जन्माधारित वर्णव्यवस्था का खंडन



 समय के साथ व्यवस्था बहुत ज्यादा वितरित हो चुकी है यही कारण है कि आज बहुत से लोग इस भ्रम को फैला पा रहे हैं कि वर्ण पिछले जन्म के कारणों से तय होता है और उपनयन केवल द्विजो की संतानों का होता है जोकि वैदिक वर्ण व्यवस्था के आधार पर देखा जाए तो बिल्कुल निराधार है । हम इस लेख में इन्हीं दोनों तथ्यों की समीक्षा करेंगे ।

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【क्या वर्ण निर्धारण पूर्व जन्म के कर्माधारित है ?】

🍁 यह समझने के लिए सबसे पहले हमें यह जानना होगा कि कर्म कितने प्रकार के होते हैं , उनकी व्याख्या क्या है और उनका सिद्धांत क्या हैं  अन्यथा हम इस विषय को नहीं समझ पाएंगे-

सनातन धर्म कर्म और पुनर्जन्म की प्रणाली में विश्वास करता है। शास्त्रों के अनुसार कर्म तीन प्रकार के होते हैं: - संचित , प्रारब्ध और अगामी ।

(वराह उपनिषद 12)

1- संचित कर्म - अनेक पूर्व जन्मों से लेकर वर्तमान में किये गए कर्मों के संचय को संचित कर्म कहते हैं यह वह कर्म है जो उन्होंने अपने पिछले जन्म में नहीं चुकाए थे जिसके कारण उन्हें अपने कर्म के अनुसार जन्म मिलता है।

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।

(गीता 4:5)

अर्थ - हे परन्तप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता।

2- प्रारब्ध कर्म- संचित कर्म में से, थोड़ा सा अंश मात्र कर्मों का फल जो हमें इस जन्म में भोगना है उसे प्रारब्ध कर्म कहते हैं । हमारे जीवन में जो अच्छा-बुरा घटित होता है, जिन पर हमारा निरंतरण नहीं है वो प्रारब्ध है। ये प्रारब्ध कर्म ही नए होने वाले जन्म की योनि व उसमें मिलने वाले भोग को निर्धारित करते हैं। फिर इस जन्म में किए गए कर्म, जिनको क्रियमाण कहा जाता है, वह भी संचित संस्कारों में जाकर जमा होते रहते हैं।

'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

( गीता 2:47) 

अर्थ - "केवल कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, उसके फलों में नहीं।"

3- क्रियमाण कर्म - वर्तमान में जो कर्म कर रहे हो क्रियमाण कर्म है । जो हम क्रियमाण कर्म करते है वो ही संचित कर्म में जाकर जमा होता रहता है और उसी संचित कर्म का अंश प्रारब्ध कर्म (भाग्य) के रूप में हमें मिलता है।

 'कथं कर्म विना दैवं स्थास्यति ।'

 (महाभारत अनुशासनपर्व 6:23)

अर्थ -  “कर्म के बिना भाग्य कैसे स्वयं स्थापित हो सकता है?

🍁 अब आते हैं प्रश्नों पर - 

♦️प्रश्न - क्या हमारा जन्म द्विज अथवा शूद्र परिवार में पिछले जन्म के कर्मों के कारण होता है ?

उत्तर-  हाँ, जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा एक व्यक्ति को उसके पिछले जन्म के कर्मों से अच्छे समृद्ध परिवार में जन्म मिलता है, किंतु इससे उसका वर्ण का निर्धारण नहीं हो जाता है , अभी उसको वैदिक संस्कार तथा वर्ण निर्धारण की प्रक्रिया से गुजरना होता है। 

♦️प्रश्न - क्या इसका मतलब यह है कि वर्ण का जन्म से कोई संबंध है?

