शुद्र कौन है

 



【 वर्ण शब्द की परिभाषा 】

यास्क ने निरुक्त में कहा है कि ‘‘वर्णो वृणोतेः’’ (निरुक्त 2 : 3)

अर्थात् - वर्ण उसे कहते हैं जो वरण अर्थात् चुना जाये .

वर्ण शब्द के अर्थ से ही स्पष्ट है कि यहाँ व्यक्ति को स्वतन्त्रता थी कि वह किस वर्ण को चुनना चाहता है।

_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳

【 शूद्र शब्द  की परिभाषा 】

‘शुच्-शोके’ धातु से भी ‘रक्’ प्रत्यय के योग से ‘शूद्र’ शद बनता है। इसकी व्युत्पत्ति होती है-‘शोच्यां स्थितिमापन्नः, शोचतीति वा’=जो निनस्तर की जीवनस्थिति में है और उससे चिन्तायुक्त रहता है। आज भी अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति को श्रमकार्य की नौकरी मिलती है। वह अपने जीवन निर्वाह की स्थिति को सोचकर प्रायः चिन्तित रहता है। उसे इस बात का पश्चात्ताप होता रहता है कि उच्चशिक्षित होता तो मुझे भी अच्छी नौकरी मिलती। इसी प्रकार प्राचीन वर्णव्यवस्था में जो अल्पशिक्षित या अशिक्षित रहता था उसे भी श्रमकार्य मिलता था। उसी श्रेणी को शूद्रवर्ण कहते थे।

_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳

【  शूद्र शब्द की उत्पत्ति 】

‘‘असतो वा एषः सभूतः यच्छूद्रः’’ (तैत्तिरीय ब्राह्मण -3. 2 . 3 .9)

अर्थात्-‘‘यह जो शूद्र है, यह असत्=अशिक्षा (अज्ञान) से उत्पन्न हुआ है।’’ 

विधिवत् शिक्षा प्राप्त करके ज्ञानी व शिक्षित नहीं बना, इस कारण शूद्र रह गया।यहाँ शिक्षा ग्रहण करने का तात्पर्य वेदाध्ययन से है  इसलिए हमारे धर्म के अनुसार शूद्र वही है जो अनपढ़ हो और अगर कोई वेद पढ़ा हुवा है तो और वो  शुद्र बोलो तो वो मुर्खता है . 

_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳

【 जन्म से सभी शूद्र होते है 】

🍁मनुस्मृति के प्रक्षिप्तसिद्ध एक श्लोक में कहा है-

शूद्रेण हि समस्तावद् यावत् वेदे न जायते। 

(मनुस्मृति 2.172)

अर्थात्-‘जब तक कोई वेदाध्ययन नहीं करता तब तक वह शूद्र के समान है, चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो।’ 

जब भी किसी का जन्म होता है तो वो गुणहीन और अशिक्षित  होता है इसलिए हर एक मनुष्य जन्म से  शुद्र ही होता है 

_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳

【 शूद्र का कर्तव्य 】


एकमेव तु शुद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत् ।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया ।।
(मनुस्मृति 1:91)

अर्थ = परमेश्वर ने( शूद्रस्य ) जो विद्धाहीन – जिसको जिसको पढ़ने से विद्या न आ सके , शरीर से पुष्ट सेवा मै कुशल हो, उस उस शुद्र के लिए इन ब्राह्मण ; क्षत्रिय, वैश्य तीनो वर्णो की निन्दा से रहित प्रीती से नौकरी करना , यही कर्म करने की आज्ञा है दी गई है ।।

शूद्रवर्णस्थ व्यक्ति अशिक्षित होने के कारण ब्राह्मणों सहित सभी द्विजवर्णों के घरों में सेवा या श्रम कार्य करते थे। घर में रहने वाला कभी अछूत नहीं होता। मनु ने कहा है-

विप्राणां वेदविदुषां गूहस्थानां यशस्विनाम्

शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैःश्रेयसः परः॥
(मनुस्मृति 9 : 334)

