जन्म से वर्ण जैसे प्रमाणों का खंडन


कुछ वर्ष पूर्व "भगवतानंद गुरु" नाम के व्यक्ति ने एक पुस्तक लिखी थी अमृत वचन । इस पुस्तक के अध्याय 40 , पृष्ठ संख्या 282-291 (जाति-वर्ण जन्म से अथवा कर्म से ?) में इन्होंने वर्ण को जन्म आधारित सिद्ध करने का प्रयास किया है । जिसको कुछ समय से कुछ संकीर्ण मानसिकता से ग्रसित व्यक्ति कॉपी कर कर के फैला रहे हैं किंतु क्या इसमें कितनी सच्चाई है यह जानने का प्रयास नहीं कर रहे हैं।

हम इस लेख में उनके पुस्तक के अध्याय 40 में दिए गए प्रमाण जिसके द्वारा वो वर्णव्यस्था को जन्म आधारित सिद्ध करना चाहते हैं , हम उन सभी प्रमाणों की समीक्षा करेंगे ।
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【भगवतानंद द्वारा प्रस्तुत श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रमाण 】

ब्राह्मणो जन्मना श्रेयान् सर्वेषां प्राणिनामिह ।
(श्रीमद्भागवत महापुराण)
जन्म से ही ब्राह्मण सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है।

बालयोरनयोर्नॄणां जन्मना ब्राह्मणो गुरुः।
(श्रीमद्भागवत महापुराण)
ब्राह्मण जन्म से ही सभी मनुष्यों का गुरु है।

इज्याध्ययनदानानि विहितानि द्विजन्मनाम्।
जन्मकर्मावदातानां क्रियाश्चाश्रमचोदिताः॥
( श्रीमद्भागवत महापुराण)
जन्म और कर्म से शुद्ध द्विजोंके लिये यज्ञ, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के विशेष कर्मों का विधान है ।

🍁खंडन🍁

भागवत महापुराण में वर्णपरिवर्तन , वर्णपतन तथा कर्म आधारित व्यवस्था का वर्णन है किंतु पुराणों में श्रुति विरुद्ध प्रक्षिप्त श्लोकों को कालांतर में मिलाया गया है द्वारा जिससे उसके मूल सिद्धांत को हानि पहुंच सके और सामाजिक व्यवस्था बिगड़ सके किंतु अगर हम इसका गहन अध्ययन करते हैं तो हमें इसका मूल वर्ण व्यवस्था का स्वरूप समझ आता है -

कलयुग में लगभग सभी लोगों को शूद्र बोला गया है जो जन्माना वर्ण व्यवस्था में संभव नहीं केवल कर्म आधारित व्यवस्था में ही संभव है -
तस्मिन् लुब्धा दुराचारा निर्दया: शुष्कवैरिण: ।
दुर्भगा भूरितर्षाश्च शूद्रदासोत्तरा: प्रजा: ॥ २५ ॥
(श्रीमद्भागवत महापुराण 12:3:25)
अर्थात्‌ - कलियुग में लोग लालची, बुरे व्यवहार वाले और निर्दयी होते हैं, और वे बिना किसी कारण के एक दूसरे से लड़ते हैं। दुर्भाग्य से और भौतिक इच्छाओं से ग्रस्त, कलियुग के लोग लगभग सभी शूद्र और बर्बर हैं।

राजाओं को भी वैदिक संस्कारहीन होने के कारण शूद्र तुल्य बोल दिया गया है जो जन्माना व्यवस्था में संभव नहीं केवल कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था में ही संभव है -

सौराष्ट्रावन्त्याभीराश्च शूरा अर्बुदमालवा: ।
व्रात्या द्विजा भविष्यन्ति शूद्रप्राज्ञा जनाधिपाः ॥ ३८ ॥
(श्रीमद्भागवत महापुराण 12:1:38)
अर्थात्‌ - ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जाएगा, त्यों-त्यों सौराष्ट्र, अवंती, आभीर, शूर, अर्बुद और मालव देश के ब्राह्मणगण संस्कारशून्य हो जाएँगे तथा राजा लोग भी शूद्रतुल्य हो जाएँगे।

नारद जी ने वर्णपरिवर्तन का समर्थन किया है जो जन्माना व्यवस्था में संभव नहीं केवल कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था में ही संभव है -
यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम् ।
यदन्यत्रापि द‍ृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ॥ ३५ ॥
(श्रीमद्भागवत महापुराण 7:11:35 )
अर्थात्‌ – नारद जी ने कहा यदि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होने के लक्षण दिखाता है, जैसा कि वर्णित है, भले ही वह एक अलग वर्ग में प्रकट हुआ हो, उसे वर्गीकरण के उन लक्षणों के अनुसार स्वीकार किया जाएगा ।