उत्तर - नहीं, वास्तव में ब्राह्मण के पुत्र के ब्राह्मण बनने की संभावना अधिक होती है शूद्र के पुत्र की तुलना में , लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ब्राह्मण का पुत्र निश्चित रूप से बड़ा होकर ब्राह्मण ही बनेगा या शूद्र का पुत्र बड़ा होकर शूद्र ही बनेगा। यदि शूद्र के पुत्र में ज्ञान, अच्छा चरित्र आदि जैसे अन्य गुण हों, तो वह ब्राह्मण बन सकता है। इसी तरह यदि कोई ब्राह्मण पुत्र ज्ञान नहीं लेगा और शूद्र की तरह व्यवहार करेगा तो वह शूद्र बन जाएगा । जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा यदि शूद्र परिवार में जन्म लेने वाला व्यक्ति इस जन्म में अपने अच्छे कर्मों से अपने अंदर ब्राह्मणीय गुणों का विकास करके संचित कर्मों का भुगतान करता है तो वह इसी जन्म में ब्राह्मणत्व प्राप्त करता है।

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 【 द्विज के संतानों के लिए उम्र आधारित उपनयन का विधान क्यों? 】

🍁इस विषय को समझने के लिए सबसे पहले हम यह समझते हैं की द्विजो  की संतानों के लिए किस उम्र तक उपनयन का विधान हैं -

गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनयनम् ।

गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश: ॥ 

(मनुस्मृति 2:36)

अर्थ- ब्राह्मण के बालक का यज्ञोपवीत संस्कार गर्भ से आठवें वर्ष में करे, क्षत्रिय के बालक का गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में, और  वैश्य के बालक का गर्भ से बारहवें वर्ष में उपनयन संस्कार करना चाहिए ।

ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पंचमे

राज्ञो बलार्थिन: षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे ॥

 (मनुस्मृति 2:37)

अर्थ - ब्राह्मण के गुण लक्षण जिस बच्चे में दिखाई दिये हों ऐसे बच्चे को गर्भधारणा से या प्रत्यक्ष जन्म से  पांचवें वर्ष में, क्षत्रिय को छठे वर्ष में और वैश्य को आठवें वर्ष में गुरुकुल में प्रवेश के लिये लाया जाता था ।

♦️निष्कर्ष - गुरूकुल प्रवेश के बाद बच्चे को परखा जाता था। उस के उपरांत ही उस का वर्ण निश्चित कर उपनयन किया जाता था। जो बच्चे इस आयु तक अपने को सिद्ध नहीं कर पाते उन की आगे भी परीक्षा चलती रहती थी। परीक्षा के आधार पर ब्राह्मण को उपनयन का सोलह वर्ष तक, क्षत्रिय को बाईस वर्ष तक और वैश्य को चौबीस वर्ष तक अवसर होता था ।  जैसा कि आगे के श्लोकों में वर्णन है -

आषोडशात् ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते। 

आद्वाविंशात् क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विशः॥

 (मनुस्मृति 2:38) 

अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः। 

सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः॥

 (मनुस्मृति 2:39)

 नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि   हि  कर्हिचित्। 

ब्राह्मान् यौनांश्च सबन्धानाचरेद् ब्राह्मणः सह॥

 (मनुस्मृति 2:40)    

अर्थ-‘सोलह वर्ष का होने के बाद ब्राह्मण बनने के इच्छुक बालक का, बाईस वर्ष के बाद क्षत्रिय बनने के इच्छुक का, चौबीस वर्ष के बाद वैश्य बनने के इच्छुक का उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं रहता। उसके बाद ये सावित्री व्रत (उपनयन) से पतित होकर आर्यवर्णों से बहिष्कृत हो जाते हैं। व्रत का पालन न करने वाले बहिष्कृत हो गयी ऐसी द्विजो की संतानों से कोई  फिर कोई अध्ययन-अध्यापन तथा विवाह सबन्धी वैधानिक व्यवहार न करे।’

🌼द्विज की संतान को उचित अवधि में उपनयन संस्कार तथा वेद अध्ययन ना हो पाता था वह शूद्र हो जाता है ऐसे में वह आगे चाहे तो इसके लिए प्रायश्चित करके दोबारा विद्या ग्रहण कर सकता है -

येषां द्विजानां सावित्री नानूच्येत यथाविधि ।

तांश्चारयित्वा त्रीन्कृच्छ्रान्यथाविध्युपनाययेत् ।।

(मनुस्मृति 11:191)

अर्थ - जिन द्विज संतानो का नियत काल में विधिवत् गायत्री उपदेश और उपनयन न हुआ हो वह तीन कृच्छव्रत करें यथाविधि इसके उपरांत अपना उपनयन करा लें।

♦️निष्कर्ष - इस आयु तक जो अपने को इन तीन वर्णों के योग्य सिद्ध नहीं कर पाते थे, उन्हें शूद्र वर्ण प्राप्त होता था। अपने को सिद्ध करने का पूरा अवसर मिलने के कारण और अपनी अक्षमता समझ में आने से जिसे शूद्र वर्ण प्राप्त होता था उस में सामान्यत: अन्य वर्णों के लोगोंं के प्रति ईर्ष्या का भाव पनपता नहीं था। महर्षि मनु की व्यवस्था जन्म आधारित नहीं थी अगर वह होती तो यहां निर्धारित समय पर उपनयन ना होने पर वर्ण पतन का विधान ना होता !

