी प्राणियों को अधिकार -
विष्णुतत्त्वं परिज्ञाय एकं वानेकभेदवत् ॥
दीक्षयेन्मेदिनीं सर्वा किं पुनश्वोपसन्नवान् ।
(जयाख्य संहिता 16:10)
अर्थात - विष्णुतत्त्व को जानकर पृथ्वी के उपसन्न तथा अनुपसन्न सभी प्राणियों को दीक्षा देनी चाहिये।
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【पंचरात्र और दीक्षा आचार्य 】
विष्णुभक्तो गृहस्थश्च दीक्षाकर्म विचक्षणः ।
परोपकारनिरतः चक्रलिङ्ग घरस्तथा ॥
दीक्षातन्त्र मनाजीवन् केवलं कृत्यवत्सलः ।
यो निवृत्तश्रुतैर्युक्त आचार्यः परिकीर्तितः ॥
(परम संहिता 7:22-23)
अर्थात - उन्हें आचार्य कहा जाता है, जो विष्णु का भक्तभाव से परिपूर्ण है, एक विवाहित जीवन व्यतीत करने वाला हो , दीक्षा देने का पूरा ज्ञान रखने वाला हो , दूसरों की मदद करने के लिए हमेशा तत्पर रहने वाला हो, शरीर पर चक्र आदि के निशान बनवाये हो। दीक्षा को एक व्यवसाय के रूप में अपनाने के बिना , सांसारिक इच्छा से मुक्त , अपने कर्तव्य से काफी प्रेमवत हो और वैदिक शिक्षा का गहन ज्ञान रखते हो ।
किमप्यत्राभिजायन्ते योगिनः . सर्वयोनिषु ।
प्रत्यक्षितात्मनाथानां नैषां चिन्त्यं कुलादिकम् ॥४४॥
(भारद्वाज संहिता 1: 44)
अर्थात - इस संसार में योगीजन अनेक निष्कृष्ट तथा उत्तम योनि तथा जातियों में जन्म ले लेते हैं अतः जिसने अपनी साधनाओं के कारण ब्रह्म-तत्त्व का साक्षात्कार प्राप्त कर लिया हो ऐसे योगीजन के लिये कुलादि का विचार नहीं माना जाता है। अतः ऐसे किसी भी योगी से मन्त्रदीक्षा लेना निषिद्ध नहीं है।
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【पंचरात्र और प्रपत्ति/मोक्ष 】
प्रपत्ति अथवा शरणागति का सिद्धान्त पाञ्चरात्र आगमों का अत्यन्त महत्त्व पूर्ण सिद्धान्त है।
🍁प्रभु श्रीराम और प्रभु श्रीकृष्ण का वचन है -
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते |
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद व्रतं मम ||
(वाल्मीकि रामायण 6:18:33)
अर्थात - जो कोई एक बार भी ‘ मैं तुम्हारा हूँ ‘ – ऐसा कहकर शरणागत होता है उसे में समस्त प्राणियों से निर्भय कर देता हूँ यह मेरा व्रत है |
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
(गीता 18:66)
अर्थात - सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।
🍁पंचरात्र के संहिता और तंत्र शास्त्र में प्रपत्ति/मोक्ष का अधिकार -
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा इति विभेदतः ॥ ३७ ॥
आत्मानो जीवसंज्ञास्ते बन्धमोक्षौ व्रजन्ति ते ।
(अहिर्बुध्न्य संहिता 6 : 37)
अर्थात - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्णभेद से चार रूप में हो जाते हैं । आत्माओं की जीव संज्ञा है तथा वे बन्धन से मुक्ति , मोक्ष प्राप्त करते हैं।
अनन्योपाय सक्तस्य प्राप्येच्छोरधिकारिता |
प्रपत्तौ सर्ववर्णस्य सात्विकत्वादियोगतः ॥
