हमने पढ़ा और सुना है कि एक समय पर सनातन धर्म पूरे विश्व में फैला हुआ था किंतु आज यह सिकुड़कर विश्व के एक छोटे हिस्से तक ही मुख्य रूप से सीमित रह गया है इसका कारण यह है कि हमने अपने ऋषियों द्वारा रचित का प्राचीन ग्रंथों को मिलावट करके दूषित किया जिसके कारण सामाजिक व्यवस्था बिगड़ी और यह धार्मिक पतन हुआ।
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【 मिलावट के प्रमाण 】
मौजूदा वक्त में आपस्तम्ब-धर्मसूत्रम् 1:1:6 जो सूत्र मौजूद है उसके अनुसार शुद्र के सन्तान का उपनयन नहीं हो सकता -
अशूद्राणामदुष्टकर्मणामुपायनं वेदाध्ययनमग्न्याधेयं फलवन्ति च कर्माणि।
(आपस्तम्ब-धर्मसूत्रम् 1:1:6)
अर्थात - शूद्र और दुष्टकर्म करने वालों को छोड़कर शेष के लिये उपनयन,वेदाध्यन, अग्नि का आधान विहित किया गया है ।
परंतु याज्ञिक रामकृष्ण द्वारा लिखी गई " संस्कार गणपति " नाम का ग्रंथ में यही सूत्र लिखा गया है किंतु उसमें शूद्रों के लिए उपनयन का विधान है इससे पता चलता है कि जब यह ग्रंथ लिखा गया तब ये मिलावट नहीं की गई थी बाद में आपस्तंब धर्मसूत्र में ज्यादातर सूत्रों को संपादित कर दिया गया -
अथ शूद्राणामुपनयनं । आपस्तंबः । शूद्राणामदुष्टकर्मणामुपनयनं । मद्यपानरहितानामिति ॥
(आपस्तम्ब-धर्मसूत्रम् 1:1:6)
(संस्कारगणपति:कांड 2 कण्डिका 2) , पृष्ठ 642
अर्थ - यह शूद्र उपनयन के विषय में आपस्तंब ऋषि का मत - शुद्र और दुष्टकर्म वाला मनुष्य के लिए भी उपनयन का विधान है किन्तु वो मदिरापान न करता हो ।
नीचे के लिंक पर क्लिक करके आप संकर गणपति के उस पृष्ठ को ऑनलाइन पढ़ सकते है👇
https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.352257/page/n704/mode/1up?view=theater
इसके अत्रिरिक्त इस सूत्र पर पुराने भाष्यों में भी यही सूत्र लिखा है । शुक्लयजुर्वेदीय पारास्करगृह्यसूत्र 2:5:43 सूत्र के भाष्य में आचार्य गदाधर ने आपसम्बधर्म सूत्र के
"शूद्राणामदुष्टकर्मणामुपायनं वेदाध्ययन मग्न्याधेयं फलवन्ति च कर्माणि"
सूत्र को उद्धृत करके लिखा है -
'शूद्राणामदुष्टकर्मणामुपनयनम् । इदं च रथकारस्योपनयनम् । तस्य च मातामहीद्वारकं शूद्रत्वम् । अदुष्टकर्मणां मद्यपानादिरहिता नामिति ।।
(शुक्लयजुर्वेदीय पारास्करगृह्यसूत्र 2:5:43 गदाधर भाष्य)
भावार्थ - आचार्य गदाधर ने लिखा है, अदुष्ट अर्थात् जो शराब नहीं पीते हैं ऐसे शूद्रों का उपनयन संस्कार करना चाहिये ।
यद्यपि आपस्तम्बधर्मसूत्र के में उक्त सूत्र में पाठ भेद किया गया है तथापि पारास्करगृह्यसूत्र के गदाधर भाष्य में उक्त सूत्रका प्राचीन पाठ और उस पर गदाधर भाष्य उपलब्ध होता है । जिसमें स्पष्ट है, शूद्र का उपनयन, वेदाध्ययन और अग्निहोत्र सभी कर्म विहित हैं। ध्यान रहे जाति वर्ण नहीं है ।
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【 आदिवासी भी आर्य है तथा उनका उपनयन】
🍁आज मौजूदा वक्त में निषाद जाति बन गई है किंतु प्राचीन काल में निषाद होने की उपाधि उसे देते थे जो आदिवासी होते थे तथा जंगल में रहते थे ।
पञ्चजन कौन है इसपर महर्षि यास्क लिखते है -
“पञ्चजनाः चत्वारो वर्णाः, निषादः पञ्चमः।”
(निरुक्त 3:8)
अर्थ - चार वर्ण और पञ्चम कोटि का निषाद अर्थात् अरण्य ।
वेदों में पञ्चजनो को एक साथ यज्ञादि करने के मंत्र प्रतिपादित है जैसे -
यज्ञियासः पञ्चजनाः मम होत्रं जुषध्वम्।
(ऋग्वेद 10:53:4 )
अर्थ - पञ्चजन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, निषाद) मेरा यज्ञ होत्र करें।
