शूद्र नीच, अवर्ण , अनार्य दस्यु नहीं


 

धर्म शास्त्रों में लोभी मनुष्यों द्वारा मिलावट और दुष्प्रचार के कारण ऐसा काल्पनिक अत्याचारों की चित्रण किया गया है जोकि हुवा भी नहीं था । अगर हम उनकी समीक्षा करते है तो वो तथ्य सत्य प्रतीत नहीं होते ।

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【 शुद्र आर्य है 】

शुद्र आर्य नहीं है यह सिद्धांत मक्समूलर था किंतु वर्तमान में बहुत से भारतीय इस बात को सच मानते हैं जोकि निराधार है।

महर्षि यास्क आर्य शब्द की व्याख्या करते हुवे कहते है -

आर्य ईश्वरपुत्रः ।

(निरुक्त 6:26)

अर्थ- आर्य ईश्वर के पुत्र है ।

इससे साबित होता है सभी मनुष्य आर्य है क्यूंकि सभी मनुष्य ईश्वर के पुत्र है जैसा कि शास्त्रों में वर्णन है की सभी को ईश्वर ने बनाया है -

चातुर्वर्ण्यस्य कर्माणि चातुर्वर्ण्यं च केवलम् ।

असृजत् स हि यज्ञार्थे पूर्वमेव प्रजापतिः ॥

(महाभारत - अनुशासन पर्व 48 : 3) 

अर्थ- चारों वर्णों के कर्मों और चारों वर्गों को परमेश्वर ने प्रथम ही यज्ञ के निमित्त सृजे, उत्पन्न किए।

सृष्टि के शुरवात में सभी मनुष्य आर्य थे किंतु कुछ ने अवैदिक कार्य किये और कुछ ने वेदों का त्याग कर दिया जिससे उनका वर्णव्यस्था से भहिष्कार कर दिया गया और वो अनार्य बन गए । यही कारण है कि ईश्वर सभी को  पुनः आर्य बनाने का अनुमति देता है -

कृण्वन्तो विश्वमार्यम । 

(ऋग्वेद 9:63:5)

अर्थ- ईश्वर आदेश करता है कि समस्त विश्व को आर्य बनाओ ।

चारो वर्णों के मनुष्य आर्य है इस बात की पुष्टि आचार्य चाणक्य भी करते है -

व्यवस्थितार्यमर्यादः कृतवर्णाश्रमस्थितिः।

त्रय्या हि रक्षितो लोकः प्रसीदति न सीदति।।

(अर्थशास्त्र 1:3:17)

अर्थ- वर्णाश्रम की जो स्थिति बनाई गई है उस में आर्यों की मर्यादा सन्निहित है। इस वर्णाश्रम की स्थिति से लोग प्रसन्न होते हैं उन्हें दुःख नहीं होता है।

शूद्र भी चतुर्वर्ण में आता है इसलिए वह भी आर्य हे।

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【शूद्र सवर्ण है 】

"सवर्ण" का अर्थ है वर्ण-सहित, अर्थात् वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत चारों वर्ण । अवर्ण वह है जो चारों वर्गों से बाहर हो। 

म्लेच्छों ने जानबूझकर आधुनिक काल में "सवर्ण" और "अवर्ण" के गलत अर्थ प्रचारित किये ।

आंबेडकर भी यही मानते थे -

सवर्ण का अर्थ है कि चार वर्णों में से एक वर्ण का होना, अवर्ण का अर्थ है चारों से परे। 

(डॉ. आंबेडकर वांग्मय खंड 6 पृष्ठ 181) 

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【शूद्र नीच नहीं 】

एकविंश स्तोम, अनुष्टुप् छन्द,

वैराज साम, शूद्र मनुष्य:अश्व।

(तैत्तिरीय संहिता 7: 1:1)

अर्थात- शूद्र , अश्व के साथ ऋग्वेद और सामवेद आदि धर्मग्रन्थों के मन्त्रों की उत्पत्ति भी पैरों से है।

यहां पैर से शुद्र के साथ वेद मंत्रों की उत्पत्ति बताई गई है यदि शुद्र पैर से उत्पत्ति के अलंकारिक वर्णन के कारण नीच है तो क्या वेद भी नीच होंगे ,‌ नहीं ना! यह अलंकारिक वर्णन है गुण के आधार पर इसे उसी आधार से देखना चाहिए।