यहां तक कि मनु के पुत्र का स्वयं वर्ण बदला था और एक पुत्र का दुष्कर्म करने के कारण वर्ण पतन हुआ था तो क्या यह जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था में संभव है बिल्कुल नहीं इससे साफ जाहिर है कि प्राचीन काल में कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था थी -

धृष्टाद् धार्ष्टमभूत् क्षत्रं ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ ।
(श्रीमद भागवतम - 9:2:17)
अर्थात्‌ – मनु के पुत्र धृष्ट से धार्ष्ट नामक एक क्षत्रिय उत्पन्न हुवे, उन्होंने ब्राह्मण का स्थान प्राप्त किया।  

पृषध्स्तु मनुपुत्रो गुरुगोवधाच्छूद्रत्वमगमत्‌ ॥ १७॥
(विष्णु पुराण 4:1:17)
अर्थात्‌ – मनु का पृषध्र नामक पुत्र गुरु की गौ का वध करने के कारण क्षत्रिय से शूद्र हो गया ।

भागवत महापुराण गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय में वेद तुल्य पवित्र माना गया है इसीलिए इस संप्रदाय का इस विषय पर क्या सोचना है यह जानना आवश्यक होगा -

श्रीमद्भागवत महापुराण 12.3.25 और 7.15.70 पर गौड़ीय वैष्णव आचार्य भक्तिवेदांत स्वामी श्रीला प्रभुपाद टिप्पणी करते हुए वे तात्पर्य में लिखते हैं -
वैदिक संस्कार और शिक्षा की कमी के कारण कलियुग में सभी शूद्र हो जाएंगे क्योंकि कलियुग में वैदिक धर्म का पतन शुरू हो जाएगा। जिस प्रकार सृष्टि के निर्माण के समय सभी ब्राह्मण थे उसी प्रकार कलियुग में हर कोई शूद्र होगा जो कि जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था में संभव नहीं है। क्योंकि कलि के इस युग में सांस्कृतिक शिक्षा नहीं है, हर कोई आध्यात्मिक रूप से अप्रशिक्षित है और इसलिए लगभग सभी को शूद्र माना जाना चाहिए।
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【भगवतानंद द्वारा प्रस्तुत महाभारत के प्रमाण】

जन्मनैव महाभागो ब्राह्मणो नाम जायते ।
नमस्य: सर्वभूतानामतिथि: प्रसृताग्रभुक्॥
(महाभारत)
ब्राह्मण जन्म से ही महान् है और सभी प्राणियों के द्वारा पूजनीय है।

विदुर जी कहते हैं
शूद्रयोनावहं जातो नातोऽन्यद् वक्तुमुत्सहे ।
कुमारस्य तु या बुद्धिर्वेद तां शाश्वतीमहम् ॥
(महाभारत)
अर्थात्, मेरा जन्म शूद्रयोनि में हुआ है अतः मैं (ब्रह्मविद्या में अधिकार नहीं होने से ) इसके अतिरिक्त और कोई उपदेश देने का मैं साहस नहीं कर सकता, किन्तु कुमार सनत्सुजात की बुद्धि सनातन है, मैं उन्हें जानता हूँ ।

तं च प्राप्य चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते।
ततश्चतुःशते काले श्रोत्रियो नाम जायते॥
(महाभारत)
इस प्रकार से जन्मना ब्राह्मण होकर कर्मणा भी जब वह ब्राह्मण बनता है, तो ऐसे स्तर के चार सौ जन्मों के बाद इसे ब्रह्मबोध होता है।

🍁खंडन🍁

महाभारत मूल रूप से कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था पर ही आधारित है अगर कालांतर कुछ प्रछिप्त श्लोक मिलाए गए हैं तो उन्हें प्रमाण ही माना जा सकता है ।

शूद्रे चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते ।
न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः ॥
(महाभारत - वनपर्व 177:20)
अर्थात् - यदि शुद्र में ब्राह्मणीय लक्षण हैं तो वो ब्राह्मण है और अगर किसी ब्राह्मण में ब्राह्मणीय लक्षण का आभाव है तो वो ब्राह्मण शुद्र है ।

न योनिनोपि संस्कारो न श्रुतंन च संततिः
कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम् ॥ 
सर्वोष्य त्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितस्तु शुद्रो पि ब्राह्मणत्वं नियच्छति॥ 
(महाभारत- अनुशासन पर्व 143 : 50-51)
अर्थात्‌ - भगवान शिव ने कहा ब्राह्मणत्व की प्राप्ति न तो जन्म से न संस्कार न शास्त्रज्ञान और न सन्तति के कारण है ।ब्राह्मणत्व का प्रधान हेतु तो सदाचार ही है। लोक में यह सारा ब्राह्मण समुदाय सदाचार से ही अपने पदपर बना हुआ है | सदाचार में स्थित रहने वाला शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकता है ।

