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(1) योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया ।
स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वचित्सुखमेधते ।।-(मनु० ५/४५)*
अर्थ:-जो जीव वध-योग्य नहीं हैं,उनको जो कोई अपने सुख के निमित्त मारता है,वह जीवित दशा में भी मृतक-तुल्य है,वह कहीं भी सुख नहीं पाता है।
(2) यो बन्धनवधक्लेशान्प्राणिनां न चिकीर्षति ।
स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्नुते ।।-(मनु० ५/४६)
अर्थ:-जो मनुष्य किसी जीव को बन्धन में रखने,वध करने व क्लेश देने की इच्छा नहीं रखता है,वह सबका हितेच्छु है,अतएव वह अनन्त सुख भोगता है।
(3) नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित्।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।।-(मनु० ५/४८)
अर्थ:-जीवों की हिंसा बिना मांस की प्राप्ति नहीं होती और जीवों की हिंसा स्वर्ग-प्राप्ति (सुखविषेश) में बाधक है,अतः मांस-भक्षण कदापि नहीं करना चाहिए।
(4) समुत्पत्तिं तु मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम् ।
प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात् ।।-(मनु० ५/४९)
अर्थ:-मांस की उत्पत्ति,जीवों का बन्धन तथा उनकी हिंसा-इन बातों को देखकर सब प्रकार से मांस-भक्षण का त्याग करना चाहिए।
(5) न भक्षयति यो मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत् ।
स लोके प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते ।।-(मनु० ५/५०)
अर्थ:-जो मनुष्य विधि त्यागकर पिशाच की तरह मांस-भक्षण नहीं करता वह संसार में सर्वप्रिय बन जाता है और विपत्ति के समय कष्ट नहीं पाता।
(6) अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चैति घातकाः ।।-(मनु० ५/५१)
अर्थ:-पशु-हत्या की अनुमति देने वाला,शस्त्र से मांस काटने वाला,मारने वाला,खरीदने वाला,बेचने वाला,पकाने वाला,परोसने वाला और खाने वाला,ये सब घातक अर्थात् कसाई हैं।
(7) वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः ।
मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम् ।।-(मनु० ५/५३)
अर्थ:-जो मनुष्य सौ वर्ष-पर्यन्त प्रत्येक वर्ष एक बार अश्वमेध यज्ञ करता है तथा अन्य पुरुष जो मांसभक्षी नहीं है,इन दोनों के पुण्य का फल समान है।
(8) फलमूलाशनैर्मेध्यैर्मुन्यन्नानां च भोजनैः ।
न तत्फलमवाप्नोति यन्मांसपरिवर्जनात् ।।-(मनु० ५/५४)
अर्थ:-मनुष्य को सेब,केला आदि पवित्र फल,गाजर,मूली आदि कन्दमूल और मुनी-अन्न के खाने से वह फल प्राप्त नहीं होता,जो मांस-भक्षण के परित्याग से प्राप्त होता है।
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