वर्ण शब्द की परिभाषा
यास्क ने निरुक्त में कहा है कि ‘‘वर्णो वृणोतेः’’ (निरुक्त 2 : 3)
अर्थात् - वर्ण उसे कहते हैं जो वरण अर्थात् चुना जाये .
वर्ण शब्द के अर्थ से ही स्पष्ट है कि यहाँ व्यक्ति को स्वतन्त्रता थी कि वह किस वर्ण को चुनना चाहता है।
ब्राह्मण शब्द का अर्थ
यस्क मुनि की निरुक्त के अनुसार,
ब्रह्म जानाति ब्राह्मण:
अर्थात - ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म (ईश्वर) को जानता है।
इसलिए महृषि याज्ञवल्क्य ने गार्गि से कहा था-
एतदक्षरं गार्गि विदित्वास्माल्लोकात् प्रैति स ब्राह्मणः ॥
(बृहदारण्यकोपनिषद् 3 : 9 :10)
अर्थात -हे गार्गि ! जो इस अक्षर ब्रह्म को जानकर इस लोक से मरकर जाता है, वह ब्राह्मण है।
ब्राह्मण कौन है
वेदों के अनुसार
ब्रा॒ह्म॒णास॑: सो॒मिनो॒ वाच॑मक्रत॒ ब्रह्म॑ कृ॒ण्वन्त॑: परिवत्स॒रीण॑म् ।
अ॒ध्व॒र्यवो॑ घ॒र्मिण॑: सिष्विदा॒ना आ॒विर्भ॑वन्ति॒ गुह्या॒ न के चि॑त् ॥
(ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:103» मन्त्र:8)
अर्थ- ब्राह्मण सौम्य चित्तवाले ब्रह्म के यश को प्रकाशित करते हुए वेदवाणी का उच्चारण करते हैं, कोई एकान्त स्थल में बैठे व्रत करते हुए ब्राह्मण उष्णता से सिक्त शरीर होकर भी बहिर्भूत नहीं होते ॥
बुद्ध के अनुसार-
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥ -
(धम्मपद - ब्राह्मण वग्ग : 11)
अर्थ - न जटा से, न गोत्र से, न जन्म से ब्राह्मण होता है जिसमे सत्य और धर्म है वही पवित्र है और वही ब्राह्मण है |
महावीर के अनुसार-
जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं॥
अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है, कौन स्थावर है। और मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं।
जैन आदिपुराण के अनुसार -
मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा ।
वृत्तिभेवाहिता वाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते॥ 45
ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् ।
वणिजोऽर्थार्जनान्याय्याच्छूद्रान्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥46
(आदिपुराण - पर्व 38 )
अर्थात - जातिनामक कर्म अथवा पंचेन्द्रिय जाति का अवान्तर भेद मनुष्य जाति नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाली मनुष्य जाति एक ही है। सिर्फ आजीविका के भेद से वह चार प्रकार की हो जाती है / व्रत-संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रधारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्ण धनार्जन से वैश्य और सेवावृत्ति से शूद्र कहलाते हैं।
ब्राह्मण कैसे बनते है
स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥
(मनुस्मृति 2 : 28)
अर्थ-वेदों के पढ़ने से, ब्रह्मचर्य, विहित अवसरों पर अग्निहोत्र करने से, पक्षेष्टि आदि अनुष्ठान करने से, धर्मानुसार सुसन्तानोत्पत्ति से, पांच महायज्ञों के प्रतिदिन करने से, अग्निष्टोम आदि यज्ञ-विशेष करने से मनुष्य का शरीर ब्राह्मण का बनता है।’
ब्राह्मण वर्ण का चयन करने वाले स्त्रियों और पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजन तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥
(मनुस्मृति 1: 88)
अर्थ-ब्राह्मण वर्ण में दीक्षा लेने के इच्छुक स्त्री-पुरुषों के लिए ये कर्तव्य और आजीविका के कर्म निर्धारित किये हैं-‘विधिवत् पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और कराना तथा दान प्राप्त करना और सुपात्रों को दान देना।’
इन कर्मों के बिना कोई ब्राह्मण-ब्राह्मणी नहीं हो सकता।
क्या ब्राह्मण जाति है?