न जात्या पुजीतो राजन्गुणाः कल्याणकारणाः।
चण्डालमपि वृत्तस्थं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।।
( महाभारत -आश्वमेधिकपर्व 116:8)
अर्थात्‌ - कुल, जाति से कोई पूजनीया नहीं होता है व्यक्ति के अन्दर का गुण ही कल्याणकारक होता है और , यदि चाण्डाल भी वृत्तस्थ हो तो वह ब्राह्मण होता है।

तावच्छूद्रसमो ह्येष यावद् वेदे न जायते।
तस्मिन्नेवं मतिद्वैधे मनु: स्वायम्भुवोब्रवीत्॥ 
(महाभारत वनपर्व 180 : 35)
अर्थात्‌ - जब तक बच्चे का संस्कार करके उसे वेद का स्वाध्याय न कराया जाय, तब तक वह शुद्र होता है। यह नियम स्वयंभू मनु द्वारा ही बनाया गया है।

सत्यम दमस्तपो दानमहिंसा धर्मनित्यता।
साधकानि सदा पुंसा जातिर्न कुलं नृप॥
(महाभारत वनपर्व 181 : 43)
अर्थात्‌ - हे राजा! सत्य, आत्म-संयम, अनुशासन, दान, अहिंसा और धार्मिकता - ये ऐसी चीजें हैं जो मनुष्य को समाज में उच्च सम्मान दिलाती हैं, न कि जाति या कुल।

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【भगवतानंद द्वारा प्रस्तुत तंत्र ग्रंथों के प्रमाण】

प्रणवं वैदिकं चैव शूद्रे नोपदिशेच्छिवे।
(परमानन्द तंत्र)

शूद्राणां वेदमंत्रेषु नाधिकार: कदाचन।
स्थाने वैदिकमंत्रस्य मूलमंत्रं विनिर्दिशेत्॥
(योगिनी तंत्र)

🍁खंडन🍁

यजुर्वेद में स्पष्ट है की वेद पढ़ने का अधिकार सभी मनुष्य को है इसलिए भगवतानंद के ये प्रमाण श्रुति विरुद्ध होने के कारण अप्रमाण सिद्ध होते हैं । इसके अतिरिक्त कई ऐसे तंत्र ग्रंथ है जिनमें वेद अनुरूप कई वचन है जो भगवतानंद के प्रमाणों का खंडन करते हैं , जैसे-

ग॒त॑ शूद्रस्प शूद्र॒त्वं विप्रस्यापि च विप्रता ।
दीक्षासंस्कारसम्पन्ने जातिभेदो न विद्यते॥
(कुलार्णव तंत्र - 14: 91)
अर्थात्‌ – दीक्षा संस्कार के बाद कोई शूद्र , शूद्र नहीं रहता है, न ही कोई विप्र विप्र रहता है। दीक्षा के बाद जाति का कोई अंतर नहीं रहता है।

यदि ज्ञानं भवेद एव सा देवो न तु मनुषः 
चाण्डालदिनीचजातौ स्थिरो व ब्राह्मणोत्तमः
(रुद्रयामल तंत्र 48:131)
अर्थात्‌ –अगर किसी को ज्ञान की प्राप्ति होती है तो वो देव सामान्य है मनुष्य नहीं , निम्न जाती के चाण्डाल भी ज्ञान प्राप्ति के बाद ब्राह्मण से उत्तम हो जाता है।

ब्रह्मनन्दमयं ज्ञानं कथयामि वरानने ।
नः ब्राह्मणो ब्राह्मणस्तु क्षत्रिय: क्षत्रियस्तथा ॥  
वैश्यो न वैश्यः शूद्रों न शूद्रत्स्तु परमेश्वरी ।
चाण्डालो नैव चाण्डालः पौल्कसो न च॑ पौल्कसः ॥  
सर्वे सम॑ विजानीयात्परमार्मेविनिश्चयात्‌ ।
(ज्ञानार्णव तंत्र 23:28-29)
अर्थात्‌ - ब्रह्मज्ञान का अधिकारी कौन है ? किसी भी वर्ण के बीच कोई भेद नहीं है, यहां तक कि चांडाल या पौलकसो को भी ब्रह्म के साथ एकीकरण प्राप्त होता है तथा सभी एक सामान है।
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【भगवतानंद द्वारा प्रस्तुत श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के प्रमाण 】
जन्मना लब्धजातिस्तु
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण)
जाति की प्राप्ति जन्म से ही है।

क्षत्रियो वाथ वैश्यो वा कल्पकोटिशतेन च ॥
तपसा ब्राह्मणत्वं च न प्राप्नोति श्रुतौ श्रुतम् ।
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण)
क्षत्रिय और वैश्य भी करोड़ों कल्पों तक तपस्या करके भी केवल तपस्या के दम पर ब्राह्मण नहीं बन सकते।

