जब परमेश्वर ने सभी को एक समान बनाया तो इतनी जातियाँ कैसे बनी ?

कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं कि परमेश्वर ने चारों वर्णों को बनाया और जातियां बनायी किंतु यह सत्य नहीं है । वेदों में ईश्वर से वर्णों की उत्पत्ति को लेकर कर्म विभाग के अनुसार वहां अलंकारिक तुलना की गई हैं ना कि उनसे उत्पन्न होते बताया है । जो वर्ण व्यवस्था महापुरुषों द्वारा स्थापित की गई वह सर्व जन के लिए हितकारी थी किंतु बाद में वह व्यवस्था बहुत विकृत रूप ली जिसका एक कारण वर्ण व्यवस्था के प्रवर्तकों का कलयुग में ना उत्पन्न होना भी है क्योंकि वैदिक काल में समय-समय पर वर्ण व्यवस्था के प्रवर्तकों ने वर्ण व्यवस्था बिगड़े नहीं इसलिए उस व्यवस्था के सिद्धांतों को समय अनुसार बदलाव किया था तथा पुनः वर्ण व्यवस्था की स्थापना की थी ।
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【परमेश्वर ने मनुष्य बनाये वर्ण/जाति नहीं】

🍁परमेश्वर ने सबसे पहले मनुष्य बनाये जो एक समान थे । सभी का वर्ण एक था -

न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।
ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्॥
(महाभारत- शान्तिपर्व 188:10)
अर्थ-सारा मनुष्य-जगत् एक ब्रह्म की सन्तान है। वर्णों में कोई भेद नहीं है। ब्रह्म के द्वारा रचा गया यह सारा संसार पहले सम्पूर्णतः ब्राह्मण ही था। मनुष्यों के कर्मों द्वारा यह वर्णों में विभक्त हुआ। 

ब्रह्म वा इदमासीदेकमेव, तदेकं सन् न व्यभवत्। तत् श्रेयोरूपमत्यसृजत् क्षत्रम्,…..सः नैव व्यभवत्, स विशमसृजत्, ……सः नैव व्यभवत्, सः शौद्रं वर्णमसृजत्।’’
( बृहदारण्यक उपनिषद्-1: 4 :11-13)
अर्थ-‘ब्राह्मण वर्ण ही आरभ में अकेला था। अकेला होने के कारण उससे समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यकता पड़ने पर ब्राह्मण वर्ण में से तेजस्वी वर्ण क्षत्रियवर्ण का निर्माण किया गया। उससे भी समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यक जानकर उस ब्राह्मणवर्ण में से वैश्यवर्ण का निर्माण किया। उससे भी समाज की पूर्ण समृद्धि नहीं हुई। तब उस ब्राह्मणवर्ण में से शूद्रवर्ण का निर्माण किया। इन चार वर्णों से समाज में पूर्ण समृद्धि हुई।’

🍁मनुष्यों के उत्पत्ति के बाद कई महापुरुषों ने मनुष्यों को उनके कर्म विभाग बनाये और इसप्रकार वो वर्णव्यस्था के प्रवर्तक बने -

हमें इतिहास में कई महान राजा और महर्षि देखने को मिलते है जिन्होंने अपनी प्रजा को उनके कर्मानुसार उनके वर्ण बनाये । यह तथ्य सर्वमान्य है कि प्रथम चतुर्वण का प्रवर्तक महर्षि मनु थे किन्तु उसके उपरांत समय - समय पर वर्णव्यस्था के प्रवर्तकों का जन्म हुआ जिन्होंने बिगड़ती वर्णव्यस्था को सुधारने के लिए पुनः वर्णव्यस्था की स्थापना की और उन्होंने अपने परिवार जन और प्रजा को उनके कर्मानुसार वर्ण निर्धारित किये जो कि परिवर्तन शील भी थे जिससे सामाजिक व्यवस्था में दोष न आये और कोई भेद न पैदा हो I जैसे -