अब इस से स्पष्ट है कि यज्ञाधिकार सब को है, जब यज्ञाधिकार है तो बिना यज्ञोपवीत धारण किए कोई उपनयन नहीं कर सकता यह नियम तो मनु का ही था ।
🍁 कामिक आगम के रचनाकार को प्राचीन शास्त्रों में कई शूद्र पुत्रों के ऋषियों द्वारा उपनयन के कई प्रमाण मिले होंगे तभी उन्होंने ये कहा है की -
क्षत्रविद्वद्ध जातीनां यदुक्तम् चोपवीतकम॥
पूजादि मन्त्रकाले तु धार्यन्नो घार्यमेव वा।
अनुलोमादि वर्णानां युक्तायुक्त विचार्य च॥
जातिभेदोक्त विधिना न धार्य धार्यमेव च।
(कामिका आगम 3:91-92)
अर्थात -पवित्र धागा (जनेऊ) जिसे क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों द्वारा पहना जाना बताया गया है उन्हें केवल देवता-पूजा और मंत्र के समय ही पहना जाना चाहिए। अन्य समय में, वे पवित्र धागा पहन भी सकते हैं और नहीं भी। मिश्रित जातियों और अन्य लोगों के लिए निर्धारित पवित्र धागा पहनने के सटीक नियमों से अच्छी तरह से परामर्श किया जाना चाहिए और यह तय किया जाना चाहिए कि वे पवित्र धागा पहन सकते हैं या नहीं।
यह सब केवल कहने की बाते नहीं बल्कि ये सत्य प्रमाण है तभी पंचयज्ञों का अधिकार शूद्रों को भी है तभी लघुविष्णु-स्मृति पञ्च यज्ञों का विधान शूद्र के लिए भी करती है -
पञ्चयज्ञविधानं तु शूद्रस्यापि विधीयते ॥
(लघुविष्णु-स्मृति 5:9)
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【 उपनयन न होने के दुष्परिणाम 】
🍁जन्मतः व्यक्ति अज्ञानी होता है और अज्ञानी व्यक्ति को ही शूद्र कहा गया है प्राचीन तैतरीय ब्राह्मण ग्रन्थ में , उपनयन के उपरान्त मंत्र दीक्षा के बाद जब वो पढ़ाई पूरी करके द्विज बनता है तो वो अपने माता पिता का नाम रोशन करता है । किंतु धार्मिक शास्त्रों में या विधान है कि पुत्र चाहे द्विज का हो या शुद्र का अगर उसका उपनयन संस्कार नहीं होता तो वह शूद्र ही रह जाता है। जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है -
अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालं असंस्कृताः ।
सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः ।
(मनुस्मृति 2:39)
अर्थ - निर्धारित समय पर संस्कार न होने पर द्विजो की संताने यज्ञोपवीत से पतित हुए श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा निन्दित ‘व्रात्य’ होकर पतित हो जाते हैं ।
‘अत ऊध्र्वं पतितसावित्रीका भवन्ति ।।६।।
(आश्वालायन गृह्यसूत्र)
अर्थ - यदि निर्धारित काल में इनका यज्ञोपवीत न हो तो वे पतित मानें जावें ।
🍁 George Buhler ने संस्कृत शास्त्रों के अपने कम ज्ञान के कारण व्रात्य को बहिष्कृत के रूप में अनुवादित किया लेकिन शास्त्रों में श्रीमद् भागवतम 12:1:36 व्रात्य एक ऐसा शब्द है जो बिना संस्कार के शूद्रों के लिए प्रयोग किया जाता है। जैसे -
सौराष्ट्रावन्त्याभीराश्च शूरा अर्बुदमालवा: ।
व्रात्या द्विजा भविष्यन्ति शूद्रप्राया जनाधिपा: ॥ ३६ ॥
(श्रीमद् भागवतम 12:1:36)
अर्थ - ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों सौराष्ट्र, अवन्ती, आभीर, शूर, अर्बुद और मालव देशके ब्राह्मणगण व्रात्य संस्कारशून्य हो जायेंगे तथा राजालोग भी शूद्रतुल्य हो जायेंगे ॥ ३८
सिन्धोस्तटं चन्द्रभागां कौन्तीं काश्मीरमण्डलम् ।
भोक्ष्यन्ति शूद्रा व्रात्याद्या म्लेच्छाश्चाब्रह्मवर्चस: ॥ ३७ ॥
(श्रीमद् भागवतम 12:1:37)
अर्थ - सिंधु नदी के किनारे की भूमि, साथ ही साथ चंद्रभागा, कौन्तीपुरी और कश्मीरी पर व्रात्य शूद्रों (संस्कार के बिना) और म्लेच्छो द्वारा शासित होंगे।