 🍁खंडन🍁

जाति की प्राप्ति जन्म से होती है इस विषय पर यह प्रमाण सत्य हैं किंतु वर्ण की प्राप्ति जन्म आधारित नहीं है जाति और वर्ण में अंतर होता है कदाचित यह इनको ज्ञात नहीं, इससे इन्होंने मूर्खता का प्रमाण दिया ।

जाति शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की “जनि” धातु से हुई है।
वर्ण शब्द "वृञ" धातु से बनता है जिसका मतलब है चयन या वरण करना है । 

यास्क ने निरुक्त में कहा है कि ‘‘वर्णो वृणोतेः’’ 
(निरुक्त 2 : 3)
अर्थात् - वर्ण उसे कहते हैं जो वरण अर्थात् चुना जाये ।

आकृतिर्जातिलिङ्गाख्या- (न्याय दर्शन 2:2:65)
अर्थात - जिन व्यक्तियों कि आकृति (इन्द्रियादि) एक समान है,उन सबकी एक जाति है।

जातिरिति च न चर्मणो न रक्तस्य न मांसस्य न चास्थिनः। 
न जातिरात्मनो जातिर्व्यवहारप्रकल्पिता॥ - नीरालम्बोपनिषद-10
अर्थात - जाति (शरीर के) चर्म, रक्त, मांस, अस्थियों और आत्मा की नहीं होती। उसकी (मानव, पशु-पक्षी आदि जाति की) प्रकल्पना तो केवल व्यवहार के निमित्त की गई है ।
जाति (अंग्रेज़ी: species, स्पीशीज़) जीवों के जीव-वैज्ञानिक वर्गीकरण में सबसे बुनियादी और निचली श्रेणी होती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ऐसे जीवों के समूह को एक जाति बुलाया जाता है । उदाहरण के लिए एक भेड़िया और शेर आपस में बच्चा पैदा नहीं कर सकते इसलिए वे अलग जातियों के माने जाते हैं।

दूसरे प्रमाण में भगवतानंद ने कहा है कि कोई अन्य वर्ण का कितना भी तपस्या कर ले कभी ब्राह्मण नहीं बन सकता है लेकिन इसका खंडन तो हमारे शास्त्र ही कर देते हैं जैसे -

तस्मिन्नेव तदा तीर्थे सिन्धुद्वीपः प्रतापवान्‌ ।
देवापिंश्व महाराज ब्राह्मण्यं प्रापतुमेहत्‌ ॥ १०॥
तथा च कौशिकस्तात तपोनित्यो जितेन्द्रियः ।. 
तंपसा वै सुतप्तेन ब्राह्मणत्वमवाप्तवान ॥ ११॥
(महाभारत -शल्य पर्व 40 : 10-11)
अर्थात्‌ - महाराज ! उन्हीं दिनों उसी तीर्थ में प्रतापी सिन्धुद्दीप तथा देवापि ने वहाँ तप करके महान्‌ ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। कुशिकवंशी विश्वामित्र भी वहीं निरन्तर इन्द्रिय संयमपूर्वक तपस्या करते थे । उस भारी तप के प्रभाव से उन्होंने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया और वे ब्राह्मण हो गए ॥

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【भगवतानंद द्वारा प्रस्तुत भविष्य पुराण के प्रमाण】

जन्मना चोत्तमोऽयं च सर्वार्चा ब्राह्मणोऽर्हति॥
(भविष्य पुराण)
ब्राह्मण जन्म से ही उत्तम है, और सबों के द्वारा सम्माननीय है।

🍁खंडन🍁

भविष्य पुराण में ऐसे बहुत से प्रमाण है जो जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था का खंडन स्वयं करते हैं -

शूद्रोऽपि शीलसम्पन्नो ब्राह्मणादधिको भवेत् ।
ब्राह्मणो विगताचारः शूद्राद्धीनतरो भवेत् ।३१।
(भविष्य पुराण 1:44:31)
अर्थात्‌ - अच्छे शीलवाला शूद्र ब्राह्मण से उत्तम बताया गया है और आचार भ्रष्ट ब्राह्मण शूद्र से भी हीन कहा गया है ।

यद्येकास्फुटमेव जातिरपरा कृत्यात्परं भेदिनी ।
यद्वा व्याहृतिरेकतामधिगता यच्चान्यधर्मं ययौ । ।
एकैकाखिलभावभेदनिधनोत्पत्तिस्थितिव्यापिनी ।
किं नासौ प्रतिपत्तिगोचरपथं यायाद्विभक्त्या नृणाम् ।३३।
(भविष्य पुराण 1:44:33)
अर्थात्‌ - यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि जाति (मानव जाति) एक ही है, किन्तु दूसरी (ब्राह्मण, क्षत्रिय, आदि) के निर्माण केवल भिन्न-भिन्न कर्मों द्वारा किये गये हैं अथवा व्यवहार रूप में वह (मानव-जाति) एक ही है केवल धर्मों में भिन्नता है, इसलिए निखिल भाव एवं भेद मरण, उत्पत्ति तथा स्थिति में व्याप्त रहने वाली यह मानवी जाति इन्हें दिखाई नहीं दे रही है जो मनुष्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि द्वारा विभाजन करने के लिए तैयार रहते हैं। ३३