1- गृत्समदस्य शौनकश्चातुर्वर्ण्यप्रवर्तयिताभूत्‌॥ 
(विष्णु पुराण 4:8:6)
अर्थ - क्षत्रिय गृत्समद का पुत्र शौनक चा्तुर्वर्ण्य का प्रवर्तक ब्राह्मण हुआ ।

पुत्रोगृत्समद्स्यापि शुनको यस्य शौनकाः। 
ब्राह्मणः क्षत्रियाश्चैव वैश्याः शूद्रास्तथैवच॥ 
(हरिवंश पुराण 1 : 29 : 8 )
अर्थ - गृत्समद के पुत्र शुनक हुए, जिससे शौनक-वंश का विस्तार हुआ । शौनक-वंश में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णो के लोग हुए।  

2- तत: स चतुरो वर्णानाश्रमांश्च व्यभाजयत्।।
(समराङ्गणसूत्रधार 7: 9)
अर्थ - तदनन्तर अनुशासन के लिए महाराज पृथु ने प्रजाजनों के मध्य चार वर्णों एवं चार आश्रमों का विभाग किया। 

🍁अगर किसी को लगता है कि ईश्वर पक्षपाती है तो उसने एकता और समानता की बात क्यों की है‌ और उसने ऐसा क्यों कहा है कि वेदवाणी का तेज ध्वनि के साथ पाठ किया जिससे उसको सब सुने ? सीधी सी बात है ईश्वर भेदभाव रहित है-

अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते संभ्रातरो वावृधः सौभगाय (ऋग्वेद 5:60:5)
अर्थ - मनुष्यों में न कोई बड़ा है, न कोई छोटा, ये सब बराबर के भाई हैं ! वे सब मिलकर लौकिक और पारलौकिक उत्तम ऐश्वर्य के लिए प्रयत्न करें ।

स हृदयं सांमनस्यं विद्वेषं कृणोमि वः अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जात्मिवा घ्या 
( अथर्ववेद - 3:30:1)
अर्थ - हे मनुष्यों तुम सब एक ह्रदय से, एक मन से, निद्वेश होकर रहो! एक दुसरे को सब ओर से प्रेम करो ।

मि॒मी॒हि श्लोक॑मा॒स्ये॑ प॒र्जन्य॑ इव ततनः । गाय॑ गाय॒त्रमु॒क्थ्य॑म् ॥ 
(ऋग्वेद 1:38:14)
अर्थ - हे विद्वन् ! तू वेदवाणी को अपने मुख मे भर ले, फिर उस वेदवाणी को बादल के समान गर्जता हुआ दूर-दूर तक गम्भीर स्वर से फैला, उसका सर्वत्र उपदेश कर ।‌ प्राणों की रक्षा करने वाले वेद-मन्त्रों को स्वयं गान कर, स्वयं पढ़ और दूसरों को पढ़ा।
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【कर्माधारित वर्णव्यस्था के समर्थन में महापुरुषों के वचन 】

1- महाकवि भवभूति ने भी जातिगत भेदभाव से विपरीत गुणों को ही पूजा (आदर) का स्थान माना है -

 गुणा: पूजास्थानं गणिषु न च लिंङ्ग न च वयं ।। 
 (उत्तररामचरितम् 4:11)
अर्थ - पूजा ( सम्मान ) के योग्य व्यक्ति के गुण होते हैं, न कि लिंग ( स्त्री-पुरुष ) भेद से या उम्र भेद से सम्मान के योग्य होते हैं ।

2 - महर्षि शुक्राचार्य का गुण आधारित व्यवस्था को प्रबल समर्थन -

कर्मशीलगुणाः पूज्यास्तथा जातिकुले न हि ।
 न जात्या न कुलेनैव श्रेष्ठत्वं प्रतिपद्यते ।
(शुक्रनीति -2:55)
अर्थात -मनुष्य कर्मशीलता और गुणो से सम्मानीय और पूज्यनीया होता है किसी विशेष जाति और कुल में जन्म लेने से नहीं । किसी भी जाति कुल में पैदा होने से कोई श्रेष्ट नहीं होता है।

3 - 12 शताब्दी के हितोपदेश के रचयिता आचार्य नारायण भी गुण कर्म को प्राथमिकता देते है -