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【शूद्र दास नहीं 】

गुलामी करने और नौकरी करने में अंतर होता है । दास गुलामी करता है और उसको उसके काम का कुछ भी नहीं मिलता जबकि जो नौकरी करता है उसको उसके काम के बदले धन मिलता है और वर्णव्यस्था में शुद्र जो नौकरियां करते है उसके बदले में उनको उनके काम का धन मिलता है । 

विभिन्न ग्रंथों में ऐसा वर्णन है की शूद्र को उसके काम का वेतन समय से मिल जाये , मनुस्मृति भी यही विवरण देती है -

राजा कर्मसु युक्तानां स्त्रीणां प्रेष्यजनस्य च । 

प्रत्यहं कल्पयेद् वृत्तिं स्थानकर्मानुरूपतः॥ 

(मनुस्मृति 7:125)

अर्थ - राजा काम पर लगाये जाने वाले श्रमिकों, सेव, स्वियों का प्रतिदिन का वेतन, काम, पद और स्थान के अनुरूप निर्धारित कर दे।'

"स दीर्घस्यापि कालस्य तल्लमेतैव वेतनम्।" 

(मनुस्मृति 8:216)

अर्थ- यदि अवकाश से लौटने के बाद भृत्य अपने पूर्वनिर्धारित कार्य को पूर्ण कर देता है तो वह लंबे अवकाश का वेतन पाने का अधिकारी है अर्थात् भृत्य का दीर्घ अवकाश होने पर भी वेतन दिया जाना चाहिए।

वर्णव्यवस्था की विधि के अन्तर्गत नामकरण विधि में 'दास' का अर्थ 'सेवक' है, गुलाम नहीं।

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【शूद्रों पर अत्याचार का खंडन 】

कई विद्वानों के भाष्य में तथा कुछ शास्त्रों में ऐसा वर्णन है कि यदि शूद्र और स्त्री वेदाध्ययन करें तो उसे कठोर दंड दिया जाए किंतु यह सब प्रछिप्त है तथा वेद विरोधी है । 

 जैसा कि आदि शंकराचार्य के भाष्य में विवरण है -

तस्या हि शूद्रस्य वेद उपशृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां

श्रोत्रपरिपूरणम्,उच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः।

(ब्रह्मसूत्र शंकरभाष्य अपशूद्राधिकरण)

अर्थ - शूद्र यदि वेद का मन्त्र सुन ले तो उसके कान में सीसा पिघलाकर भर दो,वेद का मन्त्र उच्चारण करे तो जीभ काट दो,वेद की पुस्तक उठाकर चले तो हाथ काट दो,यह नियम लागू होता।

खंडन :-

आदि शंकराचार्य जी महाराज के अनुयायी स्वामी महेश्वरानन्दगिरि: महामण्डलेश्वर जी ने तो श्री आदि शंकराचार्य जी महाराज के भाष्य पर भी टीका-टिप्पणी करते हुए लिखा है-

"साक्षाद्वेदविरुद्धत्वात्, स्मृतिष्वेतादृशं वच:। 

प्रक्षिप्तं स्यान्नृशंसैस्तु स्वार्थान्धैर्जनशत्रुभि:।"

अर्थात्- "शूद्रों का जिह्वाच्छेदन आदि की आलोचना करते हुए लिखते हैं कि ऐसा स्मृतिवचन तो साक्षात् वेद-विरुद्ध है, प्रक्षिप्त  (मिलावट) हैं।"

इन्होंने स्वयं भी श्री आदि शंकराचार्य के भाष्य का खण्डन कर दिया। ऐसे वचन प्रक्षिप्त है क्युकी आदि शंकराचार्य ने एक चांडाल को अपना गुरु बना लिया था अगर वो ऐसे भेदभाव करते तो चांडाल को अपना गुरु कभी नहीं बनाते ।

आदि शंकराचार्य ने एक चांडाल को अपना गुरु बनाया था। इसका विवरण देते हुए आदि शंकराचार्य अपने ग्रंथ मनीषापञ्चकम  में लिखते है -