विलासिनीभुजंगादिजनवन्मदविह्वलाः ।
व्यामुह्यन्ति सदाचाराद्ब्राह्मणत्वात्पतन्ति च । । १५
संस्कृतोऽपि दुराचारो नरकं याति मानवः ।
निःसंस्कारः सदाचारो भवेद्विप्रोत्तमः सदा । । १६
(भविष्य पुराण 1:42:15-16)
अर्थात्‌ – बिलासी और दुष्ट आदि लोगों की भाँति मदान्ध होकर संस्कारी पुरुष मोह में पड़कर ब्राह्मणत्व से पतन हो जाता है और वो नर्क जाते है किन्तु संस्कार हीन पुरुष, सदाचारी एवं उत्तम हो तो वो ब्राह्मण हो जाते हैं । 

माता का वर्ण भले ही अलग हो किंतु उसका पुत्र तपस्या करके ब्राह्मण बन रहा है यह स्वयं में जन्म आधारित व्यवस्था का खंडन है -

श्वपाकीगर्भ सम्भूतो पिता व्यासस्य पार्थिव:|
तपसा ब्राम्हणो जात: संस्कारस्तत्र कारणम्||
(भविष्य पुराण 1 : 42 :27)
अर्थात्‌ – महर्षि व्यास के पिता महर्षि पराशर चाण्डाली के गर्भ से उत्पन्न हुए और संस्कार होने पर तपस्या करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त करके ब्राम्हण बने |

नाविकागर्भ सम्भूतो मंदपालो महामुनि:|
तपसा ब्राम्हणो जात: संस्कारस्तत्र कारणम्||
(भविष्य पुराण 1 : 42 :30)
अर्थात्‌ – महर्षि मंदपाल नाविका के गर्भ से उत्पन्न हुए और संस्कार होने पर तपस्या करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त करके ब्राम्हण बने |

गणिकागर्भ सम्भूतो वशिष्ठश्च महामुनि:|
तपसा ब्राम्हणो जात: संस्कारस्तत्र कारणम्||
(भविष्य पुराण 1 : 42 :29)
अर्थात्‌ – महर्षि वशिष्ठ वैश्या के गर्भ से उत्पन्न हुए और संस्कार होने पर तपस्या करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त करके ब्राम्हण बने |
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【भगवतानंद द्वारा प्रस्तुत स्मृतियों के प्रमाण】

जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।
विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रियलक्षणम्॥
(अत्रि संहिता)
ब्राह्मण: सम्भवेनैव देवानामपि दैवतम् ।
प्रमाणं चैव लोकस्य ब्रह्मात्रेव हि कारणम् ॥
(मनुस्मृति)
अर्थात्, जन्म से ही ब्राह्मण देवताओं का भी देवता होता है और लोक में उसका प्रमाण माना जाता है इसमें वेद ही कारण हैं ।

🍁खंडन🍁

स्मृतियों में केवल मनुस्मृति ही प्रमाणित है अन्य स्मृति प्रमाणित नहीं है स्मार्त संप्रदाय में सभी स्मृतियों को आधार माना जाता है किंतु अन्य संप्रदाय में ऐसा नहीं है वैदिक मत को मानने वाले केवल मनुस्मृति को ही प्रमाण मानते हैं । वैष्णव तो स्मृतियों तक को प्रमाण नहीं मानते , वह अपने पंचारात्र पर आधारित शास्त्रों को ही मनुष्य स्मृतियों की जगह प्रमाण मानते हैं ।

भाष्यकार मेधातिथि ( 9वीं शताब्दी ) की तुलना में कुल्लूक भट्ट ( 12वीं शताब्दी ) के संस्करण में एक सौ सत्तर श्लोक अधिक उपलब्ध हैं । वे तब तक मूल पाठ के साथ घुल - मिल नहीं पाये थे , अत : उनको कुललूक भट्ट के संस्करण में बृहत् कोष्ठक में दर्शाया गया है ।
 मेधातिथि के भाष्य के अन्त में एक श्लोक मिलता है , जिससे यह जानकारी मिलती है कि मनुस्मृति और उसका मेधातिथि भाष्य लुप्तप्राय: था । उसको विभिन्न संस्करणों की सहायता से सहारण राजा के पुत्र राजा मदन ने पुन: संकलित कराया । ऐसी स्थिति में श्लोक में क्रमविरोध , स्वल्पाधिक्य हो जाना सामान्य बात है —