यहाँ पर ब्राह्मण और क्षत्रिय की संतानों को व्रात्य (शुद्र) कहा गया है उपनयन संस्कार से रहित होने के कारण इससे ये प्रमाणित होता है कि उपनयन रहित जो भी है वो शूद्र है ।
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【 शुद्र संतान के उपनयन के उदहारण 】
🍁प्रथम प्राचीन प्रमाण -
ऋषयो वै सरस्वत्यां सत्रमासत । ते कबषमैलूषं सोमादनयन्– “दास्याः पुत्रः, कितवो ऽब्राह्मणः कथं नो मध्ये दीक्षिष्टेति ?" तं बहिर धन्वोदवहन्―अत्रैनं पिपासा हन्तु, सरस्वत्या उदकं मा पातु इति । स बहिर् धन्वोदूढः पिपासया वित्त एतदपोनप्त्रीयमपश्यत् ।
( ऐतरेय ब्राह्मण-भाष्य 2:1:8, ऐतरेयालोचन, पृष्ठ 11-15 )
भावार्थ - इलूषा के पुत्र कवष को ऋषियों ने सरस्वती के तट पर अनुष्ठित सोम यज्ञ से यह कह कर निकाल दिया कि 'यह दासी-पुत्र, जुआड़ी, अब्राह्मण हमारे मध्य में दीक्षा कैसे प्राप्त करेगा ?" उसे मरुभूमि में भगा दिया गया कि वह प्यासा मर जाय और सरस्वती का जल न पी पाये। जब वह प्यास से व्याकुल हो गया तब उसे ऋग्वेद के दशम मण्डल के अपोनप्त्रीय । अपां नपात्। आपः सूक्त के दर्शन हुए, अर्थात् उस पर उक्त वेद-सूक्त प्रकट हुआ। वह सूक्त वेद में कवप ऐलूष के नाम से अब तक चला आ रहा है।
यह कथा ऐतरेय ब्राह्मण की है , इसी प्रकार इतरा दासी के पुत्र महिदास ऐतरेय पर ऐतरेय ब्राह्मण का प्रादुर्भाव हुआ था। विद्वानों ने अपना मत दिया है की महर्षि ऐतरेय ऐतरेय ब्राह्मण की रचना से पहले उपनयन संस्कार किया था ।
🍁द्वितिय प्राचीन प्रमाण -
श्री रामानुजाचार्य जी वैष्णव मत के थे और वैष्णव मत के प्रवर्तक "शठकोप" थे जो कंजर जाति के थे। शठकोप को तमिल प्रदेश में द्विव्य कवि कहा जाता था। नम्मालवार का दूसरा नाम शठकोप बतलाया जाता है। इनके परम शिष्य का नाम मधुरकवि आल्वार था । श्री नम्माल्वार जी को को मारन, शठगोपन ,परान्कुश, वकूलाभरण, वकुलाभिरामन, मघिल्मारान, शटज़ित,कुरुगूर नम्बी इत्यादि नामों से भी जाना जाता हैं।
स्वामी महेश्वरानन्दगिरि: महामण्डलेश्वर, कनखल लिखते हैं-
"एवं श्री रामानुजाचार्यसम्प्रदायेऽपि 'पल्ली' संज्ञकस्य शूद्रस्य कुले जात: शठकोप:, सच गुणकर्मभ्यामेव ब्राह्मण्यमधिगत्य श्रीवैष्णसंप्रदायस्य परमाचार्य: संवृत इति दिव्यसूरिचरित्रचतुर्थसप्तर्गोक्त वचनैरेतत् विदितं भवति। श्रेष्ठ श्रीवैष्णवाचार्य्य: 'शठकोपोऽन्त्यजात्मज:'।
जन्मकर्म - विशुद्धानां ब्राह्मणानामभूद् गुरु:।"
अर्थ - "श्री रामानुजाचार्य-सम्प्रदाय में भी 'पल्ली' नाम के शूद्र के कुल में उत्पन्न शठकोप गुण, कर्म से श्री वैष्णव सम्प्रदाय के परमाचार्य हुए, यह 'दिव्यसूरिचरित्र' के चतुर्थसर्ग के वचन से विदित होता है। श्रेष्ठ श्रीवैष्णवाचार्य 'शठकोप' अन्त्यज-उत्पन्न थे। वे जन्म-कर्म से विशुद्ध ब्राह्मणों के भी गुरु हुए।"
आज खासकर दक्षिण भारत के वैष्णव मंदिरों में इनकी भी पूजा होती है । इनका भी उपनयन संस्कार हुवा था ।
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【 मिलावट का कारण 】
शास्त्रों के सूत्रों को ऐसे समय के साथ बदले जाना साबित करता है की आज जो भी जन्म आधारित व्यवस्था पर सूत्र/श्लोक /मंत्र है वो मिलाए गए है ताकि मूल वैदिक वर्णव्यस्था का नाश किया जा सके जिससे हिन्दुओ की एकता भंग हो और इस धर्म का नाश हो सके ।
शुरू में इस वर्णव्यस्था सम्बंधित संदर्भों में मिलावट स्मार्तों ने की होगी बाद में अंग्रेजो के समय मांसाहार और मदिरापान के समर्थन में श्लोक विदेशी शक्तियों ने मिलवाये होंगे ताकि सनातन संस्कृति का नाश किया जा सके।
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