सा हि सर्वत्र सर्वेषां सर्वकामफलप्रदा ।
इति सर्वफलप्राप्तौ सर्वेषां विहिता यतः ॥
(सनत्कुमार संहिता)
अर्थात-आसक्ति का त्याग करने वाला और प्राप्य वस्तुमें रुचि रखनेवाला ही प्रपत्ति का अधिकारी है। इसमें वर्णाश्रमादि का नियम नहीं है, जीवमात्र का इसमें अधिकार है । सब वर्णों एवं सभी आश्रमोंके लोगोंको तथा स्त्री, शूद्र, अन्त्यजादि सबको सर्वत्र सम्पूर्ण फल देनेवाली प्रपत्तिका शास्त्रोंने विधान किया है । "
तत्र धर्मान् परित्यज्य सर्वानुच्वावधाकान् ।
संसारानलसंतप्तो मामेकां शरणं व्रजेत् ॥ ४३ ॥
अहं हि शरणं प्राप्ता नरेणानन्यचेतसा ।
प्रापयाम्यात्मनात्मानं निर्घृताखिलकल्मषम् ॥ ४४ ॥
( लक्ष्मी तंत्र 16: 43-44)
अर्थात- सभी प्रकार के धर्मो (वर्णधर्म, आश्रमधर्म एवं कुलधर्म) को त्याग कर संसाराग्नि से उत्तप्त साधक मेरी शरण में आवे। इस प्रकार अनन्य चित्त वाले साधक जब मेरी शरण में आ जाते हैं, तब मैं उसका पाप मुक्त करके उसे प्राप्त होती हूं॥
स्पष्ट है कि शरणागति मानवमात्र के ही लिए न होकर प्राणिमात्र के लिए है ।
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【पंचरात्र और वेदाध्यन अधिकार 】
ये हि ब्रह्ममुखादिभ्यो वर्णाश् चत्वार उद्गताः ॥ २० ॥
ते सम्यगधिकुर्वन्ति त्रय्यादीनां चतुष्टयम् ।२१
(अहिर्बुध्न्य संहिता 15 :20-21)
अर्थात- ब्राह्मणदि चार वर्ण ब्रह्मदेव के मुख से उत्पन्न हुये हैं, वे ही प्रकार से त्रयी (वेद) आदि अध्ययन पर अधिकार रखते हैं।
इससे स्पष्ट होता है की पंचरात्र के शास्त्र वेदों पर चारों वर्णों को समान अधिकार देते हैं ।
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【पंचरात्र और शरणागत 】
दुराचारोऽपि सर्वाशी कृतघ्नो नास्तिकः पुरा ।
समाश्रयेदादिदेवं श्रद्धया शरणं यदि ॥ २३ ॥
निर्दोषं विद्धि तं जन्तुं प्रभावात् परमात्मनः ।
(सात्वत संहिता 16:23)
अर्थात- दुराचारी, कुत्ते, चाण्डाल के समान सब का सब कुछ खाने वाला, सर्वाशी, कृतघ्न, नास्तिक भी यदि श्रद्धापूर्वक आदिदेव परमात्मा की शरण ग्रहण करे, तो उसे परमात्मा के प्रभाव से सर्वथा दोषमुक्त समझना चाहिये ।
प्राप्तुमिच्छन्परां सिद्धिं जनः सर्वोऽप्यकिञ्चनः ।
श्रद्धया परया युक्तो हरि शरणमाश्रयेत ॥१.१३॥
न जातिभेदं न कुलं न लिड्गं न गुणक्रिया ।
न देशकालौ नावस्थां योगो यमपेक्षते ॥१.१४॥
ब्रह्मक्षत्रविशः शूद्राः स्त्रियाश्चान्तरजास्तथा ।
सर्व एवं प्रपद्येरन् सर्वधातारमच्युतम् ॥१.१५॥
(भारद्वाज संहिता 1:15)
अर्थात- जो परम सिद्धि को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें चाहिये कि अकिञ्चन भाव से, परम श्रद्धा से युक्त होकर भगवान श्री हरि की शरण ले । शरणागति के इस न्यास योग (या पाञ्चरात्रिक विधि) को अंगीकार करने में जाति, कुल, लिंग, गुण-कर्म, देश, काल, पात्र, अवस्था आदि किसी भी वस्तु का चिन्तन करने की आवश्यकता नहीं है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, अन्त्यज, और अन्य कोई भी व्यक्ति क्यों न हो, उसे परम श्रद्धा से, सभी जीवों के धाता (पालनकर्ता) भगवान् अच्युत की शरण लेनी चाहिये ।