मान्या कापि मनुस्मृतिस्तदुचिता व्याख्यापि मेधातिथे: ।
सा लुप्तैव विधेर्वशात् क्वचिदपि प्राप्यं न तत्पुस्तकम् ।
क्षोणीन्द्रो मदनः सहारणासुतो देशान्तरादाहृतै : ,
जीर्णोद्धारमचाकरत्तत इतस्तत्पुस्तकै: लोखितै: ।
( उपोद्घघात , मेधातिथि भाष्य , गंगानाथ झा , खण्ड . 3 , पृष्ठ 1 )
अर्थात् — 'समाज में मान्य कोई मनुस्मृति थी , उस पर मेधातिथि का भाष्य भी था किन्तु वह दुर्भाग्य से लुप्त हो गयी । वह कहीं उपलब्ध नहीं थी । सहारण के पुत्र राजा मदन ने विभिन्न प्रदेशों से उसके संस्करण मंगाकर उसका जीर्णाद्धार कराया और विभिन्न पुस्तकों से मिलाकर यह भाष्य तैयार कराया ।’

मनुस्मृति के स्वरूप में परिवर्तन का यह बहुत महत्वपूर्ण प्रमाण है। 
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【भगवतानंद द्वारा प्रस्तुत उपपुराण के प्रमाण】

जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः
(पराशर उपपुराण)
जन्म से ब्राह्मण, संस्कार से द्विज, विद्या से विप्र और तीनों से श्रोत्रिय होता है।
स्त्रीशूद्रबीजबंधूनां न वेदश्रवणं स्मृतम्।
तेषामेवहितार्थाय पुराणानि कृतानि वै।
(औशनस उपपुराण)
स्त्री और शूद्र हेतु वेदश्रवण का निषेध ऊपर के वाक्य से और नीचे के भी प्रमाणों से मिलता है। इसीलिए उनके कल्याण के लिए पुराणों का प्रणयन किया गया।

🍁खंडन🍁

भगवतानंद द्वारा प्रस्तुत यह उपपुराण के प्रमाण श्रुतिओं के विरुद्ध है क्योंकि यहां स्त्रियों और शूद्रों को वेदाध्ययन के अधिकार से वंचित किया गया है।

यथे॒मां वाचं॑ कल्या॒णीमा॒वदा॑नि॒ जने॑भ्यः।
ब्र॒ह्म॒रा॒ज॒न्या᳖भ्या शूद्राय॒ चार्या॑य च॒ स्वाय॒ चार॑णाय च।
प्रि॒यो दे॒वानां॒ दक्षि॑णायै दा॒तुरि॒ह भू॑यासम॒यं
मे॒ कामः॒ समृ॑ध्यता॒मुप॑ मा॒दो न॑मतु ॥२ ॥
( यजुर्वेद 26:2 )
अर्थात्‌ - हे मनुष्यो ! मैं (ईश्वर ) सबका कल्याण करने वाली वेदरूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण , क्षत्रियों, शूद्रों , वैश्यों और अपने स्त्रियों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो , उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिसे पराया समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ, वैसे ही तुम भी आगे आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलते रहो।

वेदों के मन्त्रों पर लगभग 26 महिलाओं के नाम का उल्लेख ऋषिका के रूप में मिलता है , ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची बृहद् देवता के दूसरे अध्याय में इस प्रकार है—

घोषा गोधा विश्ववारा, अपालोपनिषन्निषत्।
ब्रह्मजाया जुहूर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादिति:॥ 84॥
इन्द्राणी चेन्द्रमाता च सरमा रोमशोर्वशी।
लोपामुद्रा च नद्यश्च यमी नारी च शश्वती॥ 85॥
श्रीर्लाक्षा सार्पराज्ञी वाक्श्रद्धा मेधा च दक्षिणा।
रात्री सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्य ईरिता:॥ 86॥
(बृहद्देवता 2:84-86)
अर्थात्‌ -घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या- सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हैं।

महाभारत में गार्गी सहित एक दर्जन से अधिक विदुषियों का वर्णन आता है। उनमें सुलभा का विशेष महत्त्व है। अन्य विदुषियां थीं शिवा, सिद्धा, श्रुतावली, विदुला आदि (शान्तिपर्व 320.82; उद्योगपर्व 109.18; शल्यपर्व 54.6; उद्योगपर्व 133 आदि)
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【भगवतानंद द्वारा प्रस्तुत बृहदारण्यकोपनिषद् के प्रमाण】

ब्रह्म वा इदमग्रआसीदेकमेव सृजत क्षत्रं यान्येतानि स नैव व्यभवत् स विशमसृजति स नैव व्यभवत्स शौद्रंवर्णमसृजत्।
( बृहदारण्यकोपनिषद् )
अर्थात् सबसे पहले ब्राह्मण वर्ण ही था । उसने क्षत्रिय वर्णका सृजन किया । वह ब्राह्मण क्षत्रिय का सृजन करने के बाद भी अपनी वृद्धिमें सक्षम नही हुआ, तब उसने वैश्य वर्ण का सृजन किया । इसके अनन्तर (अर्थात् क्षत्रिय और वैश्यकी रचनाके बाद )भी वह ब्रह्म प्रवृद्ध न हो सका ,तब उसने शूद्र वर्णकी रचना की।