अब जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) बन जाते थे अगर वह अपने निर्धारित कर्म को नहीं करते थे तो उनका वर्णपतन भी हो जाता था -

न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्।

स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥ 

(मनुस्मृति 2:103) 

अर्थ-जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) प्रातःकालीन संध्या नहीं करता और जो सायंकालीन संध्या भी नहीं करता। वह शूद्र के समान है, उसको द्विजों के सभी अधिकारों या कर्त्तव्यों से बहिष्कृत कर देना चाहिए अर्थात् उसे ‘शूद्र’ घोषित कर देना चाहिए। 

🍁 अब आते हैं प्रश्नों पर - 

♦️प्रश्न - यदि ब्राह्मण मुसलमान बन जाये तो क्या वह ब्राह्मण रहेगा तथा क्या उसकी भविष्य की संताने भी ब्राह्मण होगी? 

उत्तर - अगर वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित होती तो यह संभव होता किंतु वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित है क्योंकि रज और वीर्य के मेल से वर्ण नहीं मिलता अपितु गुण कर्म स्वभाव से ही वर्ण मिलता है जिसको परखने का कार्य आचार्य का होता है। 

♦️ क्या शूद्र यज्ञोपवीत धारण कर सकता है ?

उत्तर - सभी मनुष्य जन्म से शूद्र होते हैं। अतः शूद्र को ही यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है।  तत्पश्चात् वे गुरुकुल में वेद विद्या का अध्ययन कर ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य बनते हैं।  इसके लिए समावर्तन संस्कार होता है।

🌼उपनयन संस्कार होने से पहले सभी एक शूद्र अबोध अवस्था में होते हैं इसका प्रमाण मनुस्मृति तथा धर्मसूत्र आदि ग्रंथ देते हैं -

नास्य कर्म नयच्छिन्त किंचिदा मौज्ञिबन्धनात्‌

वृत्त्या शूद्रसमो ह्येष यावद्वेदे न जायत इति ।

(बोधायन धर्मसूत्र 1:3: 6) 

अर्थ - जब तक किसी बालक का उपनयन संस्कार नहीं हो जाता तब तक उससे कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं करवाया जाता क्योंकि उपनयन संस्कार होने से पहले सभी एक शूद्र अबोध स्तर पर होते हैं ।

🌼इसके अतिरिक्त धर्मसूत्रों में वर्णन है यहाँ सभी को जब तक उपनयन न हो जाता तब तक जन्मतः शूद्र की तरह अधिकार दिया गया है  -

प्रागुपनयनात्कामचारः कामवादः कामभक्षः ॥१॥

अहुतात् ॥२॥ ब्रह्मचारी ॥३॥ यथोपपादितमूत्रपुरीषो भवति ॥४॥ नास्याऽऽचमनकल्पो विद्यते ॥५॥अन्यत्रापमार्जनप्रधावनावोक्षणेभ्यः ॥६॥न तदुपस्यर्शनादशौचम् ॥७॥नत्वेवैनमग्निहवनबलिहरणयोर्नियुञ्ज्यात् ॥८॥

(गौतम धर्मसूत्र 1 : 2 : 1-9)

जब तक किसी बालक का उपनयन संस्कार ना हो तब तक हुआ जैसा चाहे भोजन ग्रहण , बोलना और कार्य कर सकता है । जब तक उपनयन  संस्कार ना हो वह हवन के उपरान्त अवशिष्ट आदि का भोजन नहीं नहीं कर सकता , वह ब्रह्मचारी बनकर रह सकता है । जैसा चाहे मूत्र त्याग कर सकता है किंतु आचमन नहीं कर सकता , ना ही उसपे शौच के नियम उस पर लागू होते हैं। 

♦️प्रश्न - जिस तरह द्विजो की संतानों के लिए उपनयन की समय अवधि तय की गयी है उसी प्रकार शूद्रों की संतानों के उपनयन की अवधि क्यों तय नहीं की गयी ?

