【 वेदों को 2 हिस्सों में बांटा जा सकता है 】
वेदत्रयी - ॠग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद
चतुर्वेद - ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद
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【वेद की भाषा शैली】
शब्द-प्रयोग की तीन ही शैलियाँ होती हैं; जो पद्य (कविता), गद्य और गान रूप से जन-साधारण में प्रसिद्ध हैं। पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम का निश्चित नियम रहता है।
तेपां ऋग् यत्रार्थ वशेन पाद व्यवस्था|
गीतिषु सामाख्या शेषे यजु शब्द|
(पूर्वमीमांसा 2:1:35-37)
अर्थ-जिनमे अर्थवश पद व्यवस्था है वे ऋग् कहे जाते है| जो मंत्र गायन किये जाते है वे साम ओर बाकि मंत्र यजु शब्द के अंतर्गत होते है| ये तीन प्रकार के मंत्र चारो वेद मे फैले हुए है|
"पड्गुरुशिष्य" ने कहा है -
"विनियोक्तव्यरूपश्च त्रिविधः सम्त्रदर्श्यते।
ऋग् यजु: सामरूपेण मन्त्रोवेदचतुष्टये।।"
अर्थ- यज्ञो में तीन प्रकार के रूप बाले मंत्र विनियुक्त हुआ करते है। चारें वेदों में वे ऋग, यजु और साम रूप में है।
तीन प्रकार के मंत्रों के होने, अथवा वेदों में ज्ञान, कर्म और उपासना तीन प्रकार के कर्तव्यों के वर्णन करने से वेदत्रयी कहे जाते हैं। परन्तु वेदत्रयी में चारो वेदो का समावेश है।
वेद का पद्य भाग - ऋग्वेद
वेद का गद्य भाग- यजुर्वेद
वेद गायन भाग - सामवेद
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【वेदत्रयी का उपयोग क्यों】
ऋक्, यजुः और साम - इन तीन शब्द-शैलियों मे संग्रहात्मक एक विशिष्ट अध्ययनीय शब्द-राशि ही वेद कहलाती थी। वेद के समकक्ष मे अथर्व भी सलग्न कर ले तो , फिर 'त्रयी' के जगह 'चतुर्वेद' कहा जाता है इसलिए शैली के दृष्टि से वेद 3 हैं, विषय के दृष्टि से वेद 4 हैं यही कारण है की वेदत्रयी का उपयोग कई वैदिक ग्रंथों में किया गया है।
कार्यभेदात् त्रयीत्वेऽपि चतुर्धा सा प्रकीर्तिता ।
ऋचो यजूंषि सामानि चातुर्होत्रप्रधानत्वाद्गादित्रितयं
ह्यथर्वाङ्गिरसस्तथा ॥ ६ ॥
त्रयी अथर्वणां पृथक्करणे हेतुः
अथर्वाङ्गिरसां रूपं सर्वमृग्यजुषात्मकम् ॥ ७ ॥
तथापि शान्त्याभिचारप्राधान्यात् ते पृथक् कृताः ।
(अहिर्बुध्न्य संहिता 12 : 6-7)
वेद प्रथम स्वरूप त्रयीमय है जिसमें (स्थावर जङ्गम रूप) सभी अर्थों का दर्शन हो जाता है। ऋक् यजु: साम इन तीन रूपों में होने से उसे त्रयी कहा जाता है। यद्यपि ये तीन ही है किन्तु कार्यभेद से यह त्रयी ही चार भी कही जाती हैं। चातुहांत्र प्रधान होने से वह अयी ऋक यजुः साम और अङ्गिरा निर्मित अथर्व चार है। ऐसे ऋगादि त्रितय की ही 'यो मंज्ञा है। यद्यपि अङ्गिग्स प्रोक्त अथर्वा का रूप ॠग् यजुषात्मक है फिर भी शान्ति एवं अभिचार प्रधान होने से उसकी गणना पृथक-पृथक् गई है ।
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【 वेदत्रयी मुख्यता किन वैदिक ग्रंथो में उपयोग हुवा है】
1-ब्राह्मण ग्रंथ में-
वायोः वेदा प्रजायन्त ऋग्वेद एवाग्नेरजायत यजुर्वेदो वायोः सामवेद आदित्यात्; 'तान् वेदानभ्यपतत्' ।' -
(ऐत्रेय ब्राह्मण 5:5:6)
अर्थ-तीनों वेद उत्पन्न हुए। ऋग्वेद अग्निसे उत्पन्न हुआ; यजुर्वेद वायु से और सामवेद आदित्य से ।
2-वाल्मीकि रामायण में-
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेद्धारिणः।
नासामवेदविदुषश्शक्यमेवं विभाषितुम्
(वाल्मीकि रामायण 4:3:28)
अर्थ-जब तक ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में पारंगत न हो, निश्चित रूप से, किसी के लिए भी इतनी अच्छी तरह से व्यक्त करना संभव नहीं है।
3-भगवद गीता में -
पिताऽहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च।।
(गीता 9:17)
अर्थ-मैं ही इस जगत् का पिता , माता , धाता (धारण करने वाला) और पितामह हूँ मैं वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ, पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।।
4- उपनिषद् में -
त्रयो वेदा एत एव वागेवर्ग्वेदो मनो यजुर्वेदः प्राणः सामवेदः ॥ ५ ॥
(बृहदारण्यक उपनिषद् 1:5:5)
अर्थ- ये ही तीन वेद हैं- वाणी ही ऋग्वेद, मन यजुर्वेद और प्राण सामवेद हैं।
2 टिप्पणियाँ
Sir आप से कुछ अनुमति चाहिए आपसे संपर्क कैसे करू
जवाब देंहटाएंयदि आप प्रति उत्तर करे तो आपका आभार होगा
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