🍁खंडन🍁

भगवतानंद द्वारा प्रस्तुत प्रमाण 3 मंत्रों (11-13) को एक साथ मिलाकर बनाया गया है किंतु उन्होंने यहां पर मनमाने ढंग से भावार्थ लिखा है जोकि उनकी मूर्खता को सिद्ध करता है । इस मंत्र के भावार्थ तथा व्याख्या को पढ़ें -

‘ब्रह्म वा इदमासीदेकमेव, तदेकं सन् न व्यभवत्। तत् श्रेयोरूपमत्यसृजत् क्षत्रम्,…..सः नैव व्यभवत्, स विशमसृजत्, ……सः नैव व्यभवत्, सः शौद्रं वर्णमसृजत्।’’

( बृहदारण्यक उपनिषद्-1: 4 :11-13)

भावार्थ-‘ब्राह्मण वर्ण ही आरभ में अकेला था। अकेला होने के कारण उससे समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यकता पड़ने पर ब्राह्मण वर्ण में से तेजस्वी वर्ण क्षत्रियवर्ण का निर्माण किया गया। उससे भी समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यक जानकर उस ब्राह्मणवर्ण में से वैश्यवर्ण का निर्माण किया। उससे भी समाज की पूर्ण समृद्धि नहीं हुई। तब उस ब्राह्मणवर्ण में से शूद्रवर्ण का निर्माण किया। इन चार वर्णों से समाज में पूर्ण समृद्धि हुई।’

व्याख्या-जगत् के प्रारम्भ में, मनुष्य के उत्पन्न होने पर सभी मनुष्य एक ही जाति के थे जिन्हें इस कण्डिका में ब्राह्मण कहा गया हैं मनुष्योन्नति के लिए चारों वर्णों की समस्त देश को जरूरत हुआ करती है।
(१) प्रत्येक देश में, अध्यापक, उपदेशक और पुरोहितों (ब्राह्मण वर्ण) की जरूरत हुआ करती है।
(२) देश की रक्षा तथा उसे सुप्रबन्ध में रखने के लिए सिपाही और राजा (क्षत्रिय वर्ण) अपेक्षित होते हैं।
(३) खेती, पशु-पालन और व्यापार करने वालों (वैश्य वर्ण) की आवश्यकता होती है।
(४) शारीरिक परिश्रम करने वाले मजदूर (शूद्र वर्ण) भी प्रत्येक देश में होने चाहिए तब ही देशोन्नति हो सकती है और हुआ करती है।

महाभारत भी इस तथ्य को प्रमाणित करता है-

न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।
ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्॥
(महाभारत- शान्तिपर्व 188:10)
अर्थात्-सारा मनुष्य-जगत् एक ब्रह्म की सन्तान है। वर्णों में कोई भेद नहीं है। ब्रह्मा के द्वारा रचा गया यह सारा संसार पहले सम्पूर्णतः ब्राह्मण ही था। मनुष्यों के कर्मों द्वारा यह वर्णों में विभक्त हुआ। 

इत्येतैःकर्मभिर्व्यस्ताः द्विजा वर्णान्तरं गताः।
धर्मो यज्ञक्रिया तेषाँ नित्यंच प्रतिषिध्यते ॥ 
(महाभारत- शान्तिपर्व 188:14)
अर्थात्-कार्य भेद के कारण ब्राह्मण ही पृथक-पृथक वर्णों के हो गये। इसलिए धर्म-कर्म और यज्ञ क्रिया उनके लिए भी विहित है-और कभी निषेध नहीं किया गया है ॥ १४ ॥

इसके अतिरिक्त पुराण भी इसी तथ्य को प्रमाणित करता है-

संसर्ज ब्राह्मणनग्रे सृष्टयादौ स चतुर्मुखः। 
सर्वे वर्णाः पृथक् पश्चात् तेषाँ वंशेषु जज्ञिरे॥ 
(पद्मपुराण उत्कलखंड 38:44) 
अर्थात्- ब्रह्म ने सृष्टि के प्रारंभ में जिन मनुष्यों को बनाया वो ब्राह्मण थे फिर वे अलग अलग कर्म से सभी पृथक-पृथक वर्ण के हुए। 

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【भगवतानंद द्वारा प्रस्तुत छान्दोग्योपनिषत् और गीता के प्रमाण】