तर्हि जाति ब्राह्मण इति चेत् तन्न । तत्र
जात्यन्तरजन्तुष्वनेकजातिसम्भवात् महर्षयो बहवः सन्ति ।
ऋष्यशृङ्गो मृग्याः, कौशिकः कुशात्, जाम्बूको जाम्बूकात्, वाल्मीको
वाल्मीकात्, व्यासः कैवर्तकन्यकायाम्, शशपृष्ठात् गौतमः,
वसिष्ठ उर्वश्याम्, अगस्त्यः कलशे जात इति शृतत्वात् । एतेषां
जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति । तस्मात्
न जाति ब्राह्मण इति ॥
(वज्रसूचि उपनिषद् -श्लोक-6 )
अर्थात - ब्राह्मण कोई जाति है ? नहीं, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि विभिन्न जातियों एवं प्रजातियों में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है ! जैसे – मृगी से श्रृंगी ऋषि की, कुश से कौशिक की, जम्बुक से जाम्बूक की, वाल्मिक से वाल्मीकि की, मल्लाह कन्या (मत्स्यगंधा) से वेदव्यास की, शशक से गौतम की, उर्वशी से वसिष्ठ की, कुम्भ से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति वर्णित है ! इस प्रकार पूर्व में ही कई ऋषि बिना ब्राह्मण घर में में जन्म लिए प्रकांड विद्वान् हुए हैं, इसलिए केवल कोई जाति विशेष भी ब्राह्मण नहीं हो सकती है !
इस आधार पर हम कह सकते है की कोई जन्म से ब्राह्मण नहीं होता जैसा की आज सनातन परंपरा विरोधी कार्य होता है ब्राह्मण का सन्तान ब्राह्मण बन जाता है वो वैदिक शास्त्र विरोधी है जैसा की आज कल होता है शर्मा , दुबे , त्रिवेदी , दुबे, द्विवेदी इत्यादि जाती लगाके लोग खुद को ब्राह्मण बोलते है वो शास्त्र विरोधी है अगर उनको ब्राह्मण बनना है तो वेद पढ़ना आवश्यक है.
क्या ब्राह्मण का वर्णपतन संभव है ?
जब कोई वेदाध्ययन से ब्राह्मण बनता है लेकिन बाद में अपने निर्धारित कर्म को त्याग देता है तो उसका वर्ण परिवर्तन हो जाता है-
'हिन्सानृतप्रिया: लुब्धा: सर्वकर्मोपजीबिन:।
कृष्णा: शौचपरिभ्रष्टास्ते द्विजा: शुद्रतां गता:॥
(महाभारत शांतिपर्व 188 : 3)
अर्थ-जो शौच ( शरीर और मन शुद्ध रखना ) और सदाचार से भ्रष्ट होकर हिंसा और अस॒त्य के प्रेमी हो गये। लोभवश सभी तरह के निम्न कर्म करके जीविका चलाने लगे और इसलिए जिनके शरीर का रंग काला पड़ गया, वे ब्राह्मण, शूद्रत्व को प्राप्त हो गये।
इत्यतै: कर्मभिर्व्यस्ता द्विजा वर्णान्तरं गता:।
धर्मों यज्ञ क्रिया तेषां नित्य न प्रतिषिध्यते॥
(महाभारत शांतिपर्व 188 : 4)
अर्थ-इन्हीं कर्मों के कारण ब्राह्मणत्व से अलग होकर ब्राह्मण दूसरे-दूसरे वर्ण के हो गये। किन्तु किसी भी वर्ण के लिए नित्य धर्मानुष्ठान और यज्ञ कर्म का भी निषेध नहीं किया गया है।
महर्षि मनु के अनुसार -
योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् ।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥
(मनुस्मृति 2.168)
अर्थात्- जो ब्राहमण, क्षत्रिय या वैश्य वेदादिशास्त्रों का पठन-पाठन छोड़ अन्यत्र परिश्रम करता है वह शूद्रता को प्राप्त हो जाता है।
ब्राह्मण कहलाने योग्य कौन है
यःस्याद् दान्तः सोमपश्चायशीलः।
सानुक्रोशः सर्वसहो निराशीः ॥