जातिमात्रेण किं कश्चिद्धन्यते पूज्यते क्वचित् 
व्यवहारं परिज्ञाय वध्यः पूज्योऽथवा भवेत्।। 
(हितोपदेश 1:58)
अर्थ - कोई भी मनुष्य जातिमात्र से मारने या पूजने योग्य नहीं हो जाता। व्यवहार को जानकर ही यह निर्धारित किया जा सकता है कि मनुष्य मारने योग्य है अथवा पूजने योग्य ।
यात्यधोऽधो व्रजत्युच्चौर्नरः स्वैरेव कर्मभिः। 
कूपस्य खनिता यद्वत्प्राकारस्येव कारकः।।
(हितोपदेश 2 : 48)
अर्थ - अपने ही कर्मों से मनुष्य ऊंचा चढ़ता है और गिर जाता है। जैसे कुएं का खोदने वाला नीचे जाता है और दीवार का बनाने वाला ऊंचा चढ़ता है।

4 - भविष्य पुराण के रचनाकार का गुण आधारित व्यवस्था का समर्थन -

शूद्रोऽपि शीलसम्पन्नो ब्राह्मणादधिको भवेत् ।
ब्राह्मणो विगताचारः शूद्राद्धीनतरो भवेत् ।३१।
(भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व 44 : 31)
अर्थ - अच्छे शीलवाला शूद्र ब्राह्मण से उत्तम बताया गया है और आचार भ्रष्ट ब्राह्मण शूद्र से भी हीन कहा गया है ।

5 - श्री वेदव्यास जी ने वेदान्तदर्शन प्रथमाध्याय के तृतीय पाद में प्रसङ्गवश शूद्रों को ब्रह्मविद्या एवं वेद पढने के अधिकार की चर्चा करते हुवे कहा है -

भावं तु बादरायणोऽस्ति हि।। 
( वेदान्त दर्शन 1:3:32)
भावार्थ - (भावं तु बादरायण:) बादरायण अर्थात्‌ वेदव्यास ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन में अधिकार का भाव मानते हैं (अस्ति, हि) क्योंकि मधुच्छन्दा आदि वैदिक ऋषियों में शूद्र ऋषियों का भी अस्तित्व है।

जैसे दासीपुत्र कवष-ऐलूष अपोनप्त्रीय सूक्त का ऋषि (ऐतरेय ब्राह्मण 2:3:1)

अपनी बात को प्रमाणित करते हुवे महर्षि वेदव्यास जनश्रुति नाम के शूद्र का उदहारण देते है जो आगे चलकर महान राजा बनता है -
शुगस्य तदनादरश्रवणात्‌ तदाद्रवणात्‌ सूच्यते हि।। 
(वेदान्त दर्शन 1:3:34)
अर्थ- (शुक्‌ अस्य तदनादरश्रवणात्‌) इस जानश्रुति नामक शूद्र का ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन में अनादर सुनाई देने से वह शुक्‌=शोक से व्याकुल हो गया है वह शुक्‌=शोक से आद्रवित होने से ब्रह्मविद्या के उपदेश के लिये रैक्व नामक गुरु के पास द्रुत गति से गया ।

उस शूद्र को रैक्व ऋषि ने ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया। अत: शूद्र को भी ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन का अधिकार है। (द्रष्टव्य - छान्दोग्य उपनिषद 4:1:1)

क्षत्रियत्वगतेश्र्चोत्तरत्र चैत्ररथेन लिङ्गात्‌ ।। 
(वेदान्त दर्शन 1:3:35)
अर्थ- (अत्तरत्र क्षत्रियगते: च) जानश्रुति पौत्रायण पहले शूद्र था, किन्तु गुण और कर्म के कारण वह फिर क्षत्रिय गति को प्राप्त हो गया। 

6 - महर्षि बादरि वर्णव्यस्था में सभी के पूर्ण अधिकार का समर्थन करते है तथा इसे वेदों के अनुरूप मानते है -