अर्थ-वेदों के विद्वान् द्विजों, तीनों वर्णों के प्रतिष्ठित गृहस्थों के यहां सेवाकार्य (नौकरी) करना ही शूद्र का हितकारी(लाभदायक) कर्त्तव्य है।

जिसको विद्या से भी विद्धा न आई भला वह अपनी जीविका किस प्रकार चलावेगा बिना ज्ञान के वह कौन सा कार्य करेगा ?? इसलिए उसके लिए ठीक है कि वह किसी घर पर भोजन बनावे या उसका सेवक बनकर उससे अपनी जीविका चलावे । आज भी आप देखोगे तो जो अशिक्षित लोग ही सेवक बने रहते है जैसे – गाङी चलाना , भोजन बनाना , चाय पानी आदि पिलाना आदि आदि ।।

_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳

【 जो द्विज नहीं बन पाया वो शूद्र 】

वैदिक शास्त्रों के अनुसार सभी मनुष्यों  को शिक्षा ग्रहण करना अर्थात द्विज बनने का अधिकार है ,जो अशिक्षित रह जाता है उस वर्ण या व्यक्ति को ‘शूद्र’ कहा जाता है। शेष तीन वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य  ‘द्विज’ कहे जाते हैं; क्योंकि वे विधिवत् शिक्षा ग्रहण करते हुए अभीष्ट वर्ण का प्रशिक्षण प्राप्त करके उस वर्ण को धारण करते हैं। वह उनका दूसरा जन्म ‘‘ब्रह्मजन्म’’= ‘विद्याध्ययन जन्म’ कहाता है। पहला जन्म उनका माता-पिता से हुआ, दूसरा विद्याध्ययन से, अतः वे ‘द्विज’ और ‘द्विजाति’ कहे गये। इस नाम में भी किसी प्रकार की हीनता का भाव नहीं है।

🍁मनु का श्लोक है-

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः त्रयो वर्णाः द्विजातयः।

चतुर्थः एकजातिस्तु शूद्रः नास्ति तु पंचमः॥ 

(मनुस्मृति 10.4)   

अर्थात्-‘वर्णव्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीन वर्ण ‘द्विज’ या ‘द्विजाति’ कहलाते हैं; क्योंकि माता-पिता से जन्म के अतिरिक्त विद्याध्ययन रूप दूसरा जन्म होने से इन वर्णों के दो जन्म होते हैं। चौथा वर्ण ‘एकजाति’ है; क्योंकि उसका केवल माता-पिता से एक ही जन्म होता है, वह विद्याध्ययन रूप दूसरा जन्म नहीं प्राप्त करता। उसी को शूद्र कहते हैं। वर्णव्यवस्था में पांचवां कोई वर्ण नहीं है।’

_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳

【 शुद्र और  दंडविधान 】

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम् 

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ 

(मनुस्मृति 8.337) 

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्। 

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥ 

(मनुस्मृति 8.338) 

अर्थात् - किसी अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अट्ठाईसगुणा दण्ड देना चाहिए, क्योंकि उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भली-भांति समझने वाले हैं।

आप यहाँ समझ सकते है की शूद्र के लिए किसी भी अपराध के लिए सबसे कम दंड का विधान है क्यूंकि वो शिक्षित नहीं है.अतः ब्राह्मण को दण्डरहित छोड़ने का जहां भी कथन है, वह इस मनुव्यवस्था के विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त (मिलावट) है।

_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳

【 वर्ण परिवर्तन और वर्णपतन 】

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।

 (मनुस्मृति 10.65)

अर्थात्- ब्राह्मण शूद्रत्व को,शूद्र ब्राह्मणत्व को और ऐसे ही क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाती हैं।

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् । 

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥ 

(मनुस्मृति 2.168)

अर्थात्- जो ब्राहमण, क्षत्रिय या वैश्य वेदादिशास्त्रों का पठन-पाठन छोड़ अन्यत्र परिश्रम करता है वह शूद्रता को प्राप्त हो जाता है।