ब्रह्मैवाहमिदं जगच्च सकलं चिन्मात्रविस्तारितं

सर्वं चैतदविद्या त्रिगुणाय शेषं माया कल्पितम्।

इत्थं यस्य दृढा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले

चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम।। 2

अर्थ - मैं ब्रह्म ही हूँ चेतन मात्र से व्याप्त यह समस्त जगत भी ब्रह्मरूप ही है। समस्त दृश्यप्रपंच मेरे द्वारा ही त्रिगुणमय अविद्या से कल्पित है। मैं सुखी, सत्य, निर्मल, नित्य, परब्रह्म रूप में हूँ, जिसकी ऐसी दृढ बुद्धि है वह चांडाल अथवा द्विज हो, वह मेरा गुरु है ।

शीशा पिघलाकर शुद्र के कान में डालने वाले सभी सन्दर्भ अप्रमाणित है क्युकी शीशे का आविष्कार जर्मन रसायनज्ञ जस्टिस वॉन लिबिग को श्रेय दिया जाता है। 1835 में जर्मन रसायनज्ञ जस्टस वॉन लिबिग को चांदी के गिलास दर्पण का आविष्कार किया था , इसलिए जब उस वक्त शीशा को पिघलाने की कोई मशीन नहीं थी उसका अविष्कार नहीं हुआ था तो उसको पिघला के कान में कैसे डाला जाता होगा इसीलिए ये बाद में मिलाये गए संदर्भ है ।

मध्वाचार्य महाभाग करते हुए संकेत करते हैं की शास्त्र वही है जो वैदिक ग्रंथों से विरोधाभास ना करें , अगर कोई करता है तो उसे प्रक्षिप्त मान के नकार दें -

ऋग्यजुःसामाथर्वाश्च भारतं पञ्चरात्रकम् ।

मूलरामायणञ्चैव शास्त्रमित्याभिधीयते ।

यच्चानुकूलमेतस्य तच्च शास्त्रं प्रकीर्तितम् ।।

(ब्रह्मसूत्र 1.1.3 पर मध्वाचार्य भाष्य के अन्तर्गत) 

अर्थ- श्रीमध्वाचार्य कहते हैं :- "चारों वेदों, महाभारत, पञ्चरात्र तथा मूल वाल्मीकी रामायण को शास्त्र कहते हैं। जो इनके अनुकूल हों (अर्थात् जिनसे उक्त ग्रन्थों के अर्थों का विरोध न हो), उन्हें भी शास्त्र कहते हैं।"

शास्त्र-शास्त्र कहकर कपोलकल्पित तथा अनार्ष ग्रन्थों को शास्त्र तथा वितण्डाओं को शास्त्र प्रमाण मानने वालों के मुख पर ज़ोरदार तमाचा मध्वाचार्यजी के इस वचन ने मार दिया ।

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【शुद्र अछूत नहीं 】

शूद्र तो द्विजो के यहां नौकरी किया करते थे और घर में रहने वाला कभी अछूत नहीं होता। महर्षि मनु ने कहा है -

विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्

शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैःश्रेयसः परः॥ 

(मनुस्मृति - 9:334)

अर्थ-वेदों के विद्वान द्विजों, तीनों वर्गों के प्रतिष्ठित गृहस्थों के यहां सेवाकार्य (नौकरी) करना ही शूद्र का हितकारी कर्तव्य है।

यही नहीं बल्कि गुरुकुल में चारो वर्ण के माता पिता के संतान साथ में गुरुकुल में साथ-साथ पढ़ते थे इसलिए अछूत वाली बातों का प्रश्न ही नहीं उठाता -

श्रावयेच्चतुरोवर्णान् कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः । 

वेदस्याध्ययनं हीदं तच्च कार्यं महत्स्मृतम् ॥

(महाभारत - शांतिपर्व 327:48)

अर्थ- चारों वर्णों को वेद पढ़ावे, पढ़ाते समय ब्राह्मण के संतान को सबसे आगे की पंक्ति में बिठावे। यह वेद का अध्ययन और अध्यापन कार्य ऊँचा माना गया है।

इसके अतिरिक्त मंत्रिपरिषद में भी अनपढ़  शूद्रों को स्थान मिलता था अगर वह अछूत होते तो ऐसा व्यवस्था संभव नहीं था क्योंकि वह अक्सर सभी मंत्रियों से मिलते जुलते रहते थे -