निमित्तार्थेन बादरि स्तस्मात्सर्वाधिकारं स्यात् ॥ २७॥  
अपि वान्यार्थदर्शनाद्यथाश्रुति प्रतीयेत ॥ २८॥ 
( मीमांसा दर्शन 6 :1 : 27-28)
भावार्थ - महर्षि बादरि का मत है कि नैमित्तिक सामर्थ्य योग्यता से अधिकार उत्पन्न होता है। इस दृष्टि से वैदिक कर्मों में सबका अधिकार होता है। श्रुतियो में भी कहा गया है कि जैसे परमात्मा वेदवाणी का सबको उपदेश करता है वैसे ही मनुष्य को भी बिना भेदभाव से करना चाहिए ।

7- आचार्य चाणक्य गुण कर्माधारित वर्णव्यस्था के प्रबल समर्थक थे -

कि कुलेन विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम्‌ ।
दुष्कुलं चापि विदुषो देवैरपि स पूज्यते ॥ ।।१८।।
(चाणक्य नीति 8 :18)
अर्थ-विद्याहीन होने पर विशाल कुल का क्या लाभ है? विद्वान नीच कुल का भी हो, तब भी देवताओं द्वारा पूजा जाता है ।  

 गुणैरुत्तमतां याति नोच्चैरासनसंस्थिताः |
प्रासादशिखरस्थो5पि काकः कि गरुडायते ॥ ॥६॥
(चाणक्य नीति 17 : 6)
अर्थ- व्यक्ति को महत्ता उसके गुण प्रदान करते है वह नहीं जिन पदों पर वह काम करता है। क्‍या एक ऊँचे भवन पर बैठा कौवे को गरुड़ कहा जा सकता है।  

8 - भगवान शिव भी महाभारत में मां पार्वती को दिए गए उपदेश में सदाचार कर्माधारित वर्णव्यस्था का प्रबल समर्थन करते है -

न योनिनोपि संस्कारो न श्रुतंन च संततिः
कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम् ॥ 
सर्वोष्य त्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितस्तु शुद्रो पि ब्राह्मणत्वं नियच्छति॥ 
(महाभारत- अनुशासन पर्व 143 : 50-51)
अर्थ - भगवान शिव ने कहा ब्राह्मणत्व की प्राप्ति न तो जन्म से न संस्कार न शास्त्रज्ञान और न सन्तति के कारण है ।ब्राह्मणत्व का प्रधान हेतु तो सदाचार ही है। लोक में यह सारा ब्राह्मण समुदाय सदाचार से ही अपने पदपर बना हुआ है | सदाचार में स्थित रहने वाला शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकता है ।

9 - महाराज युधिष्ठिर भी महाभारत में यक्ष के प्रश्नों का उत्तर देते हुए सदाचार कर्माधारित वर्णव्यस्था का समर्थन करते हैं -

श्रुणु यक्ष कुलं तात न स्वाध्यायो न च श्रुतम् ।
कारणं हि द्विजत्वे च वृत्तमेव न संशय:।।
(महाभारत - वनपर्व 313 : 108)
अर्थ - युधिष्ठिर ने कहा-तात यक्ष !सुनो न तो कुल ,न स्वाध्याय और न शास्त्र श्रवण से ब्राम्हणत्व प्राप्त होता है|ब्राम्हणत्व की प्राप्ति मात्र आचार से प्राप्त होती है|इसमे संशय नही है|

 10 - ऋषि वैश्यम्पायन युधिष्ठिर से आश्वमेधिकपर्व में धर्म आधारित व्यवस्था का समर्थन करते हुए कहते हैं-

न जात्या पुजीतो राजन्गुणाः कल्याणकारणाः।
चण्डालमपि वृत्तस्थं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।।
( महाभारत -आश्वमेधिकपर्व 116:8)
अर्थ - कुल, जाति से कोई पूजनीय नहीं होता है व्यक्ति के अन्दर का गुण ही कल्याणकारक होता है और , यदि चाण्डाल भी वृत्तस्थ हो तो वह ब्राह्मण होता है।