तद्य इह रमणीयचरणाभ्यासो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणाभ्यासो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरनश्वयोनिं वा शूकर योनिं वा चाण्डालयोनिं वा।
(छान्दोग्योपनिषत्)
अर्थात्, उन में जो अच्छे आचरणवाले होते हैं वे शीघ्र ही उत्तमयोनि को प्राप्त होते हैं । वे ब्राह्मणयोनि, क्षत्रिययोनि अथवा वैश्ययोनि प्राप्त करते हैं तथा अशुभ आचरण वाले होते हैं वे तत्काल अशुभ योनिको प्राप्त होते हैं। वे कुत्ते की योनि, सूकर की योनि अथवा चाण्डालयोनि प्राप्त करते हैं।

कारणं गुणसंगोस्य सदद्योनिजन्मसु ।
(श्रीमद्भगवद्गीता)
गुणोंमें जो आसक्ति है वही इस भोक्ता पुरुष के अच्छी -बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है ।

ये तो सिद्ध ही है सभी वर्ण भगवान् से उत्पन्न हुए अब इन वर्णों का विभाग सुनिए ! इन वर्णोंमें जन्म कैसे होता है इस विषय में भगवान् गीता में कहते हैं –
गुणकर्मविभागशः।
अर्थात्, जन्मांतर में किये गए कर्मों और सञ्चित गुणोंके द्वारा विभाग करके ही भगवान् चारों वर्णोंमें जन्म देते हैं !

🍁खंडन🍁

भगवतानंद को कर्म के विषय में विशेष ज्ञान का अभाव है तभी उन्होंने यह तथ्य रखें है जिसका जन्माना वर्ण व्यवस्था से कोई संबंध नहीं है ।

अनेक पूर्व जन्मों से लेकर वर्तमान में किये गए कर्मों के संचय को संचित कर्म कहते हैं यह वह कर्म है जो उन्होंने अपने पिछले जन्म में नहीं चुकाए थे जिसके कारण उन्हें अपने कर्म के अनुसार जन्म मिलता है। संचित कर्म में से, थोड़ा सा अंश मात्र कर्मों का फल जो हमें इस जन्म में भोगना है उसे प्रारब्ध कर्म कहते हैं । हमारे जीवन में जो अच्छा-बुरा घटित होता है, जिन पर हमारा निरंतरण नहीं है वो प्रारब्ध है। ये प्रारब्ध कर्म ही (भाग्य) के रूप में नए होने वाले जन्म की योनि व उसमें मिलने वाले भोग को निर्धारित करते हैं। फिर इस जन्म में किए गए कर्म, जिनको क्रियमाण कहा जाता है, वह भी संचित संस्कारों में जाकर जमा होते रहते हैं। उसी संचित कर्म का अंश प्रारब्ध कर्म (भाग्य) के रूप में हमें मिलता है।

एक व्यक्ति को उसके पिछले जन्म के कर्मों से अच्छे समृद्ध परिवार में जन्म मिलता है, किंतु इससे उसका वर्ण का निर्धारण नहीं हो जाता है , अभी उसको वैदिक संस्कार तथा वर्ण निर्धारण की प्रक्रिया से गुजरना होता है। जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा यदि शूद्र परिवार में जन्म लेने वाला व्यक्ति इस जन्म में अपने अच्छे कर्मों से अपने अंदर ब्राह्मणीय गुणों का विकास करके संचित कर्मों का भुगतान करता है तो वह इसी जन्म में ब्राह्मणत्व प्राप्त करता है।गुरूकुल प्रवेश के बाद बच्चे को परखा जाता था। उस के उपरांत ही उस का वर्ण निश्चित करा जाता है। 
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【भगवतानंद द्वारा प्रस्तुत महाभाष्य के प्रमाण 】

तपः श्रुतं च योनिश्चेत्येतद् ब्राह्मणककारणम् ।
(महाभाष्य)
जो ब्राह्मण से ब्राह्मणी में उत्पन्न और उपनयनपूर्वक वेदाध्ययन ,तप, विद्यादिसे युक्त होता है ,वही मुख्य ब्राह्मण होता है !
तप: श्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:
(महाभाष्य)
जो तप और विद्यासे हीन है वह केवल जाति से ब्राह्मण होता है ।

🍁खंडन🍁

वैदिक काल में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिसमें माता और पिता दोनों ब्राह्मण नहीं थे किंतु उनकी संतान आगे चल के महान ऋषि बनी इसलिए पहला प्रमाण प्रक्षिप्त सिद्ध होता है । महर्षि पतंजलि भी गुण कर्म आधारित व्यवस्था का समर्थन करते थे इसीलिए उन्होंने लिखा है कि -

सर्व एते शब्दा गुणसमुदायेषु वर्त्तन्ते ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्य: शूद्र:।
 (महाभाष्य 5:1:115) 
अर्थात्‌ - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये गुणसमुदायविशेष के वाचक हैं, जातिसमुदायविशेष नहीं। पढना-पढाना आदि गुणसमुदाय का नाम ब्राह्मण है। ऐसे ही सभी वर्णों में समझें।

✍️✍️ Hari_Maurya

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