चतुरो ब्राह्मणान् वैद्यान् प्रगल्भान् स्नातकान् शुचीन् ॥ 

क्षत्रियांश्च तथैवाष्टौ बलिनः शस्त्रपाणिनः ॥ 

वैश्यान् वित्तेन सम्पन्नाने कविंशतिसंख्यया । 

त्रींश्च शूद्रान् विनीतांश्च शुचीन् कर्मणि पूर्वके 

(महाभारत - शांतिपर्व  90:15)

अर्थ- अब मंत्री कैसे व्यवस्थित करने चाहिये यह कहेंगे-चार ब्राह्मण जो वैद्य विद्वान्, वेद स्नातक, पवित्र हों, आठ क्षत्रिय जो बलवान् और शस्त्रधारी हों, इक्कीस वैश्य जो धन-धान्य से सम्पन्न हों, तीन शूद्र जो प्रथम से विनीत पवित्र हों।

इससे सिद्ध होता है कि शूद्र मंत्री भी होते थे। शूद्र गरीब नहीं थे (मैत्रेयी संहिता 4:2:7-10) पंचविंश ब्राह्मण (6:1:11)  इसलिए छुआछूत गुलाम जैसी बातें ने केवल एक भ्रम है।

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【शुद्र दस्यु नहीं 】

दस्यु शब्द के बारे में कोई प्रमाण इस बात का नहीं मिलता कि यह एक अनायों की जाति थी विपरीत उसके इस बात के प्रमाण अवश्य हैं कि दस्यु वे लोग थे जो आर्य धर्म नहीं मानते थे।

महाभारत में दस्यु का इस प्रकार उल्लेख है -

दृश्यते मानुषेषु लोक सर्वे वर्णेषु दस्यवः । 

(महाभारत - शांतिपर्व 65 : 23)

अर्थ -  सभी वर्गों में और सभी आश्रमों में दस्यु पाये जाते हैं।

इसलिए दस्यु शब्द किसी वर्ण -जाति विशेष का नाम नहीं था।

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【गोत्रों की एकरूपता का कारण】

भारत में गोत्र परंपरा है जिससे हमें मूल पिता तथा परिवार का बोध होता है । वर्तमान में ब्राह्मण जातियों, क्षत्रिय जातियों, वैश्य जातियों और दलित जातियों में समान रूप से पाये जाने वाले गोत्र उस ऐतिहासिक वंश परंपरा के पुष्ट प्रमाण हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि ये सभी एक ही पिता के वंशज है। पहले वर्णव्यवस्था में जिसने गुण-कर्म योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया ये उस वर्ण के कहलाने लगे। बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा नीचा वर्ण परिवर्तन होता रहा। बाद में वर्ण व्यवस्था विकृत हो जाती है जिसके चलते जो जहां रहता है वहीं रह जाता है ।

मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव!

अङ्गिर: कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च ॥

कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव 

नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम् ॥

(महाभारत - शांतिपर्व 296 : 17-18) 

अर्थ- मूलगोत्र चार उत्पन्न हुए हैं जो कि अङ्गिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु हैं। अन्य गोत्र कर्म से हैं। सत्पुरुषों के तप से वे नाम ग्रहण किए जाते हैं।

आश्चर्य की बात तो यह है कि आज सभी वर्णों के गोत्र सभी जातियों में है जैसे कौशिक ब्राह्मण भी हैं, क्षत्रिय भी कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण भी हैं, राजपूत भी पिछड़ी जाति वाले भी वसिष्ठ ब्राह्मण भी है, दलित भी दलितों में राजपूतों और जाटो के अनेक गोत्र है। सिंहल गोत्रीय क्षत्रिय भी हैं , बनिये भी। राणा, तंवर, गहलोत गोत्रीय जाती है, राजपूत भी राठी-गोत्रीय जन जाट भी है, बनिये भी है । यह तथ्य स्वयं प्रमाण देता है कि हमारी मौजूदा  वर्ण व्यवस्था जैसी है ये ऐसे पहले नहीं थी , ये विकृत हो गई है ।

गोत्रों की यह एकरूपता प्रमाणित करती है कि सभी मनुष्य एक पिता के वंशज या एक वर्ण के थे जिसको समय के साथ वर्ण व्यवस्था के नियमों में छेड़खानी तथा सिद्धांतों में परिवर्तन के कारण वर्ण व्यवस्था को जन्मना जातिवाद बना दिया जिससे ये ऊंच-नीच का भाव पैदा हुआ ।

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