11 - देवर्षि नारद भी कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हुए वर्ण को परिवर्तनशील बताते हैं - 

यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम् ।
यदन्यत्रापि द‍ृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ॥ ३५ ॥
(श्रीमद भागवतम -7:11:35 )
अर्थ – नारद जी ने कहा यदि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होने के लक्षण दिखाता है, जैसा कि वर्णित है, भले ही वह एक अलग वर्ग में प्रकट हुआ हो, उसे वर्गीकरण के उन लक्षणों के अनुसार स्वीकार किया जाएगा ।

12 - महाराज शूद्रक कर्म आधारित व्यवस्था का समर्थन करते हुए जाति पर घमंड करने वालों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं - 

 किं कुलेनोपदिष्टेन शीलमेवात्र कारणम् । 
 भवन्ति सुतरां स्फीताः सुक्षेत्रे कण्टकिद्रुमाः ।।
(मृच्छकटिकम् 8 : 29)
अर्थ – कुल को बताने से क्या लाभ है? (अनुचित कार्य को करने में ) स्वभाव ही प्रमुख कारण होता है। उत्तम खेत में भी कांटेदार पौधे खूब विकसित होने लगते हैं।

13 - महात्मा विदुर महाभारत के उद्योगपर्व में कुलों पर उपदेश देते हुए कहते हैं - 

कुलानि समुपेतानि गोभिः पुरुषतोऽर्थतः । 
कुलसंख्यां न गच्छन्ति यानि हीनानिवृत्ततः ॥ 
वृत्ततस्त्वविहीनानि कुलान्यल्पधनान्यपि ।
कुलसंख्यां च गच्छन्ति कर्षन्ति च महद् यशः ॥
(महाभारत - उद्योगपर्व 36:28-29)
(विदुर नीति 6:5:6 -7)
अर्थ –यदि किसी कुल के पास गौ , अत्यधिक धन एवं सेवा के लिये बहुत से पुरुष सहायक हैं लेकिन सदाचार से रहित हैं अर्थात् उनका आचरण अच्छा नहीं है , तो ऐसे पुरुष की अच्छे कुल में गणना नहीं की जा सकती है।परन्तु थोड़े धनवाले कुल भी यदि सदाचार से सम्पन्न हैं तो वे अच्छे कुलों की गणनामें आ जाते हैं और महान् यश प्राप्त करते हैं।'

14 - यामुनाचार्य जी ने अपने ग्रन्थ में ऐसे प्रमाण दिए थे जिससे वो बिगड़ रही वर्णव्यवस्था को सुधार सके उन्होंने
धर्म को व्यापार न बना दिया जाये इसके लिए ग्रंथों में इसपर भी नियम बनाए गए थे -

देवकोशोपजीवी यः स देवलक उच्यते । 
वृत्त्यर्थं पूजयेद्देवं त्रीणि वर्षाणि यो द्विजः ।
स वै देवलको नाम सर्वकर्मसु गर्हितः ॥
(श्रीयामुनाचार्यकृत आगम प्रमाण)
अर्थ – जो देवपूजा की आयसे जीविका चलाता है, वह 'देवल' नामसे कथित होता है। जो ब्राह्मण जीविका चलाने के लिए तीन वर्ष तक देवपूजा करता है, वह देवल सभी कर्मों में अत्यन्त निन्दा के योग्य है।

आपद्यपि च कष्टायां भीतो वा दुर्गतोऽपि वा ।
पूजयेत्रैव वृत्त्यर्थं देवदेवं कदाचन ।
(श्रीयामुनाचार्यकृत आगमप्रामाण्यधृत परमसंहिता-वाक्य)
अर्थ – अत्यन्त कष्टपूर्ण स्थिति में भी अथवा भयग्रस्त, दुर्दशाग्रस्त और विपदापन्न होकर कभी भी जीविका चलाने के लिए देवपूजा नहीं करनी चाहिए ।

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【उपाधि का जाति में परिवर्तन】

इंद्र, वृत्त, शंभर, गार्गी, कृष्ण, कौत्स, चार्वाक, राम, अर्जुन, दुर्योधन, अत्रि, एकलव्य, हनुमान, रावण आदि ऐसे हजारों प्रचलित पात्र आपको वैदिक इतिहास में मिल जाएंगे, जो बिना जातिगत उपनाम के ही आज तक प्रसिद्ध हैं। फिर सरनेम और उपनाम की शुरुआत किसने और कब से की?