🍁 बुद्ध के वक्त भी ऐसी व्यवस्था चलन में थी - 

न जच्चा वसलो होति न जच्चा होति ब्राह्मणो | 

कम्मुना वसलो होति, कम्मुना होति ब्राह्मणो॥ ||

(तिपिटक/ सुत्तनिपातपाली 7. वसलसुत्तं)

अर्थात - जन्म से कोई चाण्डाल नहीं होता और जन्म से कोई ब्राह्मण भी नहीं होता | कर्म से ही चाण्डाल और कर्म से ही ब्राह्मण होता है |

_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳

【 शूद्र अन्य वर्णों को पालता है जिनको शुद्रो से नफरत है वो ये शूद्र धरती छोड़ दे - 】

स नैव व्यभवत्स शौद्रं वर्णममृजत पूषणमियं

वै पूषेयं हीदं सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च ॥ १३ ॥ 

(बृहदारण्यक उपनिषद् 1/4/13)

व्याख्या - यह शुद्र वर्ण पूषण (पालनेवाला ) अर्थात पोषण करने वाला हैं और साक्षात्‌ इस पृथ्वी के समान हैं क्यूंकि जैसे यह पृथ्वी सबका भरण -पोषण करती हैँ वैसे शुद्र भी सबका भरण-पोषण करता हैं। इसलिए पृथिवी को शूद्रदेव कहा गया हैं क्‍योंकि हमें अन्न देती है आश्रय देती है और हमारा पोषण करती है ।



‘सः शौद्रं वर्णमसृजत्, पूषणमियं वै पूषा इयं हीदं सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च।’’
(शतपथ ब्राह्मण -14.4.2.25)

अर्थात्-उस ब्रह्म-पुरुष ने शूद्रसबन्धी वर्ण को उत्पन्न किया। देवों में पूषा देव को शूद्र के रूप में उत्पन्न किया, क्योंकि वह सबको पालन-पोषण करके पुष्ट करता है। 
क्या यहां कहीं हीनभावना या अपमानजनक भावना दिखाई पड़ती है? गुणों में समानता यह है कि पृथ्वी का पोषक रूप=पूषा देव सब पदार्थों को पुष्ट करता है और शूद्र भी अपने श्रम-सेवा से सबको पुष्ट करता है, अतः गुण-कर्म-साय से दोनों शूद्र वर्णस्थ हैं।

_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳

【शूद्रहत्या के लिए प्रायश्चित】

एतदेव व्रतं कृत्स्नं षण्मासाञ् शूद्रहा चरेत् ।
वृषभैकादशा वापि दद्याद्विप्राय गाः सिताः ।।
(मनुस्मृति-11/130)
 अर्थ - शूद्र के वध करने में छः मास पर्यन्त  शुद्र हत्या के प्रायश्चित को करे और  बैल और दस गऊ ब्राह्मण को देवे। यह भी अज्ञानता से वध करने में जानना। इन सब व्रतों के करने में कपाल ध्वजा को त्याग देना चाहिये।

अतः शूद्रहत्या में ब्राह्मण हत्या जैसा प्रायश्चित होता है।कहिये,शूद्रहत्या का प्रायश्चित करके शूद्र का दर्जा बढ़ाया गया या नहीं? फिर ११/१३१ में भी बिल्ली आदि के मरने पर शूद्रहत्या=६मास तक ब्रह्महत्या का प्रायश्चित करना कहा गया है।इससे बिल्ली आदि का दर्जा ब्राह्मण जैसा हो गया है यानी उनकी ब्राह्मण की हत्या जैसी है तभी ब्रह्महत्या के ६ मास का प्रायश्चित करना पड़ता है। शुद्र अछूत नहीं होता तो नहीं तो उसकी हत्या पर प्रायश्चित का विधान न होता .

_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳_̳


꧁☆★ वैदिक सिद्धांतों को जानो और अज्ञानता का त्याग करो★☆꧂




एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