उत्तर - शुद्रो की संतानों के पास ये अधिकार होता था की वो किसी उम्र में जब वो वेदाध्यन के योग्य हो तब वो अपनी योग्यता का परिचय आचार्य को देकर उपनयन करा सकते है और द्विज बन सकते है ।ज्यादातर शूद्रों में शास्त्राध्यन के प्रति झुकाव नहीं होता था यही कारण है की जादातर शूद्रों की संतान वैदिक संस्कारों से रहित अशिक्षित शूद्र ही रह जाते थे ।

🌼शुद्र अपनी योग्यता का परिचय आचार्य को  देकर अपना उपनयन करवा कर शिक्षा ग्रहण कर सकता है ऐसा महाऋषियों का मत है - 

निमित्तार्थेन बादरि स्तस्मात्सर्वाधिकारं स्यात् ॥ २७॥  

अपि वान्यार्थदर्शनाद्यथाश्रुति प्रतीयेत ॥ २८॥ 

(महर्षि जैमिनी मीमांसा दर्शन 6 :1 : 27-28)

अर्थ - महर्षि बादरि का मत है कि नैमित्तिक सामर्थ्य योग्यता से अधिकार उत्पन्न होता है। इस दृष्टि से वैदिक कर्मों में सबका अधिकार होता है।  श्रुतियो में भी कहा गया है कि जैसे परमात्मा वेदवाणी का सबको उपदेश करता है वैसे ही मनुष्य को भी बिना भेदभाव से करना चाहिए ।

न काम्यत्वात् ॥३१॥ संस्कारे च तत्प्रधानत्वात् ॥३२॥

(महर्षि जैमिनी मीमांसा दर्शन 6 : 1 : 31-32)

अर्थ - मीमांसाकार का मत है , शूद्रों में भी कामना पाई जाने से उनका अधिकार सिद्ध होता है। संस्कारों के कारण ब्राह्मणादि वर्णों की प्रधानता मानी जाती है, पर शूद्र भी अपनी योग्यता का प्रमाण देकर उपनयन और वैदिक कर्मों का अधिकारी बन सकता है ।

🌼वेदों में भी शूद्रों को द्विज बनने का ईश्वर का उपदेश दिया गया है -

आ संयतमिन्द्र णः स्वस्ति शत्रुतूर्याय बृहतीममृधाम्। यया दासान्यार्याणि वृत्रा करो वज्रिन्त्सुतुका नाहुषाणि ॥

(ऋग्वेद 6:22:10)

अर्थ - हे राजन् ! आप सत्यविद्या के दान और उपदेश से शूद्र के कुल में उत्पन्न हुऐं को भी द्विज फरिये , इस प्रकार से ऐश्वर्य को प्राप्त कराया जाय तथा शत्रुओं को निधारण करके सुख की वृद्धि कीजिये ।

♦️प्रश्न - क्या उपनयन के बिना भी वेदाध्यन अथवा ब्रह्ज्ञान लेना संभव है ?

उत्तर -  इस शंका का समाधान स्वयं महर्षि वेदव्यास ने किया है । वेदव्यास के अनुसार चारों वर्णों के गुणवान्‌ बालकों को ब्रह्मविद्या और वेदाध्ययन का अधिकार है, गुणहीन को नहीं।

संस्कारपरामर्शात्‌ तदभावाभिलापात्‌।। 

(महर्षि वेदव्यास वेदान्त दर्शन 1:3:36)

व्यख्या - (संस्कार-परामर्शात्‌) शास्त्र के अध्ययन में उपनयन-संस्कार का सम्बन्ध बतलाया जाता है, इसलिये यह विचार उत्पन्न हुआ, किन्तु (तदभाव-अभिलापात्‌) कहीं उस उपनयन-संस्कार के अभाव का भी कथन मिलता है।

जैसे- तं होपनिन्ये... (शतपथ ब्राह्मण 1:5:3:13) यहॉं उपनयन-संस्कार का विधान है और तान्‌ हानुपनीयैतदुवाच... (छान्दोग्य उपनिषद्‌ 5:11:7) अर्थात्‌ प्राचीन शाल आदि ब्राह्मणों को कैकेय अश्र्वपति ने वैश्र्वानर-विद्या का उपनयन-संस्कार के बिना ही उपदेश किया था।

अत: उपनयन संस्कार के बिना भी ब्रह्मविद्या की शिक्षा की जा सकती है। अत: ब्रह्मविद्या के अधिकार में उपनयन संस्कार का कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

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