क्या यह वैष्णवों के लिए विशेष विचार नहीं है, कि कोई भी भगवान् हरि की शरण ले सकता है, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, ब्राह्मण हो या शूद्र, सत्कुली हो या दुष्कुली ।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वैष्णव संप्रदाय में सभी मनुष्यों को स्वीकार किया जाता है किसी से कोई भेदभाव नहीं किया जाता ।
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【पंचरात्र और व्यव्हार व्यवस्था 】
मयीव सर्वभूतेषु ह्यानुकूल्यं समाचरेत्।
तथैव प्रातिकूल्यं च भूतेषु परिवर्जयेत्॥ ६७॥
( लक्ष्मी तंत्र 17 : 67)
अर्थात- मनुष्य को सभी प्राणियों के प्रति वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा कोई मेरे प्रति करता है। इसी प्रकार प्राणियों के विरुद्ध होने वाले सभी कृत्यों का पूर्णतः त्याग करना चाहिए।
इसीलिए या आवश्यक है कि एक वैष्णव को दूसरे अन्य सभी मनुष्यों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा वह ईश्वर के प्रति करता है अर्थात सभी को आदर सम्मान देना चाहिए ।
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【पंचरात्र और इसका विरोध 】
🍁भट्टोजिदीक्षित द्वारा विरोध -
भट्टोजिदीक्षित ने अपने 'तन्त्राधिकारिनिर्णयः' नामक ग्रन्थ में निष्कर्ष है कि श्रुतिभ्रष्ट तथा पतित आदि ही पाञ्चरात्र आगमों में अधिकृत हैं-
तस्मात् पतितादय एवं शङ्खचकाङ्कनादावधिकारिण इति सिद्धम् ।
(तन्त्राधिकारि निर्णयः)
🍁आदि शंकराचार्य द्वारा विरोध
शंकराचार्य ब्रह्मसूत्र के भाष्य में पाञ्चरात्र आगम के कुछ अंशों में प्रमाण एवं कुछ अंशों को अप्रमाण मानते हैं ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पाञ्चरात्र आगमों पर वेदविरोधी होने का सुनियोजित आरोप लगाया जाता रहा है। उसका एक प्रमुख कारण इसके द्वार का मानव मात्र के लिए उद्घाटित होना है जिसमें स्त्री और शूद्र सम्मिलित हैं।
🍁 विरोध का खंडन -
प्राचीन वैष्णवाचार्यों ने अप्रामाणिक आदि के आक्षेपों को सुना, उनका उत्तर दिया, और संघर्ष भी किया। चैतन्य महाप्रभु तो पंचरात्र को वैष्णवों की श्रुति मानते थे तथा इसके सिद्धांतों का प्रचार भी किया ।
यामुनाचार्य आदि वैष्णव आचार्यों को 'आगमप्रामाण्य' जैसे गन्थों की रचना भी प्राय: इसी प्रकार के आरोपों का उत्तर देने के लिए करनी पड़ी थी। इन्होंने पंचरात्र रक्षा नाम का ग्रंथ भी रचा जिसमें उन्होंने पंचरात्र को वेदों के अनुरूप सिद्ध किया।
रामानुजाचार्य पंचरात्र को पूरी तरह से प्रमाण मानते थे तथा इसे वेदों के अनुरूप भी मानते थे ।
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