यह इतिहासकारों द्वारा सर्वमान्य है की उपाधियों को देने का कार्य गुप्त काल से प्रारंभ हुआ तथा इसकी शुरुआत प्रजाजन के कर्मों के आधार पर हुई थी जोकि पीढ़ी दर पीढ़ी नहीं दिया जाता था बल्कि उनके कर्मों को देखकर ही दिया जाता था । किंतु गुप्त वंश के पतन के साथ ही इस व्यवस्था ने जन्माना व्यवहार ले लिया लोगों ने अपनी उत्पन्न संतानों को भी वही उपाधि उपनाम के रूप में नाम में लगवाना शुरू कर दिया जिससे आगे आने वाले 500 साल के अंदर ही वर्ण व्यवस्था पूर्ण रूप से जन्म आधारित हो गई। अधिकतर उच्च उपाधियां प्राप्त लोग अपने नाम के आगे उपाधि को ही उपनाम बनाकर दर्शाते थे ताकि उन्हें लोग उच्च समझे। फिर एक ही तरह की उपाधियों का एक उच्च वर्ग निर्मित होने लगा और इस प्रकार समाज में जातिवाद की शुरुआत हुई । बाद में जब मुगल आए तो सर्वप्रथम उन्होंने उपाधि प्राप्त लोगों को ही अपने राजदरबार में उच्च पद पर रखा। फिर धीरे-धीरे उन्होंने समय और परिस्थिति के अनुसार अन्य कई जाति समूह के लोगों के उक्त क्षेत्र का अच्छे से संचालन करने के लिए नए-नए पद निर्मित किए, जो बाद में एक जाति में बदल गए। हिन्दुओं को विभाजित रखने के उद्देश्य से ब्रिटिश राज में हिन्दुओं को 2,378 जातियों में विभाजित किया गया। ग्रंथ खंगाले गए और हिन्दुओं को ब्रिटिशों ने नए-नए नए उपनाम देकर स्पष्ट तौर पर और नयी नयी जातियों में बांट दिया। 

गुप्त काल में प्रजा जन को उनके कर्मों के अनुसार दी गई उपाधियों के कुछ उदाहरण - 

1-द्विवेदी - जो 2 वेदों का ज्ञाता हो । उसे द्विवेदी उपाधि गुप्त काल में दी जाती थी ।

2-त्रिवेदी - जो वेदत्रयी का ज्ञाता हो । उसे त्रिवेदी उपाधि गुप्त काल में दी जाती थी ।

3-चतुर्वेदी - जो चारों वेदों का ज्ञाता हो । उसे चतुर्वेदी उपाधि गुप्त काल में दी जाती थी ।

4-निषाद - जो जंगल में रहता हो अर्थात आदिवासी । उसे निषाद उपाधि गुप्त काल में दी जाती थी ।

5-आचार्य - गुरुकुल का शिक्षक जो वेदों और शास्त्रों का शिष्यों को उपदेश देता है । उसे आचार्य उपाधि गुप्त काल में दी जाती थी ।

6-उपाध्याय - जो वेद का कोई भाग अथवा वेदांग शुल्क लेकर पढाये । उसे उपाध्याय उपाधि गुप्त काल में दी जाती थी ।

7-पुरोहित - प्रधान याजक जो यजमान के यहाँ अगुआ बनकर यज्ञ आदि श्रौतकर्म, गृहकर्म और संस्कार तथा शांति आदि अनुष्ठान करे-कराए। उसे पुरोहित उपाधि गुप्त काल में दी जाती थी ।

8-चर्मकार- मृत पशुवो के चमड़े को निकालने का काम करने वाला व्यक्ति । उसे चर्मकार उपाधि गुप्त काल में दी जाती थी ।

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