ऋजुमृदुरनृशंसः क्षमावान।
स वै विप्रो नेतरः पापकर्मा ॥
( महाभारत शांति पर्व -63 :8 )
अर्थात - जो मन और इन्द्रियों कों संयम में रखनेवाला। सोमयाग करके सोमरस पीनेवाला , सदाचारी , दयालु, सब कुछ सहन करनेवाला , निष्काम ,सरल , क्रूरतारहित और क्षमाशील हो वही ब्राह्मण कहलाने योग्य है | उससे अलग जो पापाचारी है, उसे ब्राह्मण नहीं समझना चाहिये ॥ ८ ॥
किन लक्षणों से मनुष्य ब्राह्मण होता है
यज्ञ: श्रुतमपैशुन्यमर्हिंसातिथि पूजनम्।
दम: सत्य तपो दानमेतद् ब्राह्मणलक्षणम्॥
(महाभारत- शान्तिपर्व - 76 : 5)
अर्थात - यज्ञ, वेदों का अध्ययन, किसी की चुगली न करना , हिंसा न करना, अतिथि पूजन करना, इन्द्रियों को संयम में रखना, सच बोलना, तप करना और दान देना यह सब ब्राह्मण का लक्षण है।
महाभारत के वनपर्व में जब युधिष्ठिर से पूछा गया अगर किसी शूद्र में ब्राह्मण के लक्षण हुवे तो वो क्या होगा इसपर युधिष्ठिर ने कहा-
शूद्रे तु यद् भवेल्लक्ष्म द्विजे तच्च न विद्द्ते,
न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्रह्मणो न च ब्रह्मणः ।
(महाभारत - वनपर्व 180:25)
अर्थात् - यदि शुद्र में सत्य आदि उपयुक्त लक्षण हैं तो वो ब्राह्मण है और अगर किसी ब्राह्मण में सत्य आदि लक्षण का आभाव है तो वो ब्राह्मण शुद्र है .
ब्राह्मण और दंडविधान
अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥
(मनुस्मृति 8.337)
ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।
द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥
(मनुस्मृति 8.338)
अर्थात् - किसी अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अट्ठाईसगुणा दण्ड देना चाहिए, क्योंकि उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भली-भांति समझने वाले हैं।
आप यहाँ समझ सकते है की शूद्र के लिए किसी भी अपराध के लिए सबसे कम दंड का विधान है क्यूंकि वो शिक्षित नहीं है.अतः ब्राह्मण को दण्डरहित छोड़ने का जहां भी कथन है, वह इस मनुव्यवस्था के विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त (मिलावट) है।
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इस लेख के माध्यम से मैंने वैदिक विचारधारा में ब्राह्मण शब्द को लेकर सभी भ्रांतियों के निराकारण का प्रयास किया हैं। ब्राह्मण शब्द की वेदों में बहुत महत्ता है। मगर इसकी महत्ता का मुख्य कारण जन्मना ब्राह्मण होना नहीं अपितु कर्मणा ब्राह्मण होना है। मध्यकाल में हमारी वैदिक वर्ण व्यवस्था बदल कर जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गई।जातिवाद से हिन्दू समाज की एकता समाप्त हो गई। इसी कारण से हम कमजोर हुए तो विदेशी विधर्मियों के गुलाम बने। हिन्दुओं के 1200 वर्षों के दमन का अगर कोई मुख्य कारण है तो वह जातिवाद है। वही हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। आईये इस जातिवाद रूपी शत्रु को को जड़ से नष्ट करने का संकल